सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

कृपया जूते चप्पल उतार दें


घर से निकलें  तो जूते में पैर डालने से पहले ज़रा  सोच लें.इसे महज़ एक जूता न समझें. क्यूंकि पिछले कुछ दिनों से जूते डिमांड में है.क्या पता आपके पैर के जूते के दिन कब,कहाँ किस सभा में बहुर जायें. और आपका जूता सेलिब्रिटी बन जाये.मीडिया में में रात दिन का कवरेज मिलने लगे कि देखिये ये वाही जूता है ...इसे गौर से पहचान लीजिये वगैरह वगैरह.एक जूता आपको रातों रात स्टार बना सकता है.जितना ऊंचा सिर जूते के लिए चुनेंगे  उतनी ही ब्रांड वैल्यू.जूतों कि माला के दिन अब गए.बिलकुल शॉर्ट एंड सिंपल.विरोध की कूट भाषा,भीड़ में जूता उछाल दीजिये.बाकि का काम तो जूते का दीवाना मीडिया कर डालेगा.अब आपको जूतमपैजार की पवन कथा सुनाते हैं. जूतापुराण का हमारे यहाँ धार्मिक महत्त्व है.भरत ने राम की खड़ाऊं पूजन कर उन्हें सिंहासन पर बिठाया था. फिर जैसे जैसे जूते का रूप रंग बदला ये मल्टीपरपज होता गया.लोग जूता देखकर आदमी की हैसियत का अंदाज़ा लगाने लगे.तो कईओं ने जूते जैसी चीज के संग्रह का शौक पाल लिया.कभी किसी बड़े वाले के घर में पुलिस रेट डालती है तो लाखों के जूते हाथ लगते हैं.अप सबसे के छिपाना हम भारतीयों की आदत तो जानते ही है आप.पते की बात ये है की ये जूते वाला आईडिया भी इम्पोर्टेड है.वो अमरीका वाले बुश जी हुआ करते थे न, उन पर मुन्तज़र अल जैदी नाम के क्रिएटिव पत्रकार ने इसका शुभारम्भ किया था.बस फिर क्या था हमने लपक लिया इसे.चिदंबरम जी से लेकर प्रशांत भूषन और केजरीवाल जी तक इसकी शोभा बढ़ा चुके है.तो आपका जूता जापानी है या हिन्दुस्तानी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता.बस कुछ हटकर कर दिखाइए इससे.     


वैधानिक चेतावनी-कोई भी प्रतिक्रिया देने से पहले कृपया जूते चप्पल उतार दें.     

औरत

हर तीज त्यौहार पर 
होती है तुम्हारी पूजा 
घंटे घड़ियाल बजाकर 
नैवेद चढ़ाये जाते हैं 
तुम्हारे सामने शीश झुकाकर
तुमसे ही छुटकारा 
पाते हैं
नवरात्रों में महिषासुर मर्दन 
करने वाली 
दहेज़ की ख़ातिर
गहरी नींद में ही 
जिंदा जला दी जाती है 
अजंता एलोरा की गुफाओं में 
उकेरे गए तुम्हारे बिम्ब 
सदियों से हिस्सा हैं 
हमारी महान संस्कृति का 
फिर क्यूँ पैरहन पर तुम्हारे 
प्रश्नचिन्ह उठाये जाते हैं 
बांधती हो ढेरों और दुआएं 
बुरी नज़र से बचाने के लिए
 फिर एक दिन अचानक 
भरे बाज़ार में डायन
करार दी जाती हो
सहन नहीं होती छोटी सी 
चोट भी जिगर के टुकड़े की 
हंसी आती है तुम पर 
जब जिस्म पर पड़े 
काले निशान 
बाथरूम में गिरी थी 
कहकर छिपा ले जाती हो 
सचमुच!
ज़वाब नहीं तुम्हारा
कभी सीता बनकर 
अग्नि परीक्षा देती हो 
तो द्रौपदी के रूप में 
पांच पांडवों द्वारा 
जीत ली जाती हो 
अमर हो गयी राधा तुम 
कहकर बहलाई जाती हो
अजब प्रेम भी मीरा का 
जो विष-प्याला अधरों से 
लगाती हो 
रूपकुवंर तुम भी हिस्सा हो 
उस औरत का ही 
मरकर सती मईया
कहलाती हो 
नशे में धुत बेटे ने 
मार दिया कल माँ को  
शायद बूढी उँगलियाँ 
रोटी जल्दी न सेंक पाई थीं 
नहीं दूँगी उदाहरण 
की तुम हवाई जहाज 
उड़ाती हो 
देश चलती हो 
अन्तरिक्ष परी कहलाती हो 
देखा था तुमको 
पीठ पर बच्चा बांधे
आठ ईंटे सिर पर
ढोते हुए 
और अपनी जिद पर आओ तो 
इरोम शर्मिला बन जाती हो 
बेटी,बहु, माँ और 
प्रेमिका बनकर 
भारती हो जीवन में रंग 
शांति का नोबेल समेटे 
आँचल में 
औरत कहलाती हो                                                      -संध्या  
 
