बुधवार, 30 मार्च 2011

लिखा था जो कुछ बेख़याली में, भूल कर उसको
ज़िदगी; पहले सा वो जुनून न मांग.
  
फ़ेर लेना  नज़र उस ओर से  
 किसी रोते हुए बच्चे की भूख न मांग, 
मोम की इन उँगलियों से,
चट्टान से शब्दों की हूक न मांग. 
ज़िन्दगी; पहले सा वो जुनून न मांग .

रख ले तू पूरी चांदनी आज की रात,
सूरज से उसके हिस्से की धूप न मांग ,
लग जाये मेरी सारी उमर तुझको;ग़म नहीं,
 मुझसे मेरा वज़ूद न मांग      
ज़िन्दगी वो पहले सा जुनून न मांग.

फिर छाएंगे रंग पेड़ों पर पतझड़ के बाद,
परिंदों से नयी शाख़ पर ठिकाना न मांग,
हालात कुछ भी हों डर नहीं,
कम से कम मुर्दों से,
मेरे जिंदा होने का सुबूत न मांग 
ज़िन्दगी वो पहले सा जुनून न मांग. 






































रविवार, 27 मार्च 2011


                                          अजनबी नहीं कोई इस शहर में.................
 'हिंदी के मशहूर घुमंतू लेखक राहुल सांस्कृत्यायन कहा करते थे कि भले ही आपको किताबी ज्ञान न हो लेकिन अगर आप फक्कड़ी जीवन जीने में विश्वास रखते हैं , तो दुनिया भर का ज्ञान आपके पास होगा'. जिस लखनऊ  शहर में पैदा हुए , जब उसी शहर को घूमने के इरादे से से निकले तो सब अजनबी सा पाया. जो चीज़ें रोज़ नज़रों के सामने से बस यूँ ही निकल जाया करती थीं आज वो सब खास लग रही थीं. ऐसा लग रहा था कि रात कोई सपना देखा था और जो याद नहीं है. कैसा लगा मुझे तहजीब का शहर लखनऊ? मेरी नज़र से-

 सुबह घर से लखनऊ भ्रमण पर निकली. घर में सभी ने कहा यहाँ क्या देखने लायक क्या है? अक्सर हम घूमने के नाम पर सिर्फ मंदिरों में जाया करते हैं, लेकिन मैंने गांठ बांध ली थी कि कुछ भी हो आज सिर्फ घूमने के लिए जाउंगी. बख्शी का तालाब जो लखनऊ के लगभग दुसरे छोर पर है, कहा जाता है कि इसे राजा बख्शी ने बनवाया था. भारतीय संस्कृति में पानी पिलाना पुण्य का काम माना गया है और ये भारतीय संविधान में भी है कि पूरे भारत में किसी होटल में पानी का कोई अलग से पैसा नहीं पड़ेगा. इस तालाब को भी इसी उद्द्येश्य से बनवाया गया था. जानवरों के लिए एक पानी पीने के लिए एक अलग से रास्ता बनवाया गया था . सीढ़ियों से आप इस तालाब कि तली तक पहुँच सकते हैं, क्यांकि बाकी के तालाबों कि तरह ये भी अब सूख चुका है.
                                                                                       लखनवी तहजीब की झलक आपको इस शहर में कदम रखते ही देखने को मिलेगी. टैक्सी वाले आपसे पूछते हैं 'आइये कहाँ जायेंगी बैठिये'.यहाँ  बात आपसे शुरू होती है और हम पे ख़तम. लखनवी ज़ुबान आपको पहली नज़र में ही इस शहर का दीवाना बना देती है. ठीक आठ बजे हम सब टीले वाली मस्जिद में इकट्ठे हुए. यू.पी. के टूरिज्म विभाग की ओर से हमें लखनऊ भ्रमण का मौका मिला.हमारे गाईड आतिफ और नवेद ने हमें बताया की इसे नवाब आसिफ अली ने बनवाया था.गोमती नदी के ठीक किनारे स्थित ये मस्जिद उस जगह से ऊँचाई पर है ,इसीलिए इसे टीले वाली मस्जिद कहा गया. इसके अन्दर की दीवारों और छतों पर लाल- हरे रंग की पत्तियाँ उकेरी गयी हैं ,जो ईरानी -भारतीय स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना हैं .यहाँ पर हज़रत सैयद शाह की मन्नते पूरी करने  वाली दरगाह भी है. हालाँकि  गाईड इमरान हाश्मी की ज़िन्नों से जुडी बातें हमें महज़ किस्सागोई ही लगीं. हमने ये भी जाना की गोमती नदी मार्ग बदलती हुयी बहती है इसलिए इसे गोमती कहा गया. 
                                                                                       हमारा दूसरा पड़ाव बड़ा इमामबाडा था. इसके दरवाज़े इस तरह से बने हुए हैं की अन्दर बैठा व्यक्ति खुद तो अँधेरे में रहेगा लेकिन बाहर बाहर से आने वाले हर व्यक्ति पर  नज़र रख सकता है. इसके मुख्य द्वार पर हिन्दुओं में शुभ मानी जाने वाली मछलियाँ हैं और मस्जिद पर बने गुम्बद राजपूताना शैली में हैं.इस तरह से हिन्दू मुस्लिम एकता की मिसाल है. इमामबड़े से बाहर निकलते वक़्त मेरी नज़र इसके पीछे बनी झुग्गियों पर पड़ी.जो विलासिता और नवाबी शान की प्रतीक इस इमारत को मुंह चिढाती प्रतीत हो रही थी. थोड़ा और आगे बढने पर हमने देखा की एक व्यक्ति बिच्छू- सांप के काटने की दवाई बेंच रहा था.और लोग उसे विश्वास के साथ खरीद भी रहे थे.धरोहरों को संजो कर रखना तो ठीक है लेकिन इस सदी में इन नुस्खों से मर्ज़ ठीक होने की सोच से छुटकारा पा लेना ज़रूरी है. हमारे वेदों और समाज में सोमरस-पान की संस्कृति रही है.वक़्त के साथ तरीके अलग हो सकते हैं. यानि हम पहुँच गए थे लखनऊ की सौ साल पुरानी मशहूर 'राजा की ठंडाई की दूकान'  पर. यहाँ पर भांग वाली ठंडाई पीकर लोग लखनवी मिजाज़ के साथ लखनऊ की शामों का मज़ा लेते हैं. 
                                                                                'कितने नासमझ थे  हम जो पूरा मोहल्ला अपना समझते थे ;यहाँ तो हर घर की अलग कहानी निकली '. जब हम पुराने लखनऊ के टोलों की सैर पर निकले तो हर टोले का अपना इतिहास था. फूलों वाली गली, जिसमे गुलाब और बिजली के फूलों की हवा में फैली ख़ुशबू खुद ही अपनी पहचान बता रही थी. हमारे गाईड आतिफ ने हमें बताया कि यहाँ बने मकानों कि उपरी मंजिल पर मुज़रा करने वाली रहा करती थीं जहाँ लोग  वास्तव में तहजीब, उठने बैठने और बोलने के ढंग सीखने आया करते थे. आम भाषा में कहें तो इन तवायफों का कितना सम्मान था इस बात का अंदाजा इस बात से लगता है कि जब लोग इनकी महफ़िल में जाया करते थे तो फूल वाली गली से फूल लिया करते थे जो यहाँ के प्रसिद्ध मंदिरों में भी चढ़ते हैं. इसके अलावा हमने काले जी का राम मंदिर, शीतला मंदिर भी देखा.कटारी गली औजार बनाने के लिए प्रसिद्ध थी , जैसा कि नाम से ही ज़ाहिर है. नेपाली टोला में नेपाली मूल के लोग दुर्लभ जड़ीबूटियों का कारोबार करते हैं. एक और जो खास बात जो हमने जानी वो ये कि हर टोले के दो दरवाजे थे एक अन्दर आने का और टोला समाप्त होने पर दुसरे गेट से बंद होता था. हर टोले के घरों, दरवाज़ों और यहाँ तक कि तालों कि बनावट भी अलग थी. 
                                                             हमारा प्रमाणिक इतिहास आज़ादी के समय से ही मिलता है.  और आज़ादी कि महत्वपूर्ण लड़ाईयां लखनऊ शहर से भी लड़ी गयीं. फरंगी कोठी  आज़ादी के लिए हुयी बैठकों कि गवाह रही है.यहाँ रहने वाली नुसरत जी ने ने बताया कि गांधीजी, नेहरु और सरोजिनी नायडू ने भी इनमे हिस्सा लिया था. पश्चिम कि नक़ल करने में हमने अपनी कई चीज़ें यूँ ही गँवा दी , इसका जीता -जगता उदाहरण यूनानी  दवाखाना है.सरकार की कोई मदद न मिलने के कारण बदहाली कि क़गार पर है.इतना घूमने के बाद हमें ज़ोरों  कि भूक लग रही थी .जैसे ही हम असली लखनवी टुंडे कवाब और कुलचे वाली दूकान के पास पहुंचे हमारी भूख दोगुनी हो गयी. इस लज़ीज़ स्वाद के साथ ही हमारा लखनऊ भ्रमण पूरा हो गया. 
                                                                        ये लखनऊ कि सरज़मीं है. आप देश- देश घूमेंगे लेकिन लखनऊ आपको अजनबी नहीं लगेगा. यहाँ की चिकन- ज़रदोज़ी की कढाई को आप निहारे बिना रह नहीं रह सकेंगे तो दूसरी ओर तहजीब और नफासत ऐसी की गली भी लोग आप कहकर दे. यहाँ के खाने का स्वाद ऐसा की जब भी याद करे  तो मुंह में पानी आ जाये. इसलिए आप जब भी लखनऊ आयें तो खुद को एक अकेला  इस शहर में न समझें.                      






