शनिवार, 1 दिसंबर 2012

यादों ने ऊँगली पकड़
साथ चलने की
जिद की
मैनें अनमने मन से
हटा दी धूल
वक़्त के आईने से
और तब उसने दिखाया
एक चेहरा
जिसे देखते ही
सीने में सालों से सोयी
कई धडकनें
एक साथ उछल पड़ीं ....................संध्या यादव

साहब मेरा भी कुछ बनता है

                           
        भाया आजकल के मंहगाई के इस राष्ट्रीय दौर में लेन देन के मामले में खास  चौकन्ना रहना पड़े है.. पड़ोस की मिसेज मेहता पाव भर आलू उधार ले गयीं थी. लौटने के नाम पर दुबारा मुंह तो जाने दो पीठ तक नहीं दिखाई. क्या कहें पाव भर आलू के लिए व्यवहार खऱाब कर लिया. अभी परसों ही शर्मा जी सुई मांग मांग कर ले गए थे. सुई तो जाने दो धागा तक नहीं लौटाने आये. मैंने याद दिलाया तो उलटे मुझे ही गिनाने लग पड़े. आजकल एक नए तरह का सामाजिक बदलाव देखने को मिल रहा है. लोग लेना तो सीख रहे हैं पर लौटाने के नाम पर चुनावी वादे जैसा बिहेव करने लग जाते हैं. इधर मैंने लौटाने के नाम पर भी कुछ बयाने लिए हैं. बित्ते भर के थे तभी से घुट्टी पिलाई गयी है जिसका लो वापस ज़रूर करो. तो सोचा जब वापिस करना है तो कुछ लेना पड़ेगा न. राष्ट्र कैश सब्सिडी नाम देनदारी नाम की नयी हवा से झूट रहा है. मौसम विभाग की मानें तो ये हवाएं उत्तर में दिल्ली के राम लीला मैदान से चली थीं और अब पूरे देश को चपेट में ले लिया है. राम लीला में कुछ आम आदमी टाईप के लोगो ने धरना इससे सबसे ज्यादा प्रभीवित होने वालों में सरकार, वाड्रा नाम के दामाद और इसी परिवार के कई तथाकथित सदस्यों के हताहत होने की ख़बर है. बड़े बुज़ुर्ग कहते हैं की लेन देन की बातें मौका और नजाकत देख कर करनी चाहिए. सरकार ने दोनों देखी हैं. अपनी कुछ योजनाओं में से सफ़ेद हाथी जैसी जो हैं उन्हें चुन लिया है. नों साल आम आदमी की खूब ली है  अब देने का सोच रही है. हर तरफ़ से अजीब अजीब सी आवाजें सुनाई पडऩे लगी हैं. मंहगाई के बोझा लादे चीकट सा आम आदमी मांग रहा है, स्विस बैंक वाले अपना हिस्सा मांग रहे हैं, 2 जी वाले तो पता नहीं कब से गला फाड़ रहे, कोलगेट वाले हिस्सा न देने पर सब काला कर देने की धमकी दे रहे हैं. मुझे तो समझ नहीं आ रहा ये सरकार सबका पैसा भला कैसे दे पायेगी. अगर बंगाल वाले को देती है तो पंजाब वाले चिल्ला पड़ते हैं. पर देना तो पड़ेगा भई!  इतने सालों से दूसरों के पैरों पर जो खड़ी है. हम भी समझते हैं इतना आसान थोड़े ही है.पर मैं तो अदना सा आम आदमी हूँ. थोडा है और थोड़े की ज़रूरत मेरा दर्शन रहा है. पर ये सरकारें न थोडा देती हैं और न थोड़े में बसर करने देती है. हो सके तो मिसेज मेहरा के घर कुछ गैस सिलेंडर, बबलू की गड्डी में पेट्रोल डलवा दियो बेचारी की गर्ल फ्रैंड ने उसका जीना हराम कर दिया है, पड़ोस की विमला आंटी सब्जी के ठेले पर सब्जी सूंघ सूंघ कर रख देती हैं. कोई सब्जी वाली योजना भी चलवा दो न. जिसका जितना हिस्सा होगा दे देना और सनद रहे साहब इस आम आदमी का भी कुछ बनता है.                           -संध्या यादव

गुरुवार, 29 नवंबर 2012

दिन भर की भाग दौड़
और जीवन की आपाधापी
ओह सुबह की चाय
फिर लंच
लो स्कूल की बस
छूट गयी बच्चों की
फिर लाज शरम का
पल्लू थामे
दौड़ो कि बस
छूट न जाये कहीं
ऑफिस में भी आराम कहां
ध्यान तो वहीं लगा
कि शायद रसोई में
कल की सब्जी ख़तम है
लौटती हूँ तो
बिखरे सामान के संग 
मन के कुछ कोने भी
समेटती जाती संग संग
और फ़िर रात को
चुपके से उठकर 
दबे पांव मैंने
पूजाघर की सबसे
ऊपर की अलमारी में
स्थापित कर दी कुछ यादें
न.. न..
तुम्हारी तस्वीर नहीं
तुम्हारा दिया हुआ
कुछ सामान
ताकि अलसुबह सबसे पहले उठकर
नवा सकूँ सिर अपना
कुलदेवता के बहाने ......................संध्या



बचपन के दिन भुला न देना

      हम कितने भी बड़े क्यूँ न हों जायें, बचपन के दिन हमेशा हमारी यादों में जिंदा रहते हैं.वो दिन जब हम बेफिक्री से बेमतलब यहाँ वहां घुमते हुए बिता दिया करते थे. न घर की चिंता थी न बाहर की. हमारे खेल थे कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेते थे. हर दिन हर मौसम में किसी वीडियों गेम की तजऱ् पर नए नए खेल ढूंढ लिया करते थे. फिर वो खेल एक गुट से दूसरे में और दूसरे गुट से टोले में और टोले से पूरे गाँव में चल पड़ता था. बड़े बुजुर्गों के लिए भले ही मौसम बदलते हों पर बच्चों के लिए तो मौसम खेल के हिसाब से बदला करते हैं..या यूं कह लीजिये की खेलों के ही मौसम हुआ करते हैं. वो पेड़ों पर चढऩा, कंचे खेलना, सिकड़ी, घर घर खेलना, गुड्डे- गुडिय़ों की झूठ मूठ की शादी रचाना, किरण पारी को बुलाना हो या हम सब में चोर कौन बनेगा ये डिसाइड करने के लिए कोई गीत गुनगुनाना हो जैसे- नीम्बू की प्लेट में चीनी का आचार था बुढिय़ा बीमार थी और बुड्ढा नाराज़ था. या फिर गोले में बैठकर घोड़ा जमाल खाए पीछे देखे मार खाए कहकर घूमना हो. कच्ची रेल की सडक़ बाबू धडक़ धडक़ सबसे प्रिय गीत हुआ करता था. चोरी करना बुरी बात है ये मम्मी पापा के अलावा ये गाना भी सिखाता था- पोशम पा भई पोशम पा सौ रुपये की घड़ी चुरायी अब तो झेल में जाना पड़ेगा जेल की रोटी खानी पड़ेगी. और हाँ साथ में बुरी आदतों से तौबा करने की हिदायत भी ये गाना देता था- सिगरेट पीना पाप है सिगरेट में तम्बाकू है और वही जेल का डाकू है. मां कितनी भी हिदायतें क्यूँ न दे पर कड़ी दोपहरी में बागों के लिए निकल पड़ते थे जैसे सूरज को चुनौती दे रहे हों और भला किसकी मजाल जो हमें बारिशों में नाव तैराने से रोक ले. ये वू दिन थे जब हर कांच का टुकड़ा हमें खेलने की चीज़ लगता था और रास्ते पर पड़े हर पत्थर को ठोकर मारने के लिए हमारे पांव ख़ुद -ब-ख़ुद उठ जाया करते थे. घर में लगा आईना किसी हमें हूबहू किसी दूसरे घर में पहुंचा दिया करता था. जिज्ञासाओं के ग़ुबार यहीं से शुरू होते थे. दीवाली के बचे हुए दीयों से तराजू बनाकर जिंदगी में  संतुलन बनाये रखना खेल खेल में सीख जाया करते थे.तितलियों के पीछे भागना हो या बादल में कोई नयी शक्ल देखना, चिडिय़ों के बच्चों के लिए पानी रखना, रेत के ढेर में पांव डालकर छोटा सा घरौंदा बनाना हो. बचपन के ये खेल कोई नहीं भूलता बस यादों के धुंधलके में जरा फ़ीके पड़ जाते हैं. पर आज भी जैसे ही हम किसी बच्चे को रंग बिरंगे गुब्बारों के लिए मचलता हुआ देखते है तो हम सब के भीतर का बच्चा मचलने लगता है. बदलते वक़्त के साथ ये सरे खेल कहीं गुम से हो गए हैं. आजकल के वीडियो गेम्स और और नयी नयी तकनीक से बने खिलौनों ने यक़ीनन बच्चों को आधुनिक और चतुर बनाया है पर उनका बचपना कहीं खो सा गया है. दिनभर सोफे पर बैठकर कंप्यूटर से चिपके रहना और वीडियो गेम्स खेलना आजकल के बच्चों का प्रिय शगल बन चुका है. मिट्टी की महक और लकड़ी के खिलौनों से ये दूर जा चुके हैं. पेड़ों से तोडक़र आम, इमली और जामुन खाने से ज्यादा स्वादिष्ट इन्हें पिज़्ज़ा और बर्गर लगते हैं. उन्हें दादी नानी की कहानियों से ज्यादा रुचिकर डोनाल्ड डक, टॉम एंड ज़ेरी और मिकी माउस लगते हैं. गिल्ली डंडे से कहीं ज्यादा उनके हाथ कम्पूटर के की -बोर्ड और माउस पर चलते हैं. प्रकृति से दूर हो चुके ये बच्चे तकनीकी भाषा ज्यादा समझने लगे हैं. शायद यही वजह है की भावनाओं का प्रतिशत उनके स्वभाव में कम पड़ता जा रहा है. भले ही खेल मन बहलाने का तरीका रहे हों मगर सच तो यह है की ये खेल बचपन से ही बच्चों में  संस्कारों और दुनियावी समझ की नींव अनजाने में ही रख देते थे.       







