शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

कौन हूँ मैं?

कांटे की नोक सी चुभती सर्द हवाएं,
वो ठंडक के दिनों की गुनगुनी धुप हूँ मैं,

नए सृजन की जो नींव रखी,
तुम्हारे घोंसले का पहला नीड़ हूँ मैं,

नंगे पांव टहलकर ज़रा महसूस करना,
मुलायम घास पर ओस की बूँद हूँ मैं,

बादल जब बरसकर चले कहीं और जायें,
पारिजात की कोपलों पर ठहरी बूँद हूँ मैं,

फेरकर हाथ देखो,
तुम्हारी ही तस्वीर पर वक़्त की धूल हूँ मैं,

टेबल पर पड़ी पुरानी डायरी में,
वो सूखा फूल हूँ मैं,

कंपकपाते होठों से तुम्हारे,
निकला गीत हूँ मैं,

जेठ की दोपहरी में,
थोड़ी सी छाँव हूँ मैं,

घाव दिखते नहीं पर,  
तुम्हारे दर्द की वो पहली पीर हूँ मैं,

और क्या कहूं तुम्हें अब?
आंखें बंद करके सुनो तो,

तुम्हारी सांसों की मद्धमगूँज हूँ मैं,
देखो अब न कहना तुम................
की कौन हूँ मैं?  

ये मीडिया वीडिया क्या है.............

अभी कल की ही बात ही कि मेरे पड़ोसी सवेरे-सवेरे ही मेरे घर आ धमके. अब इतनी मंहगाई में अतिथि बिलकुल अमेरिका सरीखा ही लगता है कि कब, कहाँ, किस वक़्त आ धमके और चाय-पानी पर हक जमा दे. पड़ोसी  महोदय ने बड़ी रपटीली निगाहों से पूछा- और..चाय-वाय पी जा रही है.ऐसा लगा  कि मानो अमेरिकी सील कमांडो ने मिसाइल दाग दी हो जिसे  न उगला जा रहा था और न निगला.बिल्कुल पी.एम. वाली स्टाइल में हामी भरी. अब वो थे कि बोलते ही चले जा  रहे थे और हम नाटो देशों की तरह उनके पीछे-पीछे हाँ में हाँ मिला रहे थे.उनका बात  करने  का अंदाज़ ऐसा कि हमारे बड़े-बड़े न्यूज़ एंकर  भी मात खा जायें.पड़ोसी महोदय आगे बोले- और बताएं कैसे  हैं आप? हमने सोचा कि आपसे बातें-वातें हो जाएं. बच्चे-वच्चे कैसे हैं? और भाभी जी भी अच्छी हैं. वो कुछ बोलते कि हमने पहले ही तपाक से ज़वाब  देते  हुए कहा. एक के बाद एक सवालों कि मिसाइल दागे जा  रहे थे. ऐसा लग रहा था कि जैसे पाकिस्तान भी वही हों और इण्डिया भी वही हों.ज़वाब मुझसे ही मांगे जा रहे थे जैसे मैं कोई विकिलीक्स हूँ जो क्लिक करते ही दुनिया भर में हल्ला हो जायेगा.सरकारी स्कूल के मास्टर की तरह उन्होंने मुझसे पूछा- गरीब? ज़वाब था किसान. हत्या? सचान. इसके बाद तो शब्दार्थ का ऐसा शास्त्रार्थ चला कि पडोसी जी कालिदास बन गए और हम विद्योत्मा कि तरह ताकते रहे.आत्महत्या? जो रखता है ईमान. ढोंगियों के बीच संत?निगमानंद. नए पैकेट में माल पुराना? रामदेव का योग-ख़जाना. मांगों को मनवाना? वही अनशन का ढोंग पुराना. अब आगे वाही हुआ जो अक्सर हमारी भारतीय बहसों में अक्सर हुआ करता है. बात शुरू रामायण से हुयी थी और पहुँच महाभारत तक गयी. अब  वे हर किसी की बखिया उधेड़ कर रखने वाले मीडिया पर  आ टिके थे. जैसे ही उन्होंने मीडिया की पूँछ  पकड़नी चाही मैंने झट से जवाब दे डाला- महोदय जी अब तक जितने शब्द अपने पूछे वो मीडिया था और अर्थ वीडिया.फिर हल्के से हम वीडिया की स्टाइल में अपना बोरिया-बिस्तर समेत कर नौ दो ग्यारह हो लिए.    
        


   