शुक्रवार, 25 मार्च 2011

book reveiw

The Alchemist Book Coverपुस्तक          - अल्केमिस्ट
लेखक           - पाओलो कोएलो 
हिंदी अनुवाद - कमलेश्वर 
प्रकाशन        - visdam ट्री
मूल्य             - १२५ रु  


सपनों को साकार करने की गज़ब इच्छाशक्ति के पीछे भागती कहानी 'अल्केमिस्ट', प्रसिद्ध ब्राजीली लेखक पाओलो  कोएलो ने लिखी है. ये कहानी दो भागों में बंटी है. 'अल्केमिस्ट' अर्थात कीमियागार यानी कि साधारण धातुओं को सोने में बदलने कि कला. पहला भाग कहानी के मुख्य पात्र सेंटियागो नाम के गरडिये से शुरू होती है. जो जीवन भर सिर्फ घूमना और घूमना चाहता है. एक दिन वह अपने पिता से कहता भी है- "तब यही सही मैं गरड़िया ही बनूँगा". लेकिन सेंटियागो के जीवन में मोड़ तब आता है, जब उसे सपने में एक लड़की दिखती है जो उसे पिरामिडों के देश मिस्र ले जाती है. इसका अर्थ जानने के लिए वह सपनों का अर्थ बताने वाली जिप्सी महिला के पास जाता है. जो उसे यकीन दिलाती है कि मिस्र में उसे छिपा खजाना मिलेगा. इसके बाद उसकी मुलाक़ात एक बूढ़े व्यक्ति से होती है जो वास्तव में सलेम का बादशाह था. बादशाह , सेंटियागो को शकुन- अपशकुन पहचाने वाले पत्थर देता है. इसी के साथ सेंटियागो अपनी भेड़ें बेचकर मिस्र देश कि यात्रा पर निकल पड़ता है. 
                                                                                                       दूसरे भाग कि शुरुआत सेंटियागो के एकल क्रिस्टल व्यापारी कि दुकान में काम करते हुए होती है.जिससे वह पैसे कमा के अपनी यात्रा ज़ारी रख सके. यहाँ सेंटियागो की शकुनो को पहचाने की कला काम कर जाती है. और क्रिस्टल व्यापारी की दुकान पर ग्राहक फिर से आने शुरू हो जाते हैं. क्रिस्टल व्यापारी उसे बताता है कि उसका भाग्य लिखा जा चुका है यानी कि 'मकतूब'. ठीक ग्यारह महीने नौ दिन काम करने के बाद वह उस कारवां का हिस्सा बन जाता है जो पिरामिडों के देश मिस्र जा रहा था. इस कारवां में उसकी मुलाक़ात एक अंग्रेज़ से होती है जो कीमियागिरी सीखने के लिए इन रेगिस्तानों की यात्रा पर निकला है. 
                                                                                       नियति की खोज में सेंटियागो ने धुल भरी आंधियां, खजूर के ऊँचे-ऊँचे पेड़, कई कारवां और सूखे में उम्मीद की ज़िदगी नखलिस्तान भी देखे. सपनों को पूरा करने की दृढ़ इच्छाशक्ति ने उसे क़बेलों में होने वाली लड़ाईयां दिखायीं, उसके प्यार फातिमा और कीमियागार से रोमांचक मुलाक़ात के साथ विश्वात्मा से संवाद करना भी सिखाया था. अंत में वह नियति की खोज में वहां पहुँच जाता है, जहाँ खज़ाना छिपा हुआ था. जब वह अपनी नियति के ठीक सामने होता है तभी उसे पता चलता है की वास्तव में खज़ाना वहां है ही नहीं. खज़ाना तो उस गूलर के पेड़ के नीचे जमीन में था, जहाँ वह दो साल पहले अपनी भेड़ों के साथ आराम किया करता था. सेंटियागो बिना समय गंवाए वापिस लौटकर उस खजाने को पा लेता है और निकल पड़ता है फातिमा को लाने जिससे उसने वादा किया था. 
                                                                                                             ये कहानी पाठकों में उत्साह पैदा करती  है और बताती है कि कैसे कैसे विषम परिस्थितियों में भी नियति से जूझते हुए सपनों को साकार किया जा सकता है.          
                                                                                                                    
               