                                                                                                                                          - संध्या यादव

शनिवार, 24 नवंबर 2012

दुनिया पूछती है मेरी ख़ामोशी का सबब मुझसे
ज़रा सी याद तुम्हारी आई है और कोई बात नहीं

दिल में बसी तस्वीर धुंधली नज़र आती है
आँखों में उतर आई है और कोई बात नहीं

तेरी महफ़िलों में हम भी हैं आजकल
वफ़ा तुमसे हो गयी है और कोई बात नहीं

बाग़ के सब फूल चुन लिए उसके लिए
कांटे मेरे हिस्से में आये हैं और कोई बात नहीं

भीड़ में कोई उंगली तेरे जानिब न उठे
निगाह इसलिए चुरायी है और कोई बात नहीं

अंधेरों से न हो वास्ता रौशन तेरा घर रहे
दिल अपना जलाया है और कोई बात नहीं
                                                                    - संध्या
खेल खेलने के शौक थे मुझको
कभी गुड़ियों से
तो कभी तितलियों से
उड़ता पंछी देखकर
हो आती थी
नील गगन में
कंचे देखकर
चमक उठती थी आँखें
बारिश मेरी प्रिय थी
जब भीगते हुए

बादलों को खूब
चिढाती थी
पेड़ों की डालें
मेरा झूला थीं
जुगनुओं संग रोज रात
जलती बुझती थी
फिर एक दिन तुमने कहा
आओ चलो पतंग उड़ायें
मैंने ख़ुशी ख़ुशी
पतंग पर अपना नाम लिखा
और मांझा तुम्हारे
नाम का बाँध दिया
हम दोनों ने हाथ थामकर
खूब ऊँची पतंग उड़ाई
मैं ख़ुशी से चिल्लाई
बहुत दूर निकल आई हूँ
अब वापस चलते हैं
और तब तुमने
धरती से अपने मांझा
चुपके से काट दिया
मेरे नाम की कटी पतंग
कहीं दूर गिर गयी
-संध्या

चुल्लू भर कसाब बाकी है

                                            
                                                                                                                            

काहे गयो  रे कसाब। तुम तो चले गए गए बिरयानी और सत्तर बकरों की बोटी खाकर पर अपने पीछे भरा पूरा संभावनाओं का कसाब छोड़ गए। तुम्हारे चाचा बहुत तंग कर रहे हैं। उनने न तुम्हें जिंदा अपनाया न मुर्दा। और जब तुम जमीन में गड़ गए तो गड़े मुर्दे उखाड़ रहे हैं। हम इण्डिया वाले इतने भी गए गुजऱे नहीं हैं जो तुम्हारी तेरहवीं वगैरह का जुगाड़ न करा सकें।। पचास करोड़ तो ऐवें ही खर्च कर दिए। ये क्या दो जोड़ी कपड़ों के लिए सईद चाचा के पास चले गए। इससे तो अच्छा था कि बांग्लादेशी शरणार्थी बनकर पहले ही यहाँ चले आते, उधर असम में अच्छा जुगाड़ था या फिऱ हमारे किसी घोटाला योजना में शामिल हो जाते। इससे डबल फ़ायदा था। जि़ंदा भी रहते और ऊपर की कमाई होती सो अलग। तुम यूं चले जाओगे किसी ने नहीं सोचा था। विपक्ष वालों ने तो बिलकुल नहीं। तुम पिछले चार  सालों से मुद्दा थे। मुद्दा क्या था बैठने के लिए आरामदेह गद्दा थे। जिसपर बैठकर आराम से दूसरों को गरियाया जा सकता था। पर अब क्या अब तो तुम चले गए। इससे तो अच्छा था कि तुम डेंगू से मर जाते। तो उस मच्छर से अफज़ल जी के लिए भी बात चलाते। लेकिन शायद  तुम दोनों एक दूजे के लिए ही बने थे। मच्छर भी शिंदे जी टाईप का देशभक्त निकला। तुम्हारे साथ पूरी वफ़ादारी दिखाई। लेकिन अगर तुम होते तो तो डेंगू का केजरीवाल मच्छर न आता। उस देशभक्त मच्छर को कम से कम अपना फेसबुक अकाउंट बनाना चाहिए था। पुलिस तुम्हें गिरफ्तार नहीं करती।।आजकल बालासाहेब जी पर स्टेटस अपडेट देख रही है। हे मराठी मानुष तुम धन्य हो। स्वर्ग में जाते ही मोर्चा संभाल लिया। अपने पीछे सबसे पहले कसाब को ही बुलवाया। मान गए जी महाराष्ट्र में ही नहीं स्वर्ग में भी तुम्हारी ही चलती है। तुम होते तो सईद चाचा के साथ मच्छर की भी पहचान करते। कम से कम सरकार क्रेडिट तो न लेने पाती। तुम्हारे जाने से मौन मोहन जी की वाट लगी हुई है। पता नहीं कौन से वाले पिछवाड़े से गए की सोनिया बहू जी को भी न पता चला। ये ऑपरेशन एक्स नाम का गोपन वाला मामला बड़ा झाम कर रहा। तुम इतनी मंहगाई में क्यूँ गए। खुद तो बिरयानी उड़ाते रहे चार साल तक।मानगो पीपुल के दिल और जेब से पूछो एक के बाद एक दीवाली मनाने में कितना खर्च आता है।और महामहिम जी पहले वाली जॉब में रहते आपने ईमानदारी नहीं दिखाई। जब कसाब की फाईल पास आई तब जाना मंहगाई क्या होती है। कसाब को निपटने के लिए ही तो प्रमोशन नहीं हुआ था आपका। ममता दीदी को भी नाराज़ कर दिया मौन मोहन जी को न सही ममता दीदी को तो बताना चाहिए था। कसाब जितना सबका था उतना दीदी का भी था। हो सकता था वो कुछ ज्यादा सस्ते में निपटा देती तुम्हें। बस नहीं था तो पाकिस्तान का। कसाब तुम्हें ऐसे नहीं जाना चाहिए था। 





                                                                                                                            -संध्या यादव




शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

डायरी


मैंने तुम्हारे लिए
कभी कोई डायरी नहीं लिखी
इस डर से नहीं कि
कोई दूसरा न पढ़ ले
बल्कि इसलिए कि डायरी
के पन्ने भरते जाएँगे
एक के बाद एक
इस तरह कई डायरियां
भर जायेंगी
पर मेरी भावनाएं
मेरा प्रेम तो
असीमित है
कैसे समेटती उसे
चंद हर्फों और पन्नों में
शायद एक वक़्त ऐसा भी
जब शब्द कम पड़ जायें
या पन्ने पलटते पलटते ]
तुम्हारी उँगलियाँ
जवाब दें जायें 
और उसे डाल दो किसी
पुरानी अलमारी में
ख़ाली वक़्त के लिए
या फ़िर किसी अनजाने डर
कि वजह बन जाए
तुम्हारे लिए
इसलिए मैंने तुम्हारे लिए
कभी कोई डायरी नहीं लिखी
इसलिए एक दिन
बिना बताये
मैंने पी लिया था
तुम्हारी धूप का टुकड़ा
और चुराया था एक अंश
और देखो एक
जीती जागती तुम्हारी
डायरी लिख रही हूँ
जो बिलकुल तुम्हारे जैसी है
बोलती और सांसे लेती हुई....................................संध्या 










