बुधवार, 25 मई 2011

                                             नशा इश्क का .............
जब दिन की सुध नहीं होती ,
न खबर रात की होती है, 
पैर पड़ें न धरती पर,
तारों से बातें होती हैं,
जब नशा  इश्क का चढ़ता है,
सारी दुनिया झूठी लगती है ,
      

परवाह होती बस  उसी नशे की,
डूबके जिसमें उतराना होता है,
पा जाओ तो मंजिल बन जाती,
छूटे तो रेत का पानी कहलाता है,
जब नशा इश्क का चढ़ता है,
सारी दुनिया झूठी लगती है.


जिंदा रहकर ग़र इश्क करे तो,
मारे-मारे फिरना होता है,
ये  कैसा सम्मान प्रेमियों का,
जीने- मरने की कसमें खाते हैं,
'ऑनर किलिंग' क्यूँ?
हिस्से में आती है,


जब नशा इश्क का चढ़ता ,
सारी दुनिया झूठी लगती है.

शुक्रवार, 20 मई 2011

                                                        सड़क सुरक्षा-देखभाल से बेहतर बचाव 
महज कुछ साल पहले जब हमारे देश की सड़कों पार दुनिया की सबसे सस्ती कार नैनो दौड़ी तो पूरा विश्व भारतीय कौशल को देख अपने दांतों तले ऊँगली दबाने को मजबूर हो गया था और इसके साथ ही यातायात सम्बन्धी परेशनियों से जुड़ा एक और प्रश्न हमारे सामने खड़ा हो गया.हमारे यहाँ शाम के वक़्त हतायात रेंगते हुए चलता हाई. जाम की स्थिति आ जाती है. कभी -कभी तो इस वज़ह से कितने लोग अपने गंतव्य तक नहीं पहुँच पते, मरीज दवा के अभाव में दम तोड़  देते हैं और कभी तेज़ रफ़्तार के कारन लोग जानलेवा  सड़क दुर्घटनाओं के शिकार हो जाते हैं.बात सड़क सुरक्षा और दुर्घटनाओं के बढ़ते ग्राफ की  है. हमारे देश में सड़क दुर्घटनाओं का आईना बहुत चौंका देने वाला है. सन २००७ के मुताबिक सड़क हादसों में एक लाख तीस हज़ार लोगों ने सफ़र करते हुए जान गंवाई. आशय यह की प्रतिदिन २५६ लोग मोटर वाहनों की तेज़ रफ़्तार  के शिकार हुए.और इससे कई गुना अधिक लोग आजीवन विकलांगता की खायी में धकेल दिए गए. यानी की जो देश विकाव्स के उड़न खटोले पर बैठकर चाँद के आसमान में यात्रा का आहा है, उस देश की सडकें आज भी मौत के सार से कम खतरनाक नहीं हैं. हमने भले ही चाँद पर पानी खोज निकाला है लेकिन यातायात और सड़क सुरक्षा के मामले में हमारी योजनाये पानी मांगती नज़र आती हैं. 
                                                                                                    सड़को और उनकी देखभाल का मुद्दा प्रशासन के माथे मढने का मुद्दा नहीं है.यह जागरूकता और प्राथमिकताओं का मुद्दा है या यूँ कह ले की यह्जग्रुक्ताओं और प्राथमिकताओं की जिम्मेदारी है. हमारे देश में सड़क नियमों के प्रति जागरुक का अभाव है. व् सड़क नियमों का पालन हमारे लिए मजबूरी है. अज भी पचास फ़ीसदी लोगों की हेलमेट लगाने के पीछे की मानसिकता चालान से बचने की है. इस्लियेसदकों पर ऐसी बाईक दौड़ती नज़र आएँगी जिन पर हेलमेट सिर्फ खास मौकों के लिए टंगे नज़र आएंगे. वहीँ विदेशों में सड़क नियमों का कठोरता से पालन हटा है. शायद यही कारन है की हमारे यहाँ प्रति दस वहां मृत्यु दर १४ फीसद है और उनके यहाँ ये आंकड़ा २ फीसद से भी कम हाई हमारे देश की सड़कें ९० फीसद से अधिक सावरियां और ६५ प्रतिशत माल ढोती हैं .सादे इतनी अधिक उपयोगी होने के बाद भी उनकी हालत आंख के अंधे नाम नाम नयनसुख वाली ही है. सड़क हडसन को अंजाम तक पहुँचाने में अन्य कारणों की भी भूमिका होती है . मसलन सड़कों की चौडाई कम होना, दिवाईडर सही स्थिति मे न होना , सड़कों पर मेनहोल खुले पड़े रहना और जगह -जगह गड्ढे होना. कई मामलों में यह भी देखने को मिला है की ज़्यादातर हादसों की वजह गलत ओवरटेकिंग होती है. अन २००६ में मुम्बई -पुणे  एक्सप्रेस वे पर हुयी दुर्घटनाओं नी साथ से भी अधिक लगों की जानें ली हैं. यानि की ज़्यादातर लोगन को सड़क नियमो की कोई जानकारी ही नहीं होती.
                                                                 यद्यपि कई बार व्यस्त चौराहों पर ट्रैफिक सिपाही न होने की वजह से भी हादसे होते  हैं. इसलिए चाहिए की लोग वाहन चलते समय रफ़्तार पर नियंत्रण रखें. और वाहनों मे उच्च     तकनीक का इस्तेमाल करे. जैसे की- एयर-बैग्स ,एंटी ब्रेकिंग सिस्टम और बेहतर सस्पेंशन .इन सबका इस्तेमाल आपके सफ़र को सुहाना बनाने के साथ देश का ज़िम्मेदार नागरिक बनाने  की ओर भी अग्रसर करेंगी..              