गुरुवार, 24 मार्च 2011

                                                                ये दोस्ती............
दोस्त,
              आज तुमसे बहुत दिनों बाद मिली हूँ. होली का मौका न होता तो तुमसे मिलना भी न होता. इतनी जिद्दी होने के बाद भी तुम्हारे सामने मेरी एक नहीं चलती. सच है की दोस्ती ऐसा रिश्ता है जिसमे हम एक दूसरे के लिए खुली  किताब होते हैं. जिंदगी के किस पन्ने पर कब क्या लिखा गया हम जानते हैं. जिगरी दोस्तों के साथ यादों के ये पन्ने साझा भी होते हैं. कितने कारनामों को हमने साथ में अंजाम दिया और कौन सी बात कैसे घरवालों से छुपानी है हम अच्छी तरह से जानते हैं. जब भी कोई परेशानी होती है तो सबसे पहले दोस्त ही याद आते हैं. तुम हमेशा कहा करती हो की जिसके साथ दोस्ती होनी हो तो चार दिन भी नहीं लगते. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता की हमने साथ कितना वक़्त बिताया. सच ही कहती थी ,तुम जो भी कहती थी. जब मैं तुमसे मिलने  गयी तो तुम मुझसे मुस्कुराते हुए मिली. लेकिन मैं पहली नज़र में ही समझ गयी थी की ये हंसी बनावटी है. 'कोई बात नहीं है' कहकर तुमने अपनी परेशानी छुपाने की भरपूर कोशिश की लेकिन दोस्त ! आंखें सब बोलती हैं. और कमबख्त आंसू मौका और नजाकत भी नहीं देखते बस निकल आते हैं. तुम्हारे मन की बात मुझे पता है और शायद तुम्हे भी इसका अंदाजा है. लेकिन मैं तब तक चुप रहूंगी जब तक तुम सब कुछ नहीं कह देती. मुश्किल दूर करने का दावा तो नहीं करती लेकिन हम मिलकर इसे आसान करने का रास्ता ज़रूर निकाल लेंगे. इसी का नाम तो दोस्ती है. 
                                                                                              दोस्त! सब मिलने आये  ,लेकिन तुमसे मिलना इस बार भी न हुआ. याद है ! दोनों ने साथ में नर्सरी क्लास में दाखिला लिया था. स्कूल के  पहले दिन हम कैसे रो रहे थे. जब हमारे अन्दर भावनात्मक समझ आनी शुरू  हुई तो अक्सर तुम मुझे तेज बच्चो से बचाने के लिए मेरी तरफ से भिड़  जाया करती थी. हमारी दोस्ती में समोसे की जगह कोई नहीं ले सकता. ज़िदगी के सबसे स्वादिष्ट   समोसे हमने साथ खाए हैं .आज भी जब पुरानी डायरी पलटती हूँ तो तुम्हारे  दिए चिड़ियों के पंख मिलते है, नोटबुक में तुम्हारे बनाये मेरे स्केच आज भी उतने ही जीवंत हैं . उसमें में लिख कर की गई बातें  बोलती हैं. याद है कैसे कैसे आपने से ज्यादा मेरे रिजल्ट की चिंता रहती थी. तुम्हारा बनाया मेरा स्टडी टाइम टेबल आज भी  उस वक़्त को थामे हुए है. कितना कुछ है कहने और सुनने को हमारे बीच. दोस्ती है ही ऐसा अहसास, जिसमे कोई गिले-शिकवे नहीं होते. मुझे यकीन है इस बार जब भी हम एक दुसरे से टकरायेंगे तो शुरुआत हमेशा की तरह गालियों से होगी. ऐसा लगेगा की अभी कल ही तो मिले थे. कुछ देर तक दोनों बीच सड़क पर ही लड़ते रहेंगे, कुछ पल के लिए बस मुस्कुराते रहेंगे और फिर बात समोसे से शुरू होगी . इतने वक़्त में हम दोनों एक दूसरे का हाल-चाल लेना भूल जाएँगे और विदा लेते समय लगभग चिल्लाते हुए पूछेंगे - 'अरे तुमने तो बताया ही नहीं कि कैसी हो?.............'
                                 
                                                                                                                             तुम्हारी दोस्त   

बुधवार, 23 मार्च 2011

                                                    रंग डारूं मैं अरब के लालन पर.....
त्यौहार हम भारतीयों के जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं .ये त्यौहार हमें हमारी संस्कृति व परम्पराओं को जानने का मौका तो देते ही हैं साथ -साथ उनमे वक़्त के साथ किन बदलाओं की ज़रुरत है ये सोचने का मौका भी देते हैं. कितनी अजीब बात है न कि अधिकतर त्योहारों को मनाये जाने कि वज़ह ये है कि उस दिन किसी को किसी  ने मारा था . जैसे दशहरा हम इसलिए मानते हैं क्योंकि राम ने रावन को मारा, होली  इसलिए कि होलिका धोखे ही सही आग में जलकर मरी और प्रहलाद बच गए. इसी दिन विष्णु ने नरसिंह का अवतार ले हिरण्यकश्यप को मारा. जैसे इस समय गद्दाफी पर हमले हो रहे हैं. जब बात त्योहारों कि हो रही है और रंगों  का ज़िक्र न हो ऐसा हो नहीं सकता. रंगों को गिनती में समेटा नहीं जा सकता. जितनी आँखें उतने रंग. हर नज़रिए का अलग रंग होता है. इन्द्रधनुष के सात रंग हैं ,तो तिरंगे के तीन रंग ही हमें देशप्रेम के रंग में रंगने के लिए काफी  हैं. प्रकृति के  बेहिसाब रंग दुनिया की तस्वीर पर बिखरे पड़े हैं. ये कभी खुशियों के रंगों का अहसास  कराती है, तो कभी जापान की तबाही जैसे रंग बार- बार हम इंसानों की करतूतों पर नए सिरे से सोचने को मजबूर करते हैं. अगर विकिलीक्स के समाजवादी रंग पूरी दुनिया के दबंगों को लाइन से लगाये हैं तो दूसरी ओर राजनीती के रंग किसी भी अच्छे- भले देश को बेड़ा गर्क करने के लिए काफी हैं. ये तो रही रंगों की बात. अब तक मैंने अपने जीवन की बीस होलियाँ देखी हैं . लगभग आठ -दस पूरी मस्ती के रंग में मनाई भी हैं. कुछ सालों से न तो रंग खेला और न ही वो होलीपना देखने को मिला था. लेकिन इस बार दुनिया के रंग ऐसे हैं कि मेरा भी रंग डालने का मन हो गया. इसी बहाने होली भी दिवाली की तरह इंटरनॅशनल हो जाएगी. होली का सबसे पहला रंग मैं अरब की जनता पर डालूंगी, उनका  हौसलाफजाई करने के लिए .लोकतंत्र का ऐसा  गुलाल पहले तो कभी न उड़ा था इधर. फिर बारी आएगी गद्दाफी साहब की जिन पर शांति और अहिसा का रंग डाला जायेगा जो यकीनन उन्हें मुक्ति-मार्ग  का रास्ता दिखायेगा . लेकिन कुछ लोग इतने चिकने घड़े होते हैं जिन पर कोई रंग चढ़ने का नाम ही नहीं लेता. एक मुखौटे को  बेरंग करो तो दूसरा चढ़ा लेते हैं. इसीलिये समानता और मानवता का रंग की उसे बहुत ज़रुरत हैं. वो दादा बना फिरता है. उसके लोग स्पेशल हैं.दुनिया के सैकड़ों इंसान उसके एक  नागरिक के बराबर हैं. कही कोई आफत आये तो सबसे पहले अपने लोगो को बाहर निकलेगा. तमाशा तो बाद में शुरु होता है.अब तक तो आप जान ही गए होंगे की मैं किसकी बात कर रही हूँ? अरे वही  अफगानिस्तान वाला ,जो इराक में अभी तक फंसा पड़ा है. पकिस्तान का लंगोटिया यार. ये तो कहो मिस्र और बाकी देशो में लोकतंत्र  की ऐसी बयार चली है की अमेरिका के खुद के पांव उखड़ने लगे. अब उसे कौन समझाए की 'बोया पेड़ खजूर का तो आम कहाँ से होय'.इसीलिए इस पर तो वीकीलीक्स मार्का रंग डालना पड़ेगा. ये तो कहो हमारे त्यौहार ऐसे हैं जो दुनिया के इतने रंग हम देख रहे हैं. तो फिर लग जाईये रंगों को समझने में क्योंकि आने वाले समय के रंग बड़े बड़ों -बड़ों को रंग डालेंगे.                
             