गुरुवार, 22 नवंबर 2012

आखिरकार न्याय मिल गया-कसाब की गोपनीय मौत

                           -
  आज जब भारत के लोग सोकर उठे होंगे तो उन्हें इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि ऐसी खबर उनका स्वागत करेगी जिसका इंतज़ार उन्हें पिछले चार साल से था। चार सालों की लम्बी कानूनी प्रक्रिया से गुजरने के बाद 26/11 मुम्बई हमलों के आरोपी कसाब को आज सुबह पुणे की यरवदा जेल में अत्यंत गोपनीय तरीके से फांसी दे दी गयी। जैसे ही यह ख़बर लोगों में फैली पूरे देश में दीवाली जैसा माहौल हो गया। लोगों ने एक दूसरे को मिठाई बांटकर एक दूसरे को बधाई देने लगे। भारत की और से पाकिस्तान को लिखित सूचना इस बात की पहले ही दे दी गयी थी। जब पाकिस्तान ने उसे लेने से मना कर दिया तो फैक्स भी किया गया। कसाब की मां को भी उसकी मौत की सूचना दी गयी थी। उसने मरने से पहले कोई इच्छा नहीं जताई लेकिन आखिऱी शब्दों में अल्लाह से मुआफी ज़रूर मांगी थी। पाकिस्तान ने उसके शव में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और पुणे की कब्रिस्तान समिति ने भी उसकी कब्र को ज़मीन नहीं दी। उसे यरवदा जेल के भीतर ही दफऩ कर दिया गया। कसाब की मौत पर सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर भी प्रातक्रिया देने वालों का ताँता लग गया। उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में सुरक्षा कारणों से हाई अलर्ट लगा दिया गया है। उसे फांसी चढ़ाने की पूरी घटना को इतना गोपनीय रखा गया कि किसी को कानोंकान भनक तक नहीं लगी। आपरेशन एक्स के इस मिशन में सत्रह ऑफिसर्स की स्पेशल टीम बनायी गयी थी। जिनमें से पंद्रह मुम्बई पुलिस के थे। जिस वक़्त कसाब मौत की तरफ बढ़ रहा था, sसिर्फ दो को छोड़कर  पंद्रह ऑफिसर्स के फोन स्विच ऑफ़ थे।  ऐंटि-टेरर सेल के चीफ राकेश मारिया और जॉइंट कमिश्नर ऑफ पुलिस देवेन भारती को ही अपने अपने सेल फोन ऑन रखने की अनुमति थी।  सेलफोन ऑन थे। शायद इस डर से की इस बात की ख़बर बाहर तक न पहुंचे। कसाब की औचक फांसी से कुछ सवाल ज़रूर उठने लगे हैं कि आखिऱ इतने बहुचर्चित मामले को अंजाम देने में इतनी गोपनीयता क्यों बरती गयी। हालाँकि सरकार की तरफ से मीडिया को दी गयी जानकारी में बताया गया है कि  गृह मंत्रालय ने 16 अक्टूबर को राष्ट्रपति से कसाब की दया याचिका ख़ारिज करने की अपील की थी। 5 नवम्बर को राष्ट्रपति ने दया याचिका ख़ारिज कर गृह मंत्रालय को लौटा दी और 7 नवंबर को गृहमंत्री सुशील शिंदे कागजात पर हस्ताक्षर करने के बाद उन्होंने 8 नवंबर को महाराष्ट्र सरकार के पास भेज दिए थे। गृहमंत्री के अनुसार 8 तारीख को ही इस बात का फैसला ले लिया गया था कि 21 नवंबर को पुणे की यरवडा जेल में कसाब को फांसी दी जाएगी। अभी कुछ दिन पहले ही मीडिया में कसाब को डेंगू होने की ख़बर आई थी। इस बात पर मीडिया और सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर जमकर खिल्ली उड़ी थी। सवाल यह भी उठ रहे हैं कि कसाब की मौत फांसी से ही हुई है या किसी दूसरी वजह से। अभी एक दिन पहले संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा में भारत ने उस याचिका का प्रतिरोध किया था जिसमें फांसी की सजा को ख़त्म करने की मांग की गयी थी। शायद इसकी वजह भी यही थी। जिसे दो साल पहले ही कानून ने दोषी करार दे दिया था उसे अब तक जिंदा रखने का कोई तुक नजऱ नहीं आता था। पिछले चार सालों में सरकार ने उसपर पचास करोड़ खर्च करे। कसाब जब तक जिंदा था उसपर सियासत का खेल खेला गया और उसकी फांसी के बाद भी यह जारी है। सरकार इसे अपनी उपलब्धि बता रही है। कहीं वह भी तो अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा की राह पर नहीं चल रही जिन्होंने ओसामा बिन लादेन की मौत को चुनावी हथकंडा बनाया था। कहीं ये जल्दबाजी लोकसभा चुनाव के मद्देनजऱ तो नहीं थी। अगर वास्तव में ऐसा है तो उसे अब तक की नाकामी का ठीकरा अपने सिर लेना चाहिए।
कसाब की फांसी के बाद संसद हमले के आरोपी अजमल सईद को भी फांसी देने की मांग हर तरफ से उठने लगी है और उसकी दया याचिका को आगे भी बढ़ा दिया गया है जिससे उसके भाग्य का फैसला जल्द हो सके। पाकिस्तान ने बड़ी देर से इसपर बयान देते हुए कहा की वह हर तरह के आतंकवाद की निंदा करता है और सहयोग के लिए प्रतिबद्ध है। कसाब की फांसी से पाकिस्तान की जेल में बंद भारतीय नागरिक सरबजीत की मुश्किलें बढ़त गयी है। आशंका जताई जा रही है कि वह इसका बदला सरबजीत को फांसी देकर ले सकता है। मामला कुछ भी हो भारत कि न्याय प्रणाली ने पूरे विश्व में एक सन्देश दिया है।देर से ही सही  कसाब आखिऱकार अपनी नियति को प्राप्त हुआ।    
   

वो मरना नहीं चाहती थी

   वो मरना नहीं चाहती थी. वह पढ़ी-लिखी और पेशे से दन्त चिकित्सक थी. हर मां की तरह वह भी आने वाले मेहमान को लेकर खुश थी. उसे आपने बच्चे से प्यार नहीं था ऐसा नहीं कह सकते. डाक्टर्स ने उसे बताया था की बच्चे के बचने की कोई उम्मीद नहीं. फिर भी उसे मरना होगा क्योंकि धर्म या कानून के लिए इंसान की जि़ंदगी के कोई मायने नहीं.आयरलैंड में भारतीय मूल की दन्त चिकित्सक सविता हलप्पनवार की मौत ने धर्म को कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया है. क्या धर्म की दखलंदाज़ी जीवन में इतनी होनी चाहिए की  किसी की जान पर बन आये. सविता को गर्भपात की की अनुमति नहीं मिली क्योंकि उनके गर्भ में पल रहा सत्रह सप्ताह का का भ्रूण जिंदा था और कैथोलिक देश आयरलैंड में कानून के मुताबिक यह गैरकानूनी है. सविता के पति प्रवीण के मुताबिक वो लगातार गर्भपात के लिए कहती रहीं पर डाक्टर्स ने धर्म का हवाला देकर उन्हें मना कर दिया. सविता कि मौत का कारण सेप्टीसीमिया था. हालाँकि सविता ने इस बात की भी दलील दी थी कि वह भारतीय मूल की हैं और हिन्दू धर्म से हैं. आखिरकार 28 अक्टूबर को सविता ने दुनिया को अलविदा कह दिया. सविता की मौत से समूचे आयरलैंड में गर्भपात कानून पर नए सिरे से बहस शुरू हो गयी है और इसे बदलने आवाजें उठने लगी हैं. ये विडंबना है की एक मां को अपनी कोख पर कोई अधिकार नहीं है. उसे अपने बच्चे को जन्म देना है या नहीं ये धर्म तय करेगा. जब जन्म देने की पीड़ा जन्मदात्री की होती है तो यह अधिकार उसे ही होना चाहिए की उसे आपने बच्चे को जन्म देना है या नहीं. दूसरी बात यह की जो हमसे ज्यादा सभ्य होने का दंभ भरते हैं, जो विकास के खांचे में सहूलियत से फिट बैठते हैं, जिनके पेट हमसे ज्यादा भरे हुए है और जिन्होंने दुनिया के पिछड़ों को सिखाने का ठेका ले रखा है . उनकी नजऱ में हम साँपों के देश से हैं. फिर उनके देश में ऐसी घटना कैसे घटी. शायद ये पाखंडी देशों के चोंचले हैं जिनकी वजह से सविता को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा. सविता कि मौत का कारण सेप्टीसीमिया था. या ये उदारवादी देश होने का दिखावा है. ये वाही देश हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि  महिलाएं यहाँ ज़्यादा स्वतंत्र हैं.  गौरतलब है कि आयरलैंड से कई दंपत्ति अबोर्शन के लिए भारत आते हैं. इसका मतलब साफ़ है कि वहां के नागरिक भी इन कानूनों बदलाव चाहते हैं. भारत सरकार की तरफ से बस इतनी प्रतिकिया सामने आई है कि वह पूरे मामले पर नजऱ रखे हुए है. एक तरह से इस मामले में आयरलैंड के भारतीय उच्चायोग को तत्परता दिखानी चाहिए थी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.सभी को अपने अपने धर्म को मानने की आज़ादी होनी चाहिए लेकिन समस्या तब खडी होती है जब धर्म दूसरों की आज़ादी के आड़े आता है. किसी भी धर्म की सीमाएं इतनी लम्बी नहीं होनी चाहिए कि इंसान की जि़ंदगी ही उसके आगे बौनी साबित हो जाये. सविता के मामले ने इतना तो साबित कर दिया है कि भले ही यह मामला कानून या किसी धर्म से जुड़ा हो लेकिन किसी महिला के लिए हालात अब भी आदम ज़माने जैसे हैं. चाहे वह धर्म हो या समाज, महिलाओं को हमेशा दोयम दर्जे का माना गया है. महिला सशक्तिकरण के सारे प्रयास यहीं आकर दम तोड़ देते हैं. सविता की मौत से आयरलैंड में महिला अधिकारों पर नयी बहस शुरू हो गयी है. और इसे बदलने की बात की जा रही है.

