शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

तुम्हारा थामे
दूर तलक चलते जाने के
सपने हाथ
पिघलते सूरज की तरह
उतरती तुम मुझमें
जाड़े की सर्द हवाओं 
की तरह तुम्हरी यादें 
कंपा देतीं हैं मुझे 
आज भी 
याद नहीं किया करता
अब तुम्हारी बातें 
गूंजती रहती है हर वक़्त 
कानों में सुबह शाम
यादों के धुंधलके में
दिख जाती हो तुम  
जैसे कोई तस्वीर हो बेनाम                                                  -संध्या   

 
   

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