सोमवार, 21 मार्च 2011


सोचती हूँ जब तुम जिंदगी में आओगे 
पूछेगा कोई तो क्या बताओगे 

दावा करना न मुझको समझ लेने का ,
वरना खुद को भंवर में फंसा पाओगे ,
दोष देना न मुझको, कुछ न बताने का
महसूस  कर के तो देखो  
हर शब्द में अपनी ही झलक पाओगे
सोचती हूँ जब तुम जिंदगी में आओगे 
पूछेगा कोई तो क्या बताओगे 

उम्मी हूँ मैं दुनियादारी में  
क्या इस सच को झुठला पाओगे
नज़र भर के देखने की मुझे
कोशिश न करना कभी
हर बार एक नयी शक्ल पाओगे
सोचती हूँ जब तुम जिंदगी में आओगे 
पूछेगा कोई तो क्या बताओगे 

तोड़ने की आदत है मेरी रस्मो रवाज़ों  को
साथ खड़े होने की रस्म निभाओगे  ?
कर के  मेरी  गलतियों  को नज़रंदाज़ 
ग्यारहवें बेटे क्या मेरे बन पाओगे
तैयार बैठी हूँ कब से, सूरज बन के चमकने को
चाँद बन के मेरा कहीं तुम तो न शरमाओगे ?
सोचती हूँ जब तुम जिंदगी में आओगे 
पूछेगा कोई तो क्या बताओगे 

शनिवार, 12 मार्च 2011


                                                         चवन्नी  तुम  बहुत  याद  आओगी 
आज  चवन्नी छाप  लेख  लिखने  का  मन  कर  रहा  है . जब  मैं  चवन्नी भर  की  थी , तो  पापा  से  बस  चवन्नी  माँगा   करती  थी ,न  इससे  कम - न  इससे  ज्यादा  पर   राज़ी  होती  थी . चवन्नी  की  कम्पट भी  मिल  जाया  करती  थी  और  चूरन  की  पुड़िया  भी . चवन्नी  न  मिले  तो  मज़ाल  थी  कि  स्कूल  चली  जाऊं  . जब  से  पता  चला  है  कि  सरकार  ने  चवन्नी  को  बाज़ार  से  वापस  ले  लिया  है , चवन्नी  पर  टिकी  मेरी  यादें  धुंधली पड़ने  लगी  हैं . इससे  पहले  कि  ये  पूरी  तरह  से  मिट  जाएँ ; सोचा  क्यों  न  इस  पर  कुछ  लिखकर  चवन्नी  के  इतिहास  का  हिस्सा  बन  जाया  जाये .
                                                                                                चवन्नी  तुम्हारे  जाने  पर  मुझे  बहुत  ज्यादा  हैरानी  नहीं  हुयी , तुम्हे  तो  एक  दिन  जाना  ही  था . जैसे दिल्ली  जैसे  शहरों  में  चवन्नी  की हैसियत  वाले  लोगों  की  कोई  जगह  नहीं . सरकारी  योजनाओं  में  इन्हें  चवन्नी भर की  जगह  भी  नहीं  मिलती . घोटाले  भी  हजारों -करोड़ों  में  हो  रहे  हैं . चवन्नी  के  घोटाले  कोई  करता  नहीं , इसलिए  लोगो  को  बड़ी  चीज़े  ही  याद  रह  गयीं . तुम्हारे  जाने  का  अगर  किसी  पर  असर  हुआ  है  तो  वो मंदिरों  के  सामने  बैठे  भिखारी हैं . चवन्नी  जब  तुम  थीं  तो  लोग  चवन्नी  इसी  लिए  रखा  करते  थे . दान - पुण्य  का  बहीखाता  भी  चालू  रहे  साथ  में  हर्र  लगे  न  फिटकरी  और  रंग  भी  चोखा  आता  था . संसद  में  नेता  जिस  चवन्नीपने पर  उतर  आते  हैं , उनके  लिए  आम  आदमी  से  जुड़ने  का  एक  जरिया  तुम  ही  तो  थी . तुम  अगर  सड़क  पर  पड़ी  हुयी  होगी  तो  तुम्हे  कोई  उठाएगा  भी  नहीं , जैसे  मथुरा - वृन्दावन  में  कमाऊ  बेटे, चवन्नी  की  गति  पा चुके  अपने  मां -बाप  को  नहीं  पूछते . अगर  बहू  दहेज़  में  चवन्नी  लाये  तो  उसका  क्या  होगा ? इसलिए  तुम्हारा  जाना  ठीक  भी  रहा . न  रहे  बांस ; और  न  बजे  बांसुरी . छोटी चीज़ों  की  समाज  में  कोई  इज्ज़त  नहीं . चाहे  फिर  वो  तुम  हो  या  आम  आदमी  . वो   इस  व्यवस्था  में  गाली  हैं . इसलिए तो तुम  भी  चवन्नी छाप  कहलाई . चवन्नी  कहीं  की .
                                                                                                     जो  कुछ  भी  हो  चवन्नी  जी , आपके  लिए  मेरे  मन  उतनी  ही  इज्ज़त  है . आखिर  आपके  दम  पर  ही  तो  मैं  दोस्तों  से  चवन्नी  की  शर्त  लगाया  करती  थी . स्कूल  के  रास्ते  में  पड़ने  वाले  मंदिर  में  चवन्नी  चढ़ाकर  ही  पिटने  से  बच  जाया  करती  थी  और  वापस  लौटने  पर  उठा  लिया  करती  थी . उपरवाले  को  गोली  टिकाना  की  हिम्मत  तुम्ही  ने  तो  दी  थी . लेकिन  इसका  दोषी  तुम  खुद  को  कतई  मत  मानना .वो  गलती  उस  उपरवाले  की  थी . उसे  अपनी  दुकान  में  'चढ़ा  हुआ  माल  वापस  नहीं  होता ' का  साईन-बोर्ड लगाना  चाहिए  था . सुना  है  कि तुम्हारी  बड़ी  बहन  अठन्नी  भी  जाने  वाली  हैं . मैंने  अभी  से  तुम्हे  और  तुम्हारी  बहन  को  संजो  कर  रखना  शुरू  कर  दिया  है . जब - जब  अपने  बचपन  को  याद  करूंगी - गाँव  की  चकरोट पर  गिल्ली -डंडा ,  छुप -छुप  के  नौटंकी  देखने जाना , चिड़ियों  के  पंख  इकट्ठे  करना , बाग से  अमरुद  की  चोरी  करना  और  फिर  पकडे  जाने  पर  मिली  पिटाई  के  साथ - साथ  चवन्नी  तुम  भी  बहुत  याद  आओगी .                       