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

                                    काश..........कोई स्लट-वॉक इधर भी होता  

 स्लट वॉक यानि कि अपने आप में एक बेशर्मी मोर्चा (अगर हिंदी में इसका अनुवाद किया जाये तो कुछ ऐसा ही अर्थ निकलता है) देश की राजधानी दिल्ली में निकालने  का ऐलान  कुछ महिलाओं ने कर दिया है. अपने अधिकारों कि मांग के लिए ये एक अलग तरीके का विरोध प्रदर्शन है.मैं यहाँ कोई स्त्रीवादी बात या किसी अन्य का विरोध करने नहीं जा रही हूँ बल्कि इस घटना के सहारे उस हकीकत कि ओर ध्यान खींचना चाहती हूँ जो हमारे समाज में बस यूं ही हो जाया करती हैं.
                                                                             बिहार की अंशुमाला ने आज से दो साल पहले ये सोचा भी नहीं होगा कि जिस सफलता  कि ओर वह इतनी तेज़ी से कदम बढ़ा रही है,नियति उसे ऐसे मोड़ पर ला कर पटक देगी कि खुद के सहारे दो कदम भी चलना दूभर हो जायेगा. दिल्ली यूनिवर्सिटी से  एम.ए और एम.फिल., पटना विश्वविद्यालय से संगीत में स्नातक और आकाशवाणी की 'बी' ग्रेड कलाकार, युवा लोकगायिका अंशुमाला आज अपनी मौत का मर्सिया खुद पढ़ने को मजबूर है. जो बिहार कभी अंशुमाला की गायिकी के दम पर इतराता फिरता था, आज उसकी सुध लेने वाला कोई नहीं है.जब भी ज़रूरत पड़ी अंशुमाला ने बिहार से लेकर,मिरांडा कॉलेज,बाल भवन,श्रीराम सेंटर और नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा तक हर जगह अपनी उपस्थिति दर्ज की. जहाँ अंशुमाला की लोक  गायिकी पर हजारों तालियाँ बज उठती थीं. आज कहाँ है वो तालियों की गड़गड़ाहट,तारीफों के पुल बांधते लोग? उसका हौसलाफज़ाई करने वाली वो बड़ी-बड़ी हस्तियाँ? वो सेमिनार और वो संस्थाएं जो अपने कार्यक्रमों में अंशुमाला को आमंत्रित कर स्वयं को धन्य समझते थे. २७ साल की इस छोटी सी उम्र में अंशुमाला ने वह दौर भी देखा जब उसके प्रसंशकों की फेहरिस्त में बिहार के राज्यपाल से लेकर पी. एम. मनमोहन सिंह की पत्नी गुरुशरण कौर और पूर्व राष्ट्रपति  ए.पी.जे. अब्दुल कलाम तक शामिल थे. जमशेदपुर में आयोजित आल इंडिया यूथ फेस्टिवल शायद अंशुमाला की ज़िन्दगी के सबसे खूबसूरत पलों में से एक होगा जिसमें नाना पाटेकर ने भी उसकी गायिकी की सराहना  की थी.लेकिन ये सब उसका बीता हुआ कल था.जो हकीक़त है वो उसका आज है. 
                                                                               अंशुमाला ने इतनी सफलता हासिल करने के बाद भी अपने माता-पिता की बात मानी और उनकी पसंद के लड़के से शादी की.दिल्ली और पटना को छोड़ वह अपने ससुराल आ गयी और किस्मत ने यहीं से अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया. ससुराल में रियाज़ का माहौल नहीं था और शायद सुरों के बिना वह अधूरी थी.प्रेग्नेंट होने के बाद डिप्रेशन में आ गयी. बच्चे के जन्म के साथ ही उसकी एक किडनी ख़राब हो गयी. ये बात अंशुमाला ने अपने माता- पिता को भी नहीं बताई. अपनी सारी तकलीफों को को समेटे वो घुट- घुट कर जीती रही ,लेकिन पिछली जनवरी-फरवरी में जब दोबारा प्रेग्नेंट हुयी तो उसकी हिम्मत ज़वाब दे गयी.उसने अपना सारा दर्द माँ-बाप से बयां कर दिया. शायद तब तक बहुत देर हो चुकी थी क्योंकि पति ने अबार्शन के लिए दवा की हार्ड डोज़ दे दी जिसके कारण उसकी दूसरी किडनी भी ख़राब हो गयी.जिस पति ने सात जनम तक साथ जीने मरने  की कसमें खायीं थी उसने भी अंशुमाला का साथ छोड़ दिया. अब वह अपने माता-पिता के घर पटना में है.शास्त्रीनगर के  सरकारी आवास में वह अपनी माँ और  दो साल के बेटे के साथ अपनी ज़िन्दगी के बचे-खुचे दिन गुज़ार रही है.उसके पिता जहानाबाद जिले में तैनात हैं और बिहार सरकार से बेटी की देखभाल के लिए पटना तबादले की दरख्वास्त की है.पता नहीं बिहार सरकार कब सुनेगी? एक सिपाही की आर्थिक हालत का अंदाज़ा कोई भी आसानी से लगा सकता है.इलाज के लिए वो वेल्लूर से लेकर दिल्ली तक मदद की गुहार लगा चुके हैं लेकिन कहीं से कोई उम्मीद की किरण नहीं दिखी और उधर अंशुमाला के पास गिनती के दिन ही बचे हैं.
                                                                                 अंशु का मैथिली में गंगा कैसेट्स की ओर से 'प्रिय पाहुन' नाम से कैसेट भी निकल चुका है. एन.सी.सी. की 23वीं  बटालियन में भी रह चुकी है. 2009 -11 में मानव  संसाधन मंत्रालय से स्कॉलरशिप प्राप्त कर चुकी अंशु के अरमानों का क्या होगा? दिल्ली जैसे शहर में पढ़ने के बाद हर किसी का सपना कमाने और अपने सपनों को पूरा करने का  होता है लेकिन अपने शहर लौटने पर क्या हर लड़की का हश्र अंशुमाला जैसा ही होगा? जहाँ एक ओर बिहार की ही रतन राजपूत ने स्वयंवर में अपना वर चुना है, दिल्ली में ही स्लट वॉक के लिए महिलाओं ने कमर कस ली है तो दूसरी ओर अंशुमाला की सांसों की डोर टूटने को है और उसी के साथ वो सपने भी बिखर जायेंगे जो अंशु की आँखों ने देखे थे.ये सिर्फ अंशुमाला के सपने नहीं है ये हर उस लड़की के सपने हैं जो अपने भविष्य को स्वयं के हाथों से गढ़ना चाहती है. क्या हम अंशु के लिए कुछ भी नहीं कर सकते? बेशर्मी के सहारे ही सही अगर अंशु की सुध लेने को तैयार है तो हमें इसमें झिझकना नहीं चाहिए? क्योंकि ज़िन्दगी ख़तम होते देखना इतना दुखदायी नहीं होता जितना की सपनों को आँखों के सामने बिखरते देखना.