     
 
 

सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

आम आदमी


बड़ी बड़ी नेम्प्लेटें
चस्पां हैं बंगलों में 
जिन्हें तुम पढ़ नहीं पाते
और बड़े साहब तक ही 
सीमित रह जाते हो
कभी तुम्हें घुसने नहीं 
दिया जाता 
पवित्र मंदिरों में?
तो गले में लटकाकर 
लॉकेट श्रद्धा  का 
उतने में ही खुश हो जाते हो 
ये साठ फिटा सड़कें
और हाईवे तरक्की के 
नहीं है तुम्हारे लिए    
फिर भी बनाते हो 
जब किसी दिन 
गुज़रता है है काफ़िला
अम्बेसडर गाड़ियों में बैठे
किसी सफेदपोश का 
तो इन्हीं पर चलने से 
रोक दिए जाते हो
हजारों करोड़ रूपये 
खर्च होते हैं 
तुम्हारे ही नाम की 
योजनाओं में 
फिर क्यूँ दिवाली छत्तीस 
रूपये में मानते हो 
तुम्हारे लिए नहीं 
पांच सितारा अस्पताल 
इलाज के लिए 
तभी तो अधमरे ही 
सड़कों पर फेंक दिए 
जाते हो 
बेघर कर दिए जाते हो
बिना बताये आधी रात  को 
तुम्हारे सपनों पर 
चला दिया जाता है 
बुलडोज़र 
फिर क्यूँ बोलो?
जन गन मन 
अधिनायक जय हे 
राष्ट्रगान में गाये जाते हो.                                                 
शायद तुम  ही आम आदमी 
कहलाये जाते हो                                                             -संध्या

 

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011

तुम पास नहीं हो...

अक्सर सोचा करती थी
तुम होते तो ऐसा होता
तुम होते तो वैसा होता
लेकिन अच्छा है ना
तुम पास नहीं हो

पौ फटने से पहले ही
अपने गीले गेसुओं से
तुम्हें जगाती

घर से जब तुम बाहर जाते
शगुन लगाने को दही का
पीछे से आवाज़ लगाती
जल्दी उठाना है इस ख्याल से
नींद... चाय के बर्तन में
भाप के संग उड़ जाती
अच्छा है ना
तुम पास नहीं हो

तुम्हारी घड़ी,
तुम्हारी फाइल
तुम्हारी टाई
पर्स
रुमाल
इन सबको ढूंढने में ही 
थक कर चूर हो जाती
फिर अगले दिन
इसी काम में ख़ुशी ख़ुशी
लग जाती
अच्छा है ना
तुम पास नहीं हो

खाया होगा तुमने कुछ?
इस चिंता में
मैं भी कुछ ना खा पाती
लंच बॉक्स खोलते जब तुम
अलसाई सी मुझ सी
रोटियों संग
जम्हाई मेरी खुल जाती
अच्छा है ना
तुम पास नहीं हो

याद में तुम्हारी
सब्ज़ी फिर से
तीखी हो जाती
जानते हुए भी कि
तुम नहीं आओगे
नज़र दीवार घड़ी पर
टिक ही जाती
जाते हुए तुम्हारा मुझको
फ्रूटी देना
और देखना तब तक तुमको
आँखों से ट्रेन जब तलक
तुम्हारी ओझल ना हो जाती
अच्छा है ना
तुम पास नहीं हो

पास अगर तुम होते तो
मिलन आत्मा का क्या
हो पता
प्रेम के दो शब्द बोलने में
दसियों बार लजाती
 सारी रैन  चाँद देखते
हुए बिताती
पूजा घर में रखी
तस्वीर तुम्हारी आंसुओं से
धो पाती?
अच्छा है तुम महज़
कल्पना में हो
वरव इतना कुछ क्या
लिख पाती
अच्छा है ना
तुम पास नहीं हो                                                       -संध्या

सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

जी एक सर्वे आया है....