शुक्रवार, 11 मार्च 2011




                                             
                                 गूगलबाबा  के  चालीस  कामचोर 
आप  सबने  अली  बाबा  और  उनके  चालीस  कामचोरों  के  बारे  में  तो  सुना  ही  होगा , लेकिन  मैं  यहाँ  बात  कर  रही  हूँ  गूगल  बाबा  और  उनके  चालीस  निरे  काम  चोरों  की . चार  सौ  बीस  खूबियों  से  लैस  इन  प्रजातियों  को  गूगल  बाबा  ने  भलीभांति  पहचान  लिया  है .कामचोरी  की  इन्तहा  ये  की  इनमे  से  सिर्फ  पंद्रह  -सोलह  ही  क्लास  में  पाए  जाते  हैं . गलती  से  भी  इन्हें  शरीफ  और  सीधा  -साधा  मत  समझिएगा .क्योंकि  ये  मोस्ट  वांटेड  हैं . इनकी  कारगुजारियों  का  चिटठा इनके  ब्लॉग  पर  चस्पा   है . assignment  करने  को  लेकर  इनके  पचहत्तर  बहाने , नोटबुक  पर  लिखे  इनके  गुप्त  वार्तालाप  भगवान्  भी  न  जाने . गूगलबाबा  समय -समय  पर  इनकी  कामचोरी  को  पॉलिश  करने   के  लिए  assignment  की  जीवन घुट्टी पिलाते रहते  हैं .  अभी  पिछले  दिनों  ही  हम  सोलह  को  एक  दूसरे  का  interview लेने  का  टास्क  दिया  गया . ऐसा  लगा  कि सिर ओखली  में  आ गिरे  हैं  और  गूगलबाबा  उनसे  खेल  रहे  हैं . हमारी  सरदार  के  लिए  तो  ये  वाकई  अग्नि  परीक्षा  थी . ऐसा  लग  रहा  था  कि  सोलह  खली  एक  साथ  रिंग  में  उतर  आये  हैं . लेकिन  इन  शेरों को  काबू  करना  हमारे  रिंग  मास्टर  को   अच्छी  तरह  से  आता  था , इसके  लिए  assignment submit   करने  की  डेडलाइन मिली . इस  बार  वाकई गूगलबाबा  भाकौंवा बन  के  हम  सब  को  डरा  रहे  थे . इसी  के  साथ  शुरू  हो  गया  क्लास , करियर  और  जिंदगी  का  प्रैक्टिकल . दूरदर्शन  के  सीरियल  हम  लोग  की  तरह  इन  सबकी  की  भी  अपनी  खूबियाँ   हैं . यहाँ  मिस  सिरीयस को  परेशानी  इसबात  से  है  की  गूगलबाबा  उनकी  कामचोरी  की  गंभीरता  समझ  नहीं  पा  रहे  हैं . तो  वनराज  बनने  की  ख्वाहिश  पाले  एक  लीडर चोर हर  चोरी  का  अगुवाकर  है . एक  godmother सबको  कूल -डूड  चोर  बनाने  की  जिम्मेवारी  संभाले  हुए  है , तो  दूसरी  ओर पानीचोर मौका  मिलते  ही  सबको  पानी  से  जलाने  को  तैयार  बैठा  है . अब  तक  चोरी  में  सबसे  साफ़  सुथरा  रिकॉर्ड  दस्तक  नाम  के  चोर  का  है . धरमचोर  फौलाद  बन  चुका  है , जो  गूगल गुरु  के  लिए  परेशानी  का  सबब  बनता  जा  रहा  है . साथ  में  उसकी  अंध गुरु - भक्ति  खतरनाक  साबित  हो  सकती  है . लेकिन  हमें  उनकी  बाबागिरी  पर  पूरा  भरोसा  है  और  इसका  भी  कोई  न   कोई  तोड़   वो  निकाल  ही   लेंगे . इस  गैंग में  एक  चोर  नया  नया  है , जो  इन  शातिरों  के सामने  जम  नहीं  पा  रहा  है . अब  तक  तो  आप  जान  ही  गए  होंगे  की  गूगलबाबा  विद्यार्थियों  के  खतरनाक  व  सिद्ध  ओझा  हैं . इस  assignment  में  हमारे  लिए  ख़ुशी  की  बात  ये  थी  की  मीठा  खाने  को  मिल  ही  गया  भले  ही  वो  महीने  की  पांचवी  तारीख  थी .इस  टास्क  ने  हमें  खेल -खेल  में  बहुत  कुछ  सिखाया  है . गूगलबाबा  के  ये  चोर  बड़ी  तेज़ी  से  जिंदगी  के  फलसफे  चुराना  सीख  रहे  हैं . मेरे  जैसी  अव्वल  दर्ज़े  की  कामचोर   जो  सोचती  बहुत  कुछ  है  और  करती  कुछ  भी  नहीं . ये  उम्मीद  करती  है  की  बहुत  जल्द  ही  हमारी  क्लास  एक  आदर्श  गूगलिस्तान  बन  जाएगी , जहाँ  खेलेंगे  हम  गूगल -गूगल . गूगलबाबा  के  चाकलेट भरे  आशीर्वाद  से  हम  साथ - साथ  हैं . अंत  में  चोरी  की  ये  कुछ  पंक्तियाँ -"गूगल गुरु  हम  से  रीझि  कर , जो  कर  दे  एक   कमेन्ट ,लग आये तलब फिर  लिखने की बन जाये ब्लॉग के दबंग 

   

गुरुवार, 10 मार्च 2011

जी लूंगी अपनी शर्तों पर ज़िन्दगी 
आज फिर से,
 निकलेगी कोई कविता फिर मन की कलम से                  
 होती हूँ अपने करीब जिस पल, सबसे ज्यादा     
  साथ उसका लायी है,
 क्योंकि साँझ होने को आई है.

लौटते हैं जैसे पंछी अपने बसेरे को 
लौटूंगी मैं भी अपनी दुनिया में 
दे के दाना पानी अपनी सोच को 
पौध नयी लगायी है 
क्योंकि साँझ होने को आई है.

पहुँच गयी किस मयार तक
 इन दो शामों के बीच ,
खोने पाने का क्या हिसाब करूँ?
ये खुद की खुद से लडाई है, 
क्योंकि साँझ होने को आई है.

न समझो मुझे वो संध्या 
ढलते दिन की,
मैं हूँ वो निरुपमा जो,
दिन की नयी शुरुआत करने आई है 
क्योकि साँझ होने को आई है.  
                       
                                                                                  