रविवार, 15 मई 2011

                                                              टेम्पो टाइप ............
साहित्य और सिनेमा ऐसी दो विधाएं हैं जिनके आदर पर किसी भी देश और समाज के विषय में जाना जा सकता है. दोनों ही उसके बौधिक विकास और रचनात्मकता का पैमाना होते है. जहाँ  एक ओर फ़िल्में ओर साहित्य उस समाज को समझने का बेहतर उपाय हैं, वहीँ दूसरी ओर किसी भी परिस्थति या मनोदशा को दर्शाते हैं. जैसे 'दिल है छोटा सा छोटी सी आशा..' भविष्य के सपनो की, 'अज मैं ऊपर असमान नीचे..' उन सपनों को पा लेने की, तो 'सारे सपने कहीं खो गए..' सपनों के टूटने की कहानी कहते हैं. बस चंद शब्दों का हेर-फेर पूरे मायने बदल कर रख देता है. इसी तरह रंग दे बसंती फिल्म के 'थोड़ी सी धुल..' गाने ने जेनरेशन नेक्स्ट के इस अनोखे देशप्रेम का सबको दीवाना बना दिया था. पीपली लाईव की 'महंगाई डायन' ने उसे ससाद का सबसे लोकप्रिय विषय चर्चा के लिए बना दिया. महंगाई डायन हमेशा से ही समाज में थी लेकिन इतनी लोकप्रिय पहले कभी नहीं हुयी थी. इसी तरह चाहे वो 'मुन्नी बदनाम हुयी हो' या फिर सड़क नियमो की गुनगुनायी जा सकने वाली पाठशाला 'इब्ने बतूता गले में जूता..' हो. इन सब उदाहरणों के पीछे का आशय यह है की हर फिल्म या गाना अपने समय के समाज, परिस्थितिकाल, और मनोदशा का पोषक होता है. फिर चाहे वो हिंदी सिनेमा हो या भोजपुरी या फिर तमिल. सबके पीछे एक सन्देश या फिर यूँ कह लें कि पूरी कि पूरी विचारधारा छिपी हुयी होती है. इसका सबसे सटीक उदाहरण है टैक्सियों में बजने वाले गाने जो कॉलेज गोइंग्स में टेम्पो टाईप के नाम से मशहूर है.इसी तरह का एक टेम्पो टाईप है 'अरे रे मेरी जान सवारी, तेरे कुर्बान सवारी..' और आगे का पूरा गाना टैक्सी चालकों कि मनोदशा और उनसे कि जाने वाली पुलिसिया वसूली को बड़ी ही साफगोई और चालाकी से बयां कर जाता है. ये बताता है कि कैसे पुलिसिया वसूली कि खीज वो सवारियों को भूसे के मानिंद ठूंस के निकालते हैं.
                                                                                        भले ही इण्डिया में दोपहिया और चारपहिया वाहनों का बाज़ार दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा हो लेकिन अब भी ये टैक्सियाँ ही कई शहरों में एक जगह से दूसरी जगह तक पहुँचने का एकमात्र जरिया लाखों लोगों के लिए हैं. टैक्सी और इनमे सवारी करने वाले लोगों कि एक दुसरे पर निर्भरता 'मीटर जाम' आन्दोलन से पता चली.  यानि कि अब हमें ये मान लेना चाहिए कि ये टेम्पो टाईप' सिर्फ हास परिहास का विषय नहीं है बल्कि इनका भी अपना एक टाईप है. एक ऐसा टाईप जो बहुत हौले से अपनी बात समाज के हर वर्ग तक पहुंचा रहा है. मजेदार बात यह है कि ये भी भारतीय संविधान का अपना टाईप हैऊ जो सभी को अपनी बात कहने कि आज़ादी अपने टाईप से देता है.ट्रकों पर लिखे संदेशों के बाद अब ये टेम्पो टाईप भी अपना टाईप बताते हुए ये सडको पर दौड़ रहे हैं . ट्रको पर लिखे कुछ सन्देश जो मैंने पढ़े.............
                     इराक का पानी थोड़ा कम पियो मेरी रानी,मुकद्दर किसी कि जागीर नहीं होती, कीचड में पांव डाला है तो धना पड़ेगा ड्राईवर से शादी कि है तो रोना पड़ेगा,मालिक का पैसा मजदूर का पसीना सड़क पे चलती है बन के हसीना, न किसी की बुरी नज़र न किसी का मुंह काला होगा वाही जो चाहे ऊपरवाला.   
                                                        टेम्पो टाइप .........