मंगलवार, 20 सितंबर 2011

रिश्तों और देह की गणित से परे.....

बीज जो बोये थे
इस बार बरसात में
अंकुर उसमें से
फूटा है
इक पौधा हरसिंगार का
पारिजात के संग
अपने आँगन में
इस आशा में की
 ख़ुशबू के साथ तुम मुझमें समा जाओगे
घनी रातों में अक्सर
मेरी स्थूल काया
तुम्हारे पैरों को छूकर
वापस आ जाती है
और मुझमें समाकर
तुम्हारे स्पर्श का
एहसास दिलाती है
नहीं चढ़ाये बेलपत्र भी
शिव के मंदिर में
तुम्हारे नाम से 
अलग रख लिए हैं
जाने क्या सोचकर?
जलते दीपक
कुएं की जगत पर
रखे हैं
उम्मीदों का एक झुरमुट सा
मेरे संग आँख मिचौली
खेला करता है
नहीं छह कुछ पाने की
फिर भी एक द्वंद सा
अंतर्मन में बैठा है
तुमसे जुड़े प्रतिमानों की
एक बस्ती सी बसा ली है
अपने चरों तरफ
उसमें खोकर ...
तुम्हें हर रोज़
जी लिया करती हूँ
तवारीख हँसे मुझपर
इससे पहले ही
तिनका एक प्रेम का
उस अदृश्य बिंदु से
मांग लिया है
जो हर काल में
किसी एक को मिला हुआ है
ग्यारहवां बेटा तुझे
अपना बनाकर
उन तमाम  प्रेमग्रंथों को
जला दिया है
लो रिश्तों और देह की
गणित से परे
मैंने तुम्हें हर
लेन-देन  से
मुक्त किया  

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