मंगलवार, 8 मार्च 2011

जहाँ रोज पोलिश होती है जिंदगी


                       ये  दौलत  भी  ले  लो  ये  शोहरत  भी  ले  लो .........मगर  मुझको  लौटा  दो  बचपन  का  सावन  वो  कागज  की  कश्ती , वो  बारिश   का  पानी हर  कोई  अपने  बचपन  की  यादों  में  लौटना  चाहता  है ,क्योंकि  बचपन  के  दिन  सबसे  हसीं  होते  हैं . न  किसी  की  चिंता ,दुनियादारी  से  बेखबर  हम  अपनी  ही  दुनिया  में  खोये  रहते  हैं . वो  दुनिया  जिसमे  मिटटी  के  घरौंदे ,दोस्तों  का  साथ ,टॉफी ,कागज  की  नाव ,छुपन -छुपायी  के  खेल , ज़रा -ज़रा  सी  बात  पे  कुट्टी  कर  लेना ,कंचे  खेलना , तितली पकड़ना ,स्कूल का  वो  पहला  दिन और  न  जाने  कितना  कुछ .
                                                                                           आज   राह  चलते  अचानक  फिर  उसी  बचपन  से  मुलाक़ात  हो  गयी  है . पर  जाने  क्यूँ  ये  वैसा  नहीं  लग  रहा  है ? जिंदगी  की  भागमभाग  में  जब  सड़क  किनारे  अपनी  दुकान  सजाये  इस  बचपन  पर  नज़र  पड़ी  तो  खुद  को  रोक  नहीं  पाई . हर  खबर  से  बेखबर  इसने  अपने  चारों  ओर  एक  अलग  सी  दुनिया  बसा  राखी  है . जूते -चप्पलों  घिरा  ये  बचपन  जूते  गांठने  के  साथ -साथ  जिंदगी  के  झोल  को  भी  सिलने  की  कोशिश  में   है . तो  दूसरी  ओर  ग्राहकों  के  काम   भी  लगे  हाथ  निपटाता  जाता  है . उससे  बातें  करके  महसूस  हुआ  कि , मनीष  असल   जिंदगी  में  भी  मनीषी  है ; परिस्थितियों  का , गरीबी  का  और  पेट  का . जिंदगी  इतनी  बेरहम  हुयी  है  कि  रूखापन  उसकी  बातों  में  साफ़  झलकता  है . लेकिन  प्यार  और  सहानुभूति  से  बात  करने  पर  सब  कुछ  बड़ी  सहजता  से  बयां  करता  जाता  है . पुरनियाँ  रेलवे  क्रोसिंग  के  पास  रहने  वाला  मनीष  बूट -पोलिश  करता  है . पिता  की  बीमारी  ने  उसे  ऐसा  करने  के  लिए  मजबूर  किया .चार  भाई  बहनों  में  सबसे  बड़ा ; छोटा  सा  मनीष  पूरे   घर  की  जिम्मेवारी  संभाले  हुए  है .डालीगंज  स्थित  राष्रीय   बालश्रम  विकास  विद्या  मंदिर   में  तीसरी  क्लास  में  पढता  है . उसका  मन  पढने  में  लगता  है  इसका  सबूत  वो  झट  से  तीन  और  चार  का  पहाडा  सुनाकर  देता  है . सुबह  सात  से  दोपहर  बारह  बजे  तक  की  स्कूली  पढाई  के बाद  खुलती  है  मनीष  की  जिंदगी  की  किताब  जो  इतनी  आसान  नहीं . आगे  यही  काम  करना  चाहते  हो  या  कुछ  और ? मेरे  इस  सवाल  पर  वह  बहुत  साढ़े  हुए  दार्शनिक  की  तरह  जवाब  देता  है कि -"बूट  पोलिश  भी  काम  है  कोई  चोरी  नहीं . हम  ऐसा  पेट  के  लिए  करते  हैं  ख़ुशी  में  नहीं . पढ़ -लिख  कर  बड़ा  आदमी  कौन  नहीं  बनना  चाहता , लेकिन  किस्मत  जहाँ  ले जाए .अभी से  ,क्या  बता  दे ." न  जाने  किस  अपनेपन  से  मनीष  मुझे  बताता  है  कि  आज  उसके  छोटे   भाई  ने  अपनी  आँख -मुंह  को  feviquik से  बुरी  तरह  चिपका  लिया  है  और उसके  बाबा   उसे  डाक्टर के  पास  लेकर  गए  हैं . इतना  कहते - कहते  वो  लगभग  रो  पड़ता  है  . मेरे  ये  समझाने  पर  कि  उसका  भाई  ठीक  हो  जायेगा  वो  खुश  हो  जाता  है . जब  मैं  उसकी तारीफ  करते  हुए  कहती  हूँ  कि  मुझसे  जूते  इतने  नहीं  चमकते , तो  नसीहत  देते  हुए  कहता  है  कि  इसमें  जोर  लगाना  पड़ता  है .
                                                                                  'बाकी  पैसे  बाद  में  ले  लीजियेगा ' कहकर  वो  हक  से मुस्कुरा  देता  है  और  फिर  से  अपने  काम  में  लगन  से  जुट  जाता  है ,बिना  इसकी  परवाह  किये  कि  कौन  सा  काम  है .शायद  उसे  बचपन  का  साथी  मिल  गया  है . ये  सिर्फ  एक  मनीष  की  कहानी  नहीं  है . ऐसे  लाखों  मनीष  हैं  जिनके  पास  बचपन  की  यादों  के  नाम  पर  सिर्फ  गरीबी , पेट  की  भूख ,जिंदगी  की  परेशानियाँ और   कडवी  यादें  हैं . उनके  पास  न  तो  उस  पहले  स्कूल   बैग  और  ड्रेस  का  उत्साह  है , न  त्योहारों  की  ख़ुशी  और  न  ही  बचपन  की  बेफिक्री  भरी  हंसी  है . वहां  से  जाते  समय  मुझे  किसी  कवि  की  ये  पंक्तियाँ  याद  आ  रही  थी -'राष्ट्रगान   में  बैठा  भला  वह  कौन  सा  भाग्यविधाता  है , फटा  सुथन्ना  पहिने  जिसके  गुण  हरिच्रना   गाता  है '


                                                        



































सोमवार, 7 मार्च 2011

जब हर दिन तुम्हारा हो

                                                
चाँद से मुखड़े पर बिंदिया सितारा हो 
जब हर दिन तुम्हारा हो 
दुनिया में आयेगा बेटा या बेटी. 
मांओं! ये बहस न तुम्हे गंवारा हो 
घर से निकलो तो कोई न कहे,
देखो जा रही है औरत 
बस नाम 'इंसान 'तुम्हारा हो
चाँद से मुखड़े पर बिंदिया सितारा हो
जब हर दिन तुम्हारा हो .

 क्यों न खड़े कर दो इतने कीर्तिमान तुम 
कि लेडीज फर्स्ट का कांसेप्ट पुराना हो
आये फिर से  किसी पत्थर में जान,
इस बार राम की जगह ;'अहिल्या' स्पर्श तुम्हारा हो 
चाँद से मुखड़े पर बिंदिया सितारा हो 

आज फिर पिटी है बाजू वाली  पड़ोसन ,
 कैसे समझाउं उसे कि;
शिव भी है शव ही गर 
 शक्ति न उसका सहारा हो 
चाँद से मुखड़े पर बिदिया सितारा हो 
जब हर दिन तुम्हारा हो

बन जाती क्यों नहीं तुम सब वो 'प्रीतम'
 जिसका प्रेमी इमरोज़ बेसहारा हो 
बुद्धू हूँ कितनी !मैं भी जो उलझी  हुयी हूँ 
चाँद से अपनी तुलना में 
क्यों न अब सूरज सा तेज हमारा हो 
जब हर दिन हमारा हो  