सोमवार, 19 नवंबर 2012

अब्बा अपने सच कहा था कि अगर ज़िन्दगी के ज़ में नुक्ता न हो तो वो बेमतलब हो जाती है...



साल २०१० की गर्मियां, और उर्दू की कक्षा में मेरा पहला दिन. बस शौकिया तौर पर पहुंचा गयी थी उर्दू पढने लेकिन मेरे अध्यापक जिन्हें हम अब्बा कहते थे के व्यक्तित्व ने ऐसा प्रभावित किया की उर्दू से मेरा मोह बढ़ता गया. ये आपकी ही मेहनत का नतीजा था कि महज़ छह महीनों में पढ़ने के साथ साथ लिखना भी आ गया. कैसे भूल सकती हूँ कि मेरी उर्दू की लेखनी हुबहू किताबों की छपाई जैसी बनाने के लिए आपने कितने जतन किये थे. जब पांचों हिस्से पूरे कर लिए थे तो मैं थोड़ी लापरवाह हो गयी थी और आगे की किताबें लेने के लिए आप अपने  ख़राब स्वास्थ्य के बावजूद ९० की उमर में खुद ही नदवा लाइब्रेरी चले आये थे. पिछले दो साल में सारे त्यौहार हम सबने  साथ मनाये चाहे वह दीवाली हो या होली, ईद हो या बकरीद. जब मैं पिछले साल बीमार पडी थी तो हॉस्पिटल में दुआ का ताबीज़ सबसे पहले आपने ही भेजा था. आज सुबह जब आपके इंतकाल की ख़बर सुनी तो आंसुओं को बहने से रोक नहीं पायी. आपके पार्थिव शरीर के सामने खड़े खड़े वो सारे दृश्य किसी फिल्म की तरह आँखों के सामने से गुज़र रहे थे. मेरे धर्म के बारे में जितना ज्ञान है वो सब आपकी ही बदौलत है. ज़िन्दगी के सफ़र के ऐसे कई तजुर्बे जाते जाते सिखा गए जो शायद ताउम्र न सीख पाते. अब आप नहीं होंगे पर आपका दिया हुआ ताबीज़ अब भी मेरी अलमारी में रखा है...................        

चुनावी तैयारियों के मायने

          
उत्तर प्रदेश के पिछले  चुनावों में रिकार्ड मतों से विजयी होकर सरकार बनाने वाली सपा सरकार आत्मविश्वास से लबरेज नजऱ आ रही है। यह आत्मविश्वास इसी से पता चलता है कि उसने बाकी पार्टियों से एक कदम आगे रहते हुए २०१४ के लोकसभा चुनावों के लिए अपने प्रत्याशियों की पहली सूची जारी कर दी है।  कुल ८० में से ५५ सीटों के प्रत्याशियों के नामों की घोषणा कर दी गयी है।  जिनमें से वर्तमान २२ सांसदों में से १८ को फिर से उम्मीदवार बनाया गया है।  इन प्रत्याशियों में से अधिकतर पूर्व सांसद,पूर्व विधायक और कुछ वर्तमान मंत्री और विधान सभा अध्यक्ष माता प्रसाद पाण्डेय भी सम्मिलित हैं जिन्हें डुमरियागंज से प्रत्याशी घोषित किया गया है।  सपा मुखिया की बहू डिम्पल यादव कन्नौज से, भतीजे धर्मेन्द्र यादव बदायूं सीट से और स्वयं सपा प्रमुख मुलायम मैनपुरी सीट से उम्मीदवार हैं।  जबकि परिवार के नए सदस्य रामगोपाल यादव के बेटे अक्षय यादव फिरोजाबाद सीट से राजनीति  में अपना भाग्य चमकाने की तैयारी में हैं।  गौरतलब है कि फिरोजाबाद को देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पंचायत कहा जाता है।  इससे पहले डिम्पल यादव ने भी फिरोजाबाद की सीट से ही चुनाव लड़ा था पर वह कॉंग्रेस प्रत्याशी राज बब्बर से चुनाव हार गयी थीं।  अभी भी २५ प्रत्याशियों के भाग्य का फैसला होना बाकी है।  सपा की और से इसे भले ही सामान्य घोषणा बताया जा रहा हो।  लेकिन राजनीतिक रूप से इसके गहरे निहितार्थ हैं।  कांग्रेस की समन्वय समिति की बैठक के ठीक दूसरे दिन यह घोषणा की गयी है।  यह भी कहा  जा रहा है कि सपा यह मानकर चल रही है कि लोकसभा चुनाव समय से पहले होने की उम्मीद है। जिसे ध्यान में रखकर वह कोई कोर कसर बाकी नहीं रखना चाहती।  कांग्रेस का गढ़ माने जाने वाले रायबरेली और अमेठी से अभी तक किसी उम्मीदवार की घोषणा नहीं की गयी है।  उधर मुलायम  सिंह यादव भी बार बार कार्यकर्ताओं को लोकसभा चुनाव की तैयारियों में अभी से जी जान से जुट जाने का आह्वान कर रहे हैं।  बसपा जिस तरह से चुनावी तैयारियों में लगी हुई है सपा के लिए यह जरूरी हो गया था और यह भी साबित करने की कोशिश में है कि सपा लोकसभा चुनावों को हलके में बिलकुल नहीं ले रही है।  अपनी राजनीतिक ताक़त को दिखने के लिए दोनों तरफ से रैलियां भी पिछले दिनों आयोजित की जा चुकी हैं।  २००९ के लोकसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी २२ सीटों पर जीत हासिल करने  में कामयाब हुई थी।  एस पी सुप्रीमों यह भंली भांति जानते हैं अगर केंद्र पर अपनी पकड़ और मजबूत करनी है तो कम से कम सीटों की संख्या और बढ़ानी होगी।  वैसे भी सपा कॉंग्रेस के लिए केंद्र में संकट मोचक की भूमिका लगातार निभाती आ रही है।  कॉंग्रेस की तरफ से जहाँ राहुल को अगुवा बनाकर लोकसभा चुनाव लडऩे की तैयारियां चल रही है।  वहीं सपा को यह ध्यान रखना होगा कि सिफऱ् उम्मीदवारों कि घोषणा कर देने भर से वह सफल नहीं हो सकती।  चूँकि उत्तर प्रदेश पूरे देश की राजनीति का केंद्र है।  केंद्र तक का पहुँचाने का रास्ता भी यहीं से होकर जाता है।  सपा उत्तर प्रदेश की सत्ता रूढ़ पार्टी है इसका फायदा उसे उठाना होगा और यह सब तभी संभव अहै जब अखिलेश सरकार अपने किये गए वादों पर पूरी तरह से अमल करे।  जिन दावों के दम पर अखिलेश मुख्यमंत्री की सीट तक पहुँचने में सफल हुए हैं उन्हें पूरा करने में विलम्ब न किया जाये।  हालाँकि कुछ महत्त्वपूर्ण और सराहनीय फैसलों के लिए इस युवा मुख्यमंत्री की चौतरफा तारीफ भी हुई है।  हाल ही में महिलाओं के लिए शुरू की गयी हेल्प लाईन उसी का एक हिस्सा है।  लेकिन ऐसे कई कार्य अधूरे पड़े हैं जिनका संज्ञान अभी तक नहीं लिया गया है।  मसलन किसानों की समस्या।  उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी समस्या यहाँ की खऱाब कानून व्यवस्था है।  यूपी की कानून व्यवस्था दिन-ब-दिन बदतर होती जा रही है।  लोगों को न्याय के लिए इधर उधर भटकना पड़ता है।  सरकार के कुछ मंत्रियों पर कानून हाथ में  लेने के गंभीर आरोप लगते रहे हैं।  मंत्रियों की खऱाब छवि सपा को चनावों में सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा सकती है।  अगर इस पर कोई निर्णय जल्द न लिया गया तो लोकसभा चुनावों में गंभी परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।  इन सब समस्याओं को जब तक नहीं सुलझाया जायेगा, आशातीत सफलता नहीं प्राप्त हो सकती।  यूपी के मतदाताओं का दिल जीतने के लिए ज़रूरी है कि उनके लिए राहतकारी फैसले लिए जायें साथ ही साथ उन्हें पूरा करने के लिए युद्ध स्तर  पर काम किया जाये।  दूसरी बात जिस तरह से अखिलेश की ब्रांडिंग एक युवा मुख्यमंत्री के रूप में बड़े जोर शोर से की गयी थी उसके अनुरूप उनकी सरकार ऐसा कोई प्रदर्शन नहीं कर पायी है।  मुख्यमंत्री को अपने निर्णयों में भी वही तेजी और ईमानदारी लानी होगी जिससे आम जनता का विश्वास उनपर बना रहे।
                                                                           - संध्या यादव

शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

दीवाली धमाका विशेष ऑफर

                                                  
त्यौहार का सीजऩ है. दीवाली ग्लोबल त्यौहार हो चुका है. सो ऑफर भी कुछ ग्लोबल टाईप के हैं. सैंडी और नीलम के बाद एक नया तूफान एथेना लाईन में खड़ा है. तूफानी लोगों की तूफानी पसंद के लिए इस पर बम्पर छूट है. व्हाईट हॉउस की बेटियों को बॉय फ्रैंड बनाने की छूट ओबामा ने दे दी है. इस अवसर पर ग्लोबल बॉयफ्रेंड्स के लिए ये बम्पर धमाका है. पर जो लोग फेसबुक पर सक्रिय हैं उनसे ये ऑफर दूर रखा गया है. कुछ बयान बाजू नेता भी लाईन में हैं. इसलिए नहीं कि उनकी डिमांड है बल्कि इसलिए कि ये सारे अब डिफेक्टेड माल हो चुके हैं. डिफेक्टेड माल के साथ काम्बो ऑफर लेना न भूलें. कोम्बो ऑफर कि कई वैरायटी हैं. राम एक बेकार पति के रूप में, विवेकानंद के आई क्यू वाला दाउद, खुलासों वाला केजरीवाल, अरबपति वाला माल्या कंगाल और भी बहत कुछ. पर बाज़ार का रेसपांस देखकर ये लगता है कि खुलासों वाला केजरीवाल बाज़ी मार ले जायेगा.वैसे विवेकानंद के आई क्यू वाले केजरीवाल की भी खासी डिमांड है.ग्राहक इसे दीवाली के पवन अवसर पर सजावटी कंदील के रूप में खूब पसंद कर रहे. केजरीवाल स्पेशल ऑफर दीवाली के आखिरी दिन धमाल मचने पर तुला है. ग्राहकों को रिझाने के लिए जब तक है जान जैसे स्लोगन्स का सहारा लिया जा रहा है. आखिरी घंटों में खरीदारी करें और पाएं स्विस बैंक में अकाउंट बनाए का मौका बिलकुल मुफ़्त. अंबानी भाईयों के साथ अनु टंडन जी ने लपक कर इस अवसर को झटक लिया है. उधर नीतीश जी बिहार के लिए दीवाली गिफ्ट लेने के पड़ोसी देश पाकिस्तान कट लिए हैं. वहां से क्या स्पेशल लाने वाले हैं इस बात पर मोदी जी की आखें लगातार टिकी हुई हैं. उधर भारत सर्कार ने भी मैत्री भाव दिखाते हुए कहा है कि कसाब की बेहतर खातिरदारी के लिए हम प्रतिबद्ध है और इसका प्रमाण देने के लिए सारे काम धाम छोडक़र पाकिस्तानी नागरिकों की सिक्योरिटी में जी जान से जुट गयी है. ब्रिटेन की दीवाली तो इस बार एकदम चौकस मनने वाली है. उसने गिफ्ट के तौर पर भारत के आर्थिक विकास को दी जाने वाली मदद वापस ले ली है. बिग बॉस ने पारिवारिक गिफ्ट के रूप में एक नयी पोर्न स्टार को एंट्री देकर अपना दीवाली प्रॉमिस पर मुहर लगा दी है. यू पी भर की सुन्दर महिलाओं के लिए सपा प्रमुख जरा और मुलायम हो गए हैं. सुन्दर महिलाओं के लिए खास गिफ्ट तैयार किया गया है. अगले चुनाव में सभी सुन्दर टाईप की महिलाएं सपा की तरफ से चुनाव लड़ सकेंगी.पर सौंदर्य  विशेषज्ञ मान रहे हैं कि इससे सपा और मुश्किलें और भी बढ़ सक्तेद हैं. क्यूंकि बेरोजगारी भत्ते कि तरह इसमें सुन्दर महिलाओं को गच्चा नहीं दिया जा सकता. इस घोषणा के बाद अचानक से ब्यूटी पार्लर्स में भीड़ बढ़ गयी है, सुन्दरता के नए पैमाने उफना रहे है. समाजशास्त्री हैरान है. ऐसा परिवर्तन पिच्च्ले कई दशकों में नहीं देखा गया है. युवा मुख्यमंत्री ने अपने युवा कार्यकाल कि इसे सबसे बड़ी उपलब्धि घोषित कर दिया है. पर राम जेठमलानी साहब जी ने  दीवाली की सारी तैयारियों पर पानी फेरते हुए राम के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर दिया है. लोगों के सामने राष्ट्रीय संकट उत्पन्न हो गया है की आखिर किसके लौटने की खुशियों में अबके दीप जलाये जाएँ. केंद्रीय सरकार ने विशेष सतर्कता दिखाते हुए कमेटी गठित कर दी है और राष्ट्रीय युवराज लोगों की भावनाएं जानने के लिए अपने क्षेत्र के दौरे पर निकल चुके हैं.

वैधानिक चेतावनी- सभी ऑफर्स पर नियम व शर्तें लागू. बिका हुआ माल वापस लेने की स्थिति में कोई नहीं है.







 