ज़रा सुनिए तो! फिर से एक सर्वे आया है.अब ये मत पूछियेगा किस के बारे में.हम भारतीय हैं ही सर्वे की चीज़.कभी दवा कम्पनियाँ,तो कभी भुखमरी और न जाने क्या क्या.अब ज्यादा बतकूचन करने की बजाय मुद्दे पर आती हूँ.बाज़ार अनुसंधान फर्म( टीएनएस) अपने एक अध्ययन में इस निष्कर्ष पर पहुंची है समृद्ध परिवारों के लिहाज से भारत,अगर इंडिया कहूं तो ज्यादा बेहतर होगा: ने यूरोपीय देशों को भी पीछे कर दिया है. टीएनएस के निदेशक रेग वान स्टीन जी तो कहे हैं की इंडिया और चाइना ने कइओं को पछाड़ दिया है.इस सूची में पहला नंबर पाया है हमने. अब स्टीन जी को कौन समझाए कि विदर्भ में किसान क्यूँ मरते हैं,लोग मिटटी से पेट शौकिया नहीं भरते, पूरा का पूरा परिवार मौत को गले जस्ट फॉर एक्सपेरिएंस नहीं लगते.जय हो ग्रोइंग इंडिया और पिछड़ते भारत कि.                                                      -संध्या 
   
         

गुरुवार, 6 अक्तूबर 2011

तुम्हें क्या लिखूं?

सागर सी गहरी प्रीत लिखूं 
ऊंचे पर्वत की ऊँगली थामे 
बहती नदियों का 
जीवन संगीत लिखूं 
पथ से भटका राही हूँ 
यदि जंगल तुम्हें बियाबान लिखूं?

प्रातः की नयी शुरुआत लिखूं 
या हरी घास पर आबशार लिखूं 
प्रकृति के हर रूप में तुम 
यदि अमावस की 
तुम्हें काली रात लिखूं?
हाथों के कंगन की 
खनकती आवाज़ लिखूं 
या दर्पण में अपना 
सोलह श्रृंगार लिखूं 
सामने तुम हो सोचकर ये 
यदि गालों पर तुम्हें 
सुर्ख़ लाल लिखूं?

घूंघट की तुमको ओट लिखूं 
या रेत पर क़दमों के निशान लिखूं 
मृग-मरीचिका से लगते हो 
यदि तपते मरू में 
तुम्हें नखलिस्तान लिखूं?

मकड़ी के जाले सी लिपटी 
यादों का तुम्हें जंजाल लिखूं 
या टेबल पर पड़ी पुरानी डायरी में 
रखा सूखा गुलाब लिखूं 
यदि ग़ुरबत के दिनों की 
अधजली रोटी का
तुम्हें स्वाद लिखूं?

जीवन की तुमको आस लिखूं 
या सपनों का स्वप्निल 
आभास लिखूं 
देखो विस्मृत न होना तुम
यदि मरघट का तुम्हें 
विलाप लिखूं ?                                    -संध्या

सोमवार, 3 अक्तूबर 2011

हर बार....

मेरे और तुम्हारे बीच 
सारी दूरियां मिट चुकी हैं 
बस बाकी हैं 
मीलों के फासले 
रेत के तपते रेगिस्तान 
झूठे रिश्तों के कैक्टस 
और शहर तथाकथित 
इंसानों के 
वास्ता कोई न रखोगे 
जब तुम मुझसे 
दर्द तुम्हारे ज़ख्मों के 
रिसने लगेंगे 
छत की सीलन की तरह
मेरी आँखों से 
हर बार ....

वक़्त की रबर से 
मिटाकर देखना 
मेरी यादों की रंगत को 
ये और गहरी होती जायेंगी 
धुंए से लाल हो चुकी 
दीवारों की तरह 
हर बार 
जिन पर नहीं चढ़ेगा 
प्रेम का कोई और रंग 

मेरे घर की गली के 
जानिब 
गुज़रोगे जितनी बार 
जानते हुए कि क़दम
नहीं ठहरेंगे 
फिर भी मैं दरवाज़े की
कुण्डी खोल दिया करुँगी 
तुम्हारे लिए 
हर बार...
चिट्ठियां भले तुम न लिखो
ख़ुशबू वाली गुलाबी 
अपनी खैरियत की 
लेटर बॉक्स में
पोस्ट कर दिया करुँगी 
ख़ुद ही तुम्हारे नाम से 
हर बार ....

रोक लो हवाओं को
अपने शहर की 
जो लाती है महक
तुम्हारी सांसों की मुझ तक 
मैं साँस ही नहीं लूंगी
और भेज दिया करुँगी 
उन्हें वापस उल्टे पांव 
हर बार ...

बांध दी है सदा के लिए 
चाभी उस संदूक की 
अपने पल्लू से 
वक़्त जिसमें ठहरा हुआ है 
अपने मिलन का 
वादा है मेरा 
तुम्हारी मर्ज़ी के बिना 
नाहीं खोलूंगी उसे 
बस छू लिया करुँगी 
बाहर से ही
हर बार...

लो छोड़ दिए पैरहन
धानी रंग के
भाते नहीं मुझ पर
तुम्हारे बिना 
तुम्हारी शर्ट का रंग 
ओढ़ लिया करती हूँ 
हर बार...

अपनी कविता की 
नायिका को 
दूर कर दो तुम चाहे 
जितनी बार
दावा है ये मेरा
की मैं मिलूंगी तुम्हें
हर बार...                                         -संध्या