रविवार, 6 मार्च 2011

LADKIYON BESHARM BANO


                                                
देखो तो कैसे कपडे पहने हैं ? कैसे लड़कों से हंस –हंस  के बातें कर रही है ? अपने साथ हुयी बदतमीजी को बताने ठाणे जाएगी ? शर्म ,हया सब  बेंच खायी है  क्या ?अगर ये सब बेशर्मी है  कतो लड़कियों बेशरम bano. हमेशा से  ही हमें ये  सिखया गया है  की शर्म , हया ,लाज , लड़कियों  का गहना है . आखिर शरमाके , लजा के  हमने पाया ही  क्या  है ? पिछले दिनों एक किताब पढ़ रही  थी , उसमें लेखिका की  नानी कहती है  की  वो औरतों को  उनके नादे से  पहचान सकती हैं .अगर  नाडा कास के  मजबूती के  साथ  बंधा गया  है  तो  वो औरत समझदार , कभी धोखा न खाने वाली होगी . नाडा सदी के  पल्लू को  फाड़कर बनाया गया  है  तो  औरत  कंजूस होगी  और अगर  नाडा  रेशम का  है  साथ  में लम्बा लटकता है  तो  वो  औरत  पक्का ´रंडी ´ होगी . आखिर  ये  हक समाज को  किसने दिया की  औरतों  को  उनके  नादे  से  पहचाना जाये ? कल्पना चावला , किरण बेदी , सेना नेहवाल , इंदिरा नूयी और  न  जाने ऐसी कितनी ! क्या अपने नादे  से  पहचानी जाती हैं ? नहीं न . तो फिर लड़कियों  बेशरम  बनो और  वो   सब  करके दिखाओ जो तुम्हे इन वाहियात किस्म की  उप्मयों से  छुटकारा दिला दे . बेशमिपने पर क्यों उतरा जाये ,इसके कारन दूंधने के  लिए हमें  कहीं जाने  की  जरूरत नहीं , एक  तक्सी में  गाना सुना था ´लड़की नहीं ये  बनारस का  पान है ´. ऐसे तमाम उदाहरण हमारे समाज  की  उस सतही सोच को  उजागर करते हैं  जहाँ औरत  को  उसे एंड थ्रो वाला प्रोडक्ट समझा जाता रहा है , जहाँ  हर मीणा एक  हत्या सिर्फ इसलिए होती है  की  साली औरत  काबू में रहे . इस लेख को  पढ़ते वक़्त आपके दिमाग में  ये  ख्याल आ रहा  होगा की  कहीं  मैं सठिया तो  नहीं  गयी हूँ . सही भी है  गलती आपकी नहीं  है . इस  समाज  में  उत्सव शर्मा जैसी सोच  वाले सिरफिरे ही  कहे जाते हैं , जो  लड़कियों  पे हुए अत्त्याचार बर्दाश्त नहीं  कर  पते . सठियाया ही  तो  है , जिसे हर  छोटी बछि में  अपनी मान नज़र अति है . लेकिन मेरे साथ  ऐसा कुछ भी  नहीं  है ,मेरे  पास ऐसी  दसियों वज़हें हैं  जो  भेशार्मी पर  उतरने की  पैरवी करती हैं . अगर सड़क पर   जाता  कोई लड़का अच्छा लगता है , तो  इसे   दोस्तों से  बाँट लो , उसकी स्मार्टनेस पर   पॉइंट दे  डालो . अगर  भाग कर  बस पकद्न्ली है  तो  बेशक भागो और  पकड़ो . अगर  साडी पहनकर सायकिल चलाना बेशर्मी  है  तो  लड़कियों  बेशरम बनो . अगर  मान -बाप से  छुपकर सोसिअल नेट्वोर्किंग सितेस पर  अपनी  काबिलियत दिखाना , घर से  निकलते ही  जो  भाड़े कॉमेंट्स और  गलियां सुनने को  मिलती है  उनके  मतलब जानना और  गलियां   सुनते ही  लगे हाथ सूद समेत वापस कर  देना अगर  बेशर्मी  है  तो  निश्चिन्त हो के  बेशर्म बनो . शादी की  कुंडली मिलते समय एक  कहावत पर  खास जोर दिया  जाता  है -´लड़की  मूस बरन तो  लड़की  बिलार बरन ´. मायने ये  की  लड़की  मूस (चूहा ) बनके जिंदगी भर दुबकी रहे  और  लड़का  बिलार  बनकर उसे  डरता धमकता रहे . समाज के  इस मूस -बिलार  के  क़तर जुमले की  लुटिया डुबोकर होने वाले  जीवनसाथी की  करम कुंडली  खोज निकलना   दोस्तों  के  नंबर को  अपने  सेलफोन में  लड़की  के  नाम से  सेव   करना या फिर  सबके सामने लड़की  के  नाम  से  उनसे बातें  करना . अगर  बेशर्मी  है  तो  कृपया समाज  की  संस्कार इ लड़कियों  अपने  में  एक  और   संस्कार  डालो  ´बेशर्मी का  संस्कार ´. इन छोटी -छोटी  बेशर्मियों पर  उतर कर  तुम बड़ी  के  ल्किये बेशर्मी  पर  उतरने  लगोगी . ये वो  ब्रह्मास्त्र है   जीके पंख   तुम  खुले आकाश में  उड़ सकती  हो  और  उस  मुकाम तक पहुँच सकती  हो  जहां तुम्हे  अपने  नाम  के  आगे ´मर्स ´ और  पीछे ´किसकी ´ लगाने की  जरूरत  नहीं  पड़ेगी . तब इस  बेशर्मी  का  हाथी जिन - जिन  शहरों से  हो  के  गुजरेगा निस्स्सदेह वो  तुम्हारे होंगे .
      

गुरुवार, 3 मार्च 2011

media mujhe sapne me dikhta hai....

लड़कियों के बारे में अलग किस्म के लेख लिखने वाला इन्सान अज कुछ असहज महसूस कर रहा है. हमेशा कुछ न कुछ बोलते रहना ही उनकी पहचान बन गयी है . लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचने के लिए उन्हें ज्यादा जुगत नहीं लगनी पड़ती. उनका देशप्रेम कुछ -कुछ नाथूराम गोडसे जैसा है. इन्हें डिपार्टमेंट की राखी सावंत कहना ज्यादा सही रहेगा. आईये जानते हैं कि क्या कहा ऍम.जे. ऍम. सी. के छात्र अर्चित ने-  
 