बुधवार, 7 नवंबर 2012

इरोम की अनदेखी क्यों

भारत के सेवन सिस्टर्स कहे जाने वाले राज्यों में से एक मणिपुर की बेटी हैं इरोम शर्मिला. १४ मार्च १९७२ को जन्मी इरोम को आम लड़कियों की तरह ही थीं. लेकिन उनकी ज़िन्दगी के मायने २ नवम्बर २००२ को मालोम के बस स्टैंड पर घटी एक घटना ने बदल दिए. उस वक़्त एक सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता इरोम एक शांति रैली की तैयारी में थीं. उस दिन सेना के सशस्त्र बलों ने दस बेगुनाह लोगों की गोलियों से भूनकर हत्या कर दी. कई सारे लोगों की तरह इरोम भी उस घटना की प्रत्यक्षदर्शी थीं. लेकिन इस घटना ने इरोम इतना आहात किया की उसके अगले ही दिन ३ नवम्बर से वो सशस्त्र बल विशेसधिकार कानून के विरोध में अनशन शुरू कर दिया. ठीक उसके तीन दिनों बाद इरोम को आत्महत्या के प्रयास के जुर्म में सरकार ने गिरफ्तार कर लिया. तब से आज तक इरोम साल भर में सिर्फ तीन चार दिनों के लिए बाहर आती हैं और फिर से जेल में डाल दी जाती हैं. इरोम चानू शर्मिला की व्यथा भले ही दिल्ली में बैठी सरकारें या देशवासी न समझते हों पर जवाहर लाल नेहरु अस्पताल में  टेंट से बना वो वार्ड बारह सालों से इरोम की दृढ़ इक्छाशक्ति का गवाह रहा रहा है जहाँ उन्हें पिछले बारह सालों से नाक से जबरन तरल पदार्थ ठूंसा जा रहे हैं जिससे वे मर न सकें. इरोम के का ये अनशन दुनिया का सबसे लम्बे समय तक चलने वाला अनशन है लेकिन उनका नाम कहीं नहीं दर्ज है. कुछ ऑनलाइन वेब साईट्स को छोड़ कर मुख्यधारा के किसी भी मीडिया संस्थान को इरोम के इस संघर्ष में कोई दिलचस्पी नहीं है.  बात ये नहीं कि हम किस तरह के भविष्य कि और अग्रसर होंगे ऐसे अनशनों से. यहाँ मसला ये है कि क्या हम इतने संवेदनहीन समाज में रहते हैं कि यहाँ किसी कि नहीं सुनी जाती. यह सच है कि इरोम कि जो मांगे हैं अगर उन्हें मांग लिया जाये तो भारत की अखंडता खतरे में पड़ जाएगी. बारह सालों से चले आ रहे इस अनशन की अनदेखी कर के हम किस भविष्य की और बढ़ रहे है? क्या इससे अशांति नहीं बढ़ रही..क्या सरकारों को नहीं जैसे ही यह मुद्दा उठा था संज्ञान में नहीं लेना चाहिए था... अगर ऐसा करती तो ये बात इतनी संवेदनशील न होने पाती...ये सच है की अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता लेकिन सनद रहे इरोम भी अकेली है और बारह साल से अकेली जिसने भारत सरकार सहित सेना की साख पर भी बट्टा लगा दिया है.. कुछ लोगों के ये तर्क हो सकते हैं की सेना की वजह से देश सुरक्षित है....बोर्डर पर शहीद जवानों की सुध कोई नहीं लेता...वगैरह वगैरह...मैं सेना की कर्तव्यनिष्ठ पर कोई प्रश्नचिंह नहीं लगा रही लेकिन सिर्फ कुछ घटनाएं सरे किये कराये पर पानी फेर देती हैं.जैसा की पूर्वोत्तर में हुआ...मैं सिर्फ इतना कहना चाहती की हम ऐसे किसी भी मुद्दे खासकर सेना की ज्यादती से जुड़े मुद्दों की अनदेखी बिलकुल न करें. सेना को देश की सुरक्षा के लिए तैनात किया गया है महिलाओं और बेकसूरों के साथ बदसलूकी के लिए नहीं...आपसी बात से हमने बड़े बड़े मुद्दे हल किये हैं...और एक बात मुम्बई हमलों में पकिस्तान की भूमिका पता होने के बाद भी हम उनसे गलबहियां करने को उताव्लें हैं तो फिर क्यों अपने ही देश की एक नागरिक के साथ ऐसा सुलूक किया जा रहा है..कम से कम उसे सुना तो जाये. इरोम की मांग नाजायज़ हो सकती पर एक महिला और इंसान होने के नाते उसे सुनना होगा.......................

गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

अभी दूर की कौड़ी है सुलभ शौचालय

ऑस्कर विजेता फिल्म स्लमडॉग मिलेनियर का वो दृश्य तो याद होगा न जिसका एक बाल कलाकार अमिताभ बच्चन का ऑटोग्राफ पाने के लिए संडास के गड्ढे में कूद जाता है. भारत की इस छवि ने उसे ऑस्कर का स्वाद चखा दिया. इस सम्मानित बेईज्ज़ती के बाद भी हमने कोई सबक नहीं लिया और हालात जस के तस बने हुए हैं. इनक्रेडिबल इण्डिया के किसी भी कोने में आप यात्रा कर रहे हों कुछ दृश्य आपको एक जैसे देखने को मिलेंगे. किसी भी रेलवे स्टेशन पर कसमसाती, बेहाल भीड़, दिमाग की नसें तंग कर देने वाला शोर, कबाड़ बीनता भारत का तथाकथित भविष्य और निःसंदेह पटरियों पर बिखरा मल, इन सबसे साबक़ा पड़ते ही एक नए तरह के भारत की तस्वीर उभरती है. किसी भी ग्रामीण क्षेत्र में अँधेरा बढ़ते ही लोटा लिए शौच को जाती महिलाओं का रेला दिखना आम बात है. केंद्रीय ग्रामीण विकास और पेयजल एवं स्वच्छता मंत्री जयराम रमेश ने फिर से एक बयान दिया है कि अगर 'शौचालय नहीं तो दुल्हन नहीं'.  इससे पहले भी शौचालयों की मंदिरों से तुलना करने पर वे विवादों में फंस गए थे. इससे पहले भी एक रिपोर्ट आई थी जिसमें कहा गया था की भारत में शौचालयों से कहीं ज्यादा सेल फोन्स की संख्या है. यही नहीं यूनिसेफ की एक हालिया रिपोर्ट कहती है कि दुनियाभर में १.२ बिलियन लोग जो शौचालय का प्रयोग नहीं करते उनमें से ६६५ करोड़ सिर्फ भारत से हैं और लगभग ५५% की आबादी शौचालय की सुविधा से महरूम है. दक्षिण एशिया की प्रमुख आर्थिक शक्ति की कतार में खड़े देश के लिए ये शर्म का विषय होना चाहिए कि उसकी आधी असे ज्यादा आबादी मूलभूत सुविधाओं से वंचित है. लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं की सूची में सेल फोन शामिल हो गया है ये बात तो समझ है पर निवृत्त होने जैसी मूलभूत जरूरत बदल गयी हो ऐसा नहीं हो सकता. सरकारें भले ही लोगों इसका ठीकरा लोगों पर फोडती आ रही हों लेकिन सच तो यही है कि शौचालय से ज्यादा सस्ते में उन्हें फोन उपलब्ध हैं. शहरी और कस्बाई इलाकों के हालत तो और भी गंभीर हैं. ख़राब सीवरेज सिस्टम हालत और भी बदतर कर देता है. सीवरों का गन्दा पानी  नदियों के प्रदूषित होने का एक बड़ा कारण है और इसे ढंग से उपचारित किये बिना ही घरों में सप्लाई  कर दिया जाता है. पानी से जनित रोग डायरिया का सबसे ज्यादा शिकार पांच साल कि उम्र के बच्चे होते हैं जिनकी संख्या लगभग ५,३५००० है. ग्रामीण इलाकों में आज भी दस्त से मौत का शिकार होने वाले नवजातों की संख्या आंकड़ों से कहीं ज्यादा है. देखा जाये तो खुले में शौच की समस्या से सबसे ज्यादा महिलाओं को दो-चार होना पड़ता है. जैसा कि स्त्री हमेशा से ही समाज के हाशिये पर रही है शायद इसी वजह से हमारे ग्रामीण समाज में खुले में निवृत्त होना कोई समस्या नहीं है. उत्तर प्रदेश के विष्णुपुर की प्रियंका ने इस मामले में हिम्मत दिखाई और अपने पति के घर जाने से इसलिए मना कर दिया क्योंकि वहां शौचालय की सुविधा नहीं थी लेकिन प्रियंका जैसी हिम्मत हर कोई नहीं दिखा पाता.
शौचालय का मुद्दा महिलाओं कि सुरक्षा से भी जुडा हुआ है. ऐसे कई मामले सामने आये हैं जब बच्चियां शौच के लिए जाते समय बलात्कार जैसी घटनाओं का शिकार हुई हैं. दूर दराज़ के इलाकों में लड़कियां इसलिए सरकारी स्कूलों में पढने नहीं जाती क्यूंकि वहां टॉयलेट की सुविधा नहीं है. यही नहीं मैला साफ़ करने वाले सफाई कर्मचारियों को आज भी समाज में हेयदृष्टि से देखा जाता है. रेलवे तक इस तरह के मानव उत्पीडन का जिम्मेदार है. सरकार और निति नियंता भी इस समस्या पर ढुलमुल रवैया अपनाये हुए हैं. सहस्त्रब्ती विकास लक्ष्य के एजेंडे में शामिल इस समस्या का हल अभी तक नहीं ढूँढा जा सका है. सिर्फ बयानबाजी करने से किसी समस्या का हल नहीं निकलने वाला. कम से कम हमें दृढ इक्छाशक्ति तो दिखानी ही होगी. 
बड़ा डर लागे है आजकल जी. एक दुकान पर लिखा देखा था यहाँ कान से सुनने की मशीन मिलती है. दिमाग  भन्ना गया एकदम कि भाया अगर ये कान से सुनने की मशीन बेंच रहे हैं तो अब तक हम सुनने के लिये किसका प्रयोग करते आ रहे थे. वो तो भला हो तुरंत खबरिया चैनल का जिससे पता चला बैसाखी की जगह हियरिंग मशीन थमा दी गयी है. अबतक लोग भले ही बैसाखी से चला करते हों पर आगे से कान से सुनने वाली मशीन से चला करियेगा. एक नेताईन जी के ट्रस्ट का स्पेशल प्रोडक्ट है. ऑस्ट्रिया के फेलिक्स भाई साहब ने अंतरिक्ष से नये तरीके की छलांग लगाई है. हिम्मत हो तो हियरिंग मशीन से चलकर दिखावें. अव्वल दर्ज़े के एडवेन्चरस काम तो इंडिया में ही होते हैं. हमारी ना मानो तो राष्‍ट्रीय दामाद जी से पूछो. सोना डार्लिंग को तो छोड़ो रॉबर्ट तक बताने को तैयार नहीं कि कितना माल था. ये काम अपने ट्रस्ट वाले गुर्गे और दूसरे खास लोगों को जरूर सौंपा है. दामाद नाम के जीव की अचानक टीआरपी बढ़ गयी है. पूजा पाठ के मौसम में खासी डिमांड रहने वाली है. कुछ कंपनियों ने मौका ताड़कर राष्ट्रीय दामाद नाम के प्रोडक्ट भी बाज़ार में उतार दिए हैं. आम आदमी के झोले में मैंगो और बनाना के साथ राष्ट्रीय दामाद का भी बोझ बढ़ गया है. वो टूजी वाला और बत्तीस पैसे वाला एडवेन्चर तो पुराना हो गया. कोलगेट वाला थोड़ा ताज़ा है. इंडिया गेट, चाइना गेट सब फीके पड जायें. कोल गेट से बड़े बड़े सफेदपोश बेदाग निकल गये. काजल की कोठरी में भयंकर वाले सयाने घुसे और चौंका देने वाली सफेदी के साथ बाहर निकले. एक नया लड़ाका पानी पी पीकर पीछे पड़ा हुआ है. बिल्कुल भकौवां बनकर डरा रहा है. नेता लोगों की सांस इस लड़ाके के खुलासों में अटक गयी है. बडबोला टाईप का ये लड़ाका अपनी टीम से सस्पेंड किया जा चुका है. अपने कैप्टन की टोपी पहनता है. खबर है कि पॉलिटिक्स में अपने लिए स्पेस का जुगाडमेंट कर रहा है. नये तरीके का एडवेन्चर चलन में है. खांटी दुकानदार की तरह ट्रस्ट एक बार सेवा का अवसर मांग रही है. तो आप सब क्या कहते हैं?

सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

नारी शक्ति आज के सन्दर्भ में

                    
                                                                                                                                                                                                                                     
बात दो महीने से ज्यादा पुरानी नहीं है. मेरे गाँव के पड़ोस में लगने वाली मवेशियों की बाज़ार में सबसे मंहगा मवेशी नब्बे हज़ार में बिका था और संयोग से ठीक उसी समय गाँव का एक अधेड़ अपने लिए महज़ तीस हज़ार में जीवनसंगिनी खरीद कर लाया था. उस वक़्त मुझे लगा था कि ये महज़ इत्तेफाक है लेकिन आज जब कुछ ऐसी ही आदिवासी लड़कियों से जुडी खबर एक वेबसाईट पर तो पूरे देश में लड़कियों की जो हालत है वो समझते देर न लगी. एक और खबर सभी मीडिया चैनलों पर बड़े जोर शोर से उठाई जा रही है. हरियाणा के जींद में एक दलित लडक़ी ने दुष्कर्म के बाद आत्महत्या कर ली थी और दोषियों को सजा दिलाने के नाम पर हरियाणा सरकार के ढुलमुल रवैये की चौतरफा आलोचना के बाद कांग्रेस प्रमुख सोनिया भी उनके बचाव में उतर आई हैं. उनका तो यहाँ तक कहना है की रेप तो पूरे देश में हो रहे हैं. आखिर उनके इस बयां का क्या मतलब निकाला जाए. माफ़ कीजियेगा यह आपके लिए हो सकता है कि गर्व की बात हो पर किसी भी सभ्य समाज के लिए ये राष्ट्रीय शर्म का विषय होना चाहिए, जहाँ की खाप पंचायतें लड़कियों को बलात्कार से बचने के लिए उनकी जल्द शादी कर देने जैसे सुझाव देती हो, जहाँ तमाम तरह के कानूनों को धता बताकर एक महिला को उल्टा लटकाकर अमानवीय यातनाएं दी जाती है और समाज की सुरक्षा के नाम पर सरकारी तनख्वाहें डकारने वाले लोग खड़े खड़े तमाशा देखते हों.   हरियाणा की कांग्रेस सरकार पिछले एक महीने के दौरान डेढ़ दर्जन से ज्यादा हो चुकी दुष्कर्म की घटनाओं के बाद तमाम महिला संगठनों और अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग की नजऱों में चढ़ चुकी है. ये कुछ घटनाएं बानगी भर हैं. यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता.....का जुमला सदियों से नारी महिमा का बखान करने के लिए सुनते सुनते आ रहे हैं. भारतीय संस्कृति खासतौर से हिन्दू धर्मं में नारी को समाज का आधार माना गया है. नवरात्र के नव दिनों में हम स्त्री के नव रूपों की पूजा करते नहीं अघाते. शक्ति स्वरूपा को खुश करने के लिए घंटे, घडिय़ाल, नैवद्य और न जाने क्या क्या चढाते हैं. इन नौ दिनों में नारी के इस दैवीय स्वरुप की खूब पूजा होती है. महिलाओं पर अत्याचार से सम्बंधित दुनिया भर की घटनाओं, स्वयंसेवी संस्थाओं यहाँ तक कि एक दिन पहले तक मालूम उन सभी घटनाओं को भूलकर बस इन नौ दिनों तक गौर कीजिये, क्या ऐसा कोई अखबार या न्यूज़ चैनल बाकी बचा जिसमें महिलाओं पर हिंसा, दुष्कर्म अथवा मारपीट से जुडी खबरें न आई हो. हम सदियों से चली आ रही परम्पराओं का बोझ ढोने में माहिर है लेकिन एक बार ठिठक कर ये सोचने की ज़हमत नहीं उठाते कि आखिर किस बेताल को अपनी पीठ पर बेमतलब ढोये जा रहे हैं. कितने ही लोग हैं जो मंदिर में देवी के आगे झुकाते है और उसी उल्टे पांव घर आकर घर की महिलाओं पर हाथ साफ़ करने से बाज़ नहीं आते होगे. इन सब बातों के विरोध में कुछ लोग ये दलील से सकते हैं कि भारत के ही केरल जैसे राज्यों में मातृसत्ता है  जहाँ स्त्रियों से वंश चलता है लेकिन एक राज्य के आधार पर पूरे देश की स्त्रियों की हालत का अंदाज़ा लगाना कहाँ तक उचित है.वो भी ऐसे देश में जिसके बारे में कहा जाता जाता है कि यहाँ एक कोस पर पानी और चार कोस पर भाषा बदल जाती है. सिर्फ भारत ही क्या दुनिया भर की ख़ासतौर से मुस्लिम देशो की महिलाओं की खस्ताहालत किसी से छिपी नहीं है. हाल ही में तालिबान से अकेले दम पर लोहा लेने वाली चदः साल की मलाला को गोली से मारने की कोशिश की गयी. अफगानिस्तान में ऐसा कितनी ही बार हुआ हो चुका है जब लड़कियों को घर की चहारदीवारी से निकलकर स्कूल का रुख करने पर स्कूल में पीने के पानी में ज़हर दिया गया. ट्रेन और सार्वजनिक स्थलों पर छेडख़ानी तो आम बात हो चली है. खास तबके का बुद्धिजीवी वर्ग ही ऐसी हरकतों में शामिल होता है इसका नज़ारा भी पूरे भारत ने तब देखा  जब एक आईएएस अफसर ने ट्रेन में अपनी मां के साथ सफऱ कर रही एक लडक़ी के साथ छेडख़ानी की. मामला सुर्ख़ियों में आने पर प्रशासन ने ट्रेनों और सार्वजनिक स्थानों पर महिला कमांडो की तैनाती की बात कह पल्ला झाड लिया पर अगर प्रसाशन के कान वास्तव में सुन सकते तो ये फैसला करने से पहले उस घटना पर जरूर विचार करते जब एक महिला पुलिसकर्मी पर भीड़ ने हमला किया था.  अपनी कमियों से पिंड छुडाने के लिए अक्सर ये कहा जाता है कि अब समय बदल रहा है और सुनीता विलियम्स और इंदिरा नूयी जैसी महिलाएं इसका सुबूत हैं. सनद रहे कि ये कुछ चेहरे भर हैं जिनकी गिनती हम अपनी उँगलियों पर कर सकते है.ये प्रतीक भर है जो किसी महिला सशक्तीकरण वाली  मैगजीन के मुखपृष्ठ की शोभा बढ़ा सकते हैं. वास्तविक स्थिति बिल्कल इससे उलट है. जिसका अंदाजा हम चंद ख़बरों और कागज़ी आंकड़ों के दम पर नहीं लगा सकते. अब महिलाओं को भी ये मान लेना चाहिए कि कोई फ़ोर्स, कानून या सरकार सुरक्षा नहीं मुहैया करा सकती. किसी भी तरह की हिंसा की शिकार होने पर दूसरो की मदद की बात जोहने के बजाय डटकर सामना करो. आत्महत्या से बेहतर है कि लड़ते हुए मर जाना. यकीन मानों तुम्हारा एक साहस भरा कदम हजारों लड़कियों के लिए प्रेरणा बन जायेगा. महिलाओं को खुद अपनी सुरक्षा के लिए तैयार रहना चाहिए और इसकी शुरुआत आपके बचपन से होगी जब तुम खिलौने के ढेर से सिर्फ गुडिया चुनने से इनकार कर दोगी. विकल्प ढेर सारे हैं आखिर जीवन आपका है.     
                                                                                                                              - संध्या 

सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

नया लहू...