बैठिये. 
धूप बहुत है यार. कला हो जाऊंगा .(पास के एक पौधे से फूल तोड़ते हैं, देते हुए कहते हैं कि अब अच्छा लिखना.) 
कैसा लग रहा है एक लड़की को इंटरव्यू देते हुए? 
बहुत अच्छा. पहली बार किसी लड़की ने मेरा इंटरव्यू लिया है. 
और. 
दिल कि ख़ुशी छिपाए नहीं छिप रही. (अपनी जींस पर लगी धूल झाड़ते हैं.)
अर्चित के पीछे पंडित क्यूँ?
बस ऐसे ही. कोई खास वजह नहीं. 
अर्चित पंडित का कोई दूसरा नाम.
अच्चू .
कौन बुला सकता है इस नाम से? 
सिर्फ घर वाले और कोई नहीं.
अपने बारे में कुछ खास बताना चाहेंगे. 
ऐसा कुछ खास नहीं मेरे अन्दर. लेकिन लोग कहते हैं कि मझमे अहम् नहीं. मेरी कोशिश ये रहती है कि अगर कोई दो पल के लिए भी मेरे साथ है तो मुस्कुराता रहे. किसी के होठों पर मेरी वज़ह से मुस्कराहट आती है तो मुझसे ज्यादा खुशनसीब कोई नहीं. 
ये रियल अर्चित है. 
शायद ये बहुत बदला हुआ अर्चित है. आज से दो साल पहले जो था वो बहुत बिगड़ा हुआ था. मैं गलत संगत में पद गया था.  लेकिन मेरे पापा ने मुझे उस कीचड़ से बाहर निकला. अब कोशिश यही है कि गलत कामों में किसी का साथ न दूं.
कैसे गलत काम?
मैं लडाई झगडे वाले कामों में पड़ गया था.
किस तरह कि गलत संगत? 
कुछ दोस्त ऐसे थे जो बुरे थे और कुछ बहुत बुरे. कहते हैं कि गेहूं के साथ घुन भी पिसता है,लेकिन परिवार के नाम कि वज़ह से मैं फंसा नहीं.
आगे ऐसे किसी काम में फंसे तो परिवार के दम पे बाहर निकलेंगे या अपने दम पर.
अब ऐसे काम करने का सवाल ही नहीं. लोग ऐसा पेट के लिए करते हैं ,पैसे के लिए नहीं.
आप किसलिए करेंगे?
परिस्थितियों के कारण.
अगर फिर भी गलत संगत में पड़े तो.
मेरे अन्दर सच्चाई होगी तो मैं अपने दम पर बाहर निकलूंगा. 
परिवार के बारे में. 
joint family है. लड़कियां (बीच में सुधार करते हुए )मेरा मतलब है कि बहने कम हैं. ये शायद अच्छा भी है. ऊपर वाले कि दया है कि सब मिल-जुल कर रहते हैं. एक दूसरे के लिए कुछ करने कि इच्छा हमें जोड़े हुए है. हम सगे दो भाई हैं. मेरे भाई का नाम राहुल है.
बहने कम हैं ये अच्छा क्यों है?
(जवाब देने से इंकार कर दिया.)
लड़कियों के मामले में काफ़ी फ्रैंक  हैं.
ऐसा नहीं है. शुरू में तो किसी से बात तक नहीं करता था. बोलूँ चाहे जो लेकिन दिल में खोट नहीं. मैं लड़कियों के पीछे भागने वाला नहीं. भगवान् कि दया से मेरे पास सब कुछ है.
भगवन कि दया से लड़की भी .
नहीं- नहीं अभी तलाश है. कमबख्त बजरंगबली का भक्त होने कि यही विडम्बना है.
ऊपर वाले पे विश्वास.
बहुत ज्यादा.
असल ज़िन्दगी में भी इतने ही फ्रैंक. 
बिलकुल. दोस्तों के साथ राहों या घर में इतनी ही बेबाकी से बात करता हूँ. ऐसा नहीं कि सीरियस नहीं रहता . वक्त हिसाब से.
जर्नलिज्म और अर्चित.
शायद मेरा लक्ष्य यही है. मैं मीडिया केद्वारा ज़माने के सामने खुद को साबित करना चाहता हूँ. सुभाष चन्द्र बोस जी ने कहा था कि जो चीज़ पाना चाहते हो जब वो सपने में दिखने लगे तो समझो कि प् लोगे . मीडिया मुझे सपने में दिखता है.
आपकी कोई ऐसी क्वालिटी जो मीडिया कि फील्ड में आपको जमा देगी .
शायद ये clear नहीं है . लेकिन जो भी करूंगा औरो  से हटकर .वैसे मैं सीरियस मूड वाले व्यक्ति को भी हंसा सकता हूँ.
खतरों का खिलाडी.
मेरे पे बिलकुल सही बैठता है. घर में भी माहौल है. घर के बाहर उससे भी ज्यादा. दोस्तों का साथ देना हो तो किसी भी हद तक जा सकता हूँ. 
किसी भी हद तक मतलब.
 साम, दाम, दंड , भेद . जो भी बन पड़े.
कुछ दिन पहले तो संदिग्ध लोगों को देखकर दर गए थे.
वो दर मेरे लिए नहीं था, मेरे साथ वाले के लिए था.
फ़र्ज़ कीजिए ऐसी कोई घटना घट जाये जिसकी कल्पना न की हो.
मेरे साथ ऐसा कई बार हो भी चुका है. जब मेरी मम्मी आग में जल गयी थी तो मैं उन्हें मौत के मुंह से निकल लाया.
चोर बाजार में क्या खरीदेंगे? 
बनिया दिमाग लगाकर कोई ज़रूरी चीज़ खरीदूंगा. ऐसा करता भी हूँ.
बनिया दिमाग..
जैसे की दूसरों को को बेवकूफ बनाकर, कम दाम में खरीदकर ज्यादा में बेंचना.
अर्चित पंडित की जगह मियाँ होते तो ?
(ओफ़ फोह ये बहुत भयंकर है.) ये बहुत खतरनाक सवाल है. ज्यादा नहीं बोलूँगा . मैं खुशनसीब हूँ की मैं पंडित ही हूँ, मुझे गर्व है.
बारहवीं तक पढने में  कैसे थे?
सही बताऊँ तो दसवीं तक अच्छा था. बारहवीं तक आते -आते गलत द्प्स्तों का साथ कहें या नासमझी की वजह से बिगड़ गया था. लेकिन अंततः मान के लाडले ने सही राह पकड़ी .
और  पापा का लाडला..
पापा का भी.
hobbies क्या  हैं? 
कई ,लेकिन क्रिकेट मेरे रोम-रोम में बसा है.जिसकी वजह से दसवीं के बोर्ड पेपर में आधे घंटे लेट पहुंचा .
सुना है की क्रिकेट मैच के लिए हवन कराते हैं.
हाँ, फाईनल में फिर कराऊंगा.
किताबे कितनी पढ़ी?
बिलकुल नहीं पढ़ी. सिर्फ चेहरे पढ़े हैं. कोशिश है कि सर और दोस्तों कि मदद से पढूं.(बीच में फिर टोकते हैं बढ़िया लिखना)
ऐसी कोई किताब जिसे पढने कि ख्वाहिश?
मुझे किताबों के नाम ही नहीं याद. बहुत मुश्किल सवाल है. पढाई-लिखाई के बारे में कुछ मत पूछो.
पिछले दिनों तसलीमा की "किताब औरत का कोई देश नहीं " पढने को मांगी थी , वज़ह कहीं ये तो नहीं कि औरतों पर है .
नहीं ऐसी कोई  वज़ह नहीं. सिर्फ पढना चाहता था?
जिंदगी का फ़लसफ़ा.
(फ़लसफ़ा का मतलब समझाना पड़ा.) खुश रहो और दूसरों को भी खुश रखो. 
समाज से कोई शिकायत. 
ऐसी तो कोई शिकायत नहीं. (बीच में टोकते हैं, काटो -काटो फिर से सवाल पूछो) कुछ भी आँख बंद करके न सहा जाये . हमें आवाज़ उठानी होगी.
जर्नलिज्म नहीं करते तो क्या करते .
bussiness करता.
कैसा bussiness ?
खानदानी.थोकविक्रेता, पटाखे,किराने का.
लिखते समय क्या सोचकर लिखते हैं
सिर्फ ये सोचता हूँ कि जो लिखों उस पर लोगों को हसीं आये. गंभीर भी लिखूंगा तो दिल को छू लेने वाला. कुछ लोग निगेटिव कमेन्ट देते हैं लेकिन बुरा नहीं मानता. जिस मकसद से लिखता हूँ बस वो पूरा होना चाहिए.
जिंदगी का यादगार पल.
अभी टिक कोई नहीं. चाहता हूँ कि देश के लिए कुछ कर सकूं .
आपके लिए देशप्रेम .
देश के लिए किसी भी हद तक कुछ भी कर जाना .अगर मुझे देश और parents के बीच में एक को चुनना हो तो देश को चुनुँगा.
ब्लॉग पर लड़कियों पर केन्द्रित लेख.
शाम को जब सभी दोस्त इकट्ठा होते हैं तो जिस मुद्दे पर सबसे ज्यादा बात होती है वो है लड़की. हम पूरे दिन भर इस पर बोल सकते हैं.लेकिन ये सिर्फ अर्चित कि सोच नहीं ज़माने कि भी है.
ऐसे कोई बात जो आपके बारे में छुपी हुई है?
शायद जिसे कई नहीं जनता उसे राज़ ही रहने दिया जाये.
फिर भी .
नहीं.
ऐसा एक दिन जब कुछ भी करने की छूट हो.
(इस सवाल पर काफ़ी कन्फ्यूज हैं. साला राज़ ही तो अपनी मर्ज़ी करता हूँ. बहुत सोचने के बाद ) bollywood का शहंशाह बनूँगा. नहीं -नहीं मैडम तुसाद में पुतला.
अपनी शादी में नाचेंगे?
पहली बात तो मैं बहुत शरमाउंगा. लेकिन अपनी शादी में दुल्हन के साथ बैठने का क्षण आनंदनीय है. ये बहुत अलग अहसास है. नज़रें मिलाने में शर्म आयेगी. अगर किसी ने जोर दिया तो अपनी संगिनी के साथ जाऊँगा.(दांतों तले ऊँगली दबाकर शरमाते हैं.)
 
(एक प्रश्न विदायी का भी जोड़ो खुद ही कहते हैं .)
 मुझे सबसे ज्यादा दर विदाई से ही लगता है. दुल्हन के साथ- साथ घर वाले भी रोते हैं. मुझे भी आंसू आते हैं. जब मेरी वो रोयेगी तो मैं उसे चुप कराऊंगा .और उसे एक गाना भी सुनाऊंगा. तुम जो आये जिंदगी में तो बात बन गयी.
लव मैरिज या अरेंज .
deside नहीं. लव मैरिज भी हो सकती है.
आखिरी सवाल इंटरव्यू देते समय कैसा महसूस हो रहा था.
अच्छा लगा . ऐसा लगा की पिछली जिन्दगी में लौट गया .