हम सपनों को खाते पीते
उमीदों के बिछौने लगाते हैं
आसमान को गले बांध
मौत से पेंच लड़ाते हैं
हम फक्कड़ से अपनी ही धुन में
मारे मारे फिरते हैं  
अरमानों के राजकुंवर  हम
रंक सरीखे दिखते हैं
जीवन की रस्सी पर
नटनी जैसे चलते हैं
जोश जहाँ पे हाथ बढ़ा दे
डेरे वहीं जमाते हैं
बेफिक्री से मुस्काते हैं
जब ड्योढ़ी पे बैठे काका हमको
नए लहू का कहते हैं

एक हाथ में चाँद लिए
सूरज को दिया दिखाते हैं
ग़ुरबत के अखाड़े में हम
बस जीत के मुक्के जड़ते हैं
ठोकर खाते हैं, गिरते हैं
गिरके फिर संभलते हैं
धूल झटककर नाकामी की
नए सिरे से उड़ान के अपनी
कलपुर्जे कसते हैं
माटी भी हैं, सोना भी हम   
जो ताप चढ़े से निखरता है
महक-लहक से जाते हैं
जब ड्योढ़ी पे बैठे काका हमको
नए लहू का कहते हैं

यारों के संग अड्डेबाजी
तीरथ यात्रा लगती है
कौर छीन कर खाएं जो
काशी-काबा लगते हैं
जान लड़ा दें उनकी ख़ातिर
ग़र खुशियों पे पंचायत लगे कहीं
अपने टोले की गलियां हमको
लन्दन पेरिस लगती हैं
तंग गली की वो खिड़की जब
इक लड़की के चेहरे सी खुलती है
पंख मेरे बन कोई संग- संग उड़ता है
वो आवारा सा लड़का तब
सबसे भलो लगता है
गुज़रे हुए ज़माने से हम
पंजे खूब लड़ाते हैं
सर्द हवा में गोते खाते हैं
जब ड्योढ़ी पे बैठे काका हमको
नए लहू का कहते हैं

थाम मशालें चल दें तो
धरते हिचकोले खाती है
जुट जायें जो किसी चौक पे
सारथी क्रांति के बन जाते हैं
हमारी चंद लकीरों से
सिंहासन हिलने लगते हैं
अपने धरम के मुल्ला हैं हम
प्रेम का जनेऊ चढ़ाते हैं
वक़्त के साथ दौड़ने को हम
जमकर एड़ लगाते हैं
हंसी ख़ुशी अपने हिस्से का
देश उठाते है
जब ड्योढ़ी पे बैठे काका हमको
नए लहू का कहते हैं                                       -संध्या
 

बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

आओ परखें गांधी को



                                           

कहते हैं खुद को वक्त की कसौटी पर तौलते रहना चाहिए जिससे पता चलता रहे कि कौन कितने पानी में हैं। चूँकि हम भारतीयों में गर्व करने वाला सिंड्रोम बाकियों की अपेक्षा ज्यादा होता है इसीलिए ख्याल आया की क्यूँ न अपने गाँधी जी में कितना वजऩ बाकी है परख लें। अभी हाल ही में अमेरिका के राष्ट्रपति ने गाँधी जी को फिर से याद किया है। म्यांमार की लोकप्रिय नेता सू की ने माना है कि गाँधी उन्हें प्रेरणा देते रहते हैं।अफ्रीका तो गाँधी जी का दूसरा घर रहा है।छोटा बच्चे के लिए गांधी नोटों पर छपे एक शख्स  हैं। युवाओं के लिए गांधी वो हैं जो किसी फिल्म में हीरो का ह्रदय परिवर्तन कर देते है। बुजुर्गों के लिए गांधी नास्टेल्जिया हैं। राजनीति में गाँधी एक एजेंडा हैं। अगर कुछ यूं कहें कि गांधी वह व्यक्तित्व है जो साल दर साल नए रूप धारण कर अपनी चमक बिखेरता है, ऐसा विचार है जिसे जिस बर्तन में डालो उसी का आकार ग्रहण कर लेता है और ये अहिंसा नाम की उस धातु से बना है जिसके लचीलेपन का कोई जवाब नहीं। जिसका जन्म तो ज्ञात है पर मृत्यु को लेकर संशय बरकऱार है जो आज भी जिंदा है। गांधी हमारी आजादी के निहत्थे योद्धा हैं। किसी के लिए गाँधी संत हैं,तो किसी के लिए महात्मा, गाँधी अहिंसा के पुजारी हैं, गाँधी चश्मा और खद्दरधारी हैं। रीढ़ से लचीला लेकिन सिद्धांतों के मामले में बेहद जिद्दी एक ऐसा आदमी जिसे कुछ प्रतीकों भर से पहचाना जा सकता है जिसे हर धर्म चहीता था फिर भी जीवन के अंतिम वक्त में जिनके मुंह से राम ही निकला था और इण्डिया के लिए गाँधी ब्रांड बन चुके हैं। कई बार दुविधा खड़ी हो जाती है कि गांधी हमारे हैं या हम गांधी के हैं। शायद आज गांधी हमारे लिए हथियार हैं कि सुनों हम गांधी के देश से हैं हमारी भी सुनो। इस महात्मा की प्रासंगिकता पर अक्सर बहसें होती हैं।इनके सिद्धांतों की शल्य क्रिया करना हमारा प्रिय शगल बन चुका है। इन्हीं के तरकश का एक तीर था जो आजकल अनशन के नाम से जाना जाता है जिसके बहाने हम कई निशाने साधते आये हैं। इन दिनों हमने अपनी सुविधानुसार गांधी का नवीनीकरण कर लिया है। कुछ साल पहले गांधी अपना बापू बन गए थे। आजकल जंतर मंतर पर डेरा जमाये हुए हैं। इस नए रूप में ढलने का काम अन्ना नामक उनके तथाकथित भक्त ने किया है। इस तरह से गांधी की एक और उपयोगिता सामने आई है। वे पब्लिसिटी स्टंट भी हो सकते हैं। जरा दिमाग पर जोर डालिए और सोचिये गांधी कहाँ-कहाँ विराजमान हैं। क्या आत्महत्या करते किसी किसान में, तहरीर चौक पे, म्यांमार की उस कोठरी में जहाँ अपनी आधी जि़ंदगी एक नेता ने नजऱबंदी में गुज़ार दी, किसी पांच सितारा होटल के पीछे बसी उन झुग्गियों में जो चाँद पे दाग सरीखी नजऱ आती हैं या फिर सिर्फ उस गाँधी टोपी में जो कभी-कभी मजबूरी में नजऱ आती है हमारे सिरों पर? बात सोचने वाली है जनाब आखिर गांधी नाम की सरकार है इस देश में। गाँधी हमारे बापू हैं, राष्ट्रपिता हैं। नोटों पर मुस्कुराते गांधी पर ही हमारे देश की अर्थव्यवस्था टिकी है।          -संध्या     

बुधवार, 12 सितंबर 2012

वर्चुअल सोसाईटी -कितने दूर कितने पास



सुबह नींद खुलने पर न्यूज़पेपर और एक कप चाय के साथ अब एक और काम बेहद ज़रूरी हो गया है. मोबाईल फ़ोन के एस एम एस, ई मैसेजेस चेक करना लगभग कंप्यूटर साक्षर की दिनचर्या में शामिल है. पर सबसे ज्यादा उतावलापन उन प्रतिक्रियाओं को लेकर रहता है जिन्हें रात के भोर पहर तक फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर अपडेट किया जाता है. उस वर्चुअल विचार को कितने वर्चुअल लायिक्स मिले हैं और कितने डिसलायिक्स मिले हैं किसने क्या कमेन्ट किया और कितने वर्चुअल लोगों ने आपका समर्थन किया.. अगर ये सब चेक न करें तो दिन अधूरा सा लगता है. इसे कुछ यूं भी कह सकते हैं की ये एक तरह का नशा है जो हमें नए उदित होते समाज का बोध कराता है , एक ऐसा समाज जो तुरंत प्रतिक्रिया दिलाऊ है.चौबीसों घंटे जागरूक है.मतलब बेमतलब की हर बात पर प्रतिकृया देने को उतारू है.ये वर्चुअल जागरूकता रखता हा, इसमें वर्चुअल जोश है. कुल मिलाकर इसकी भावनाएं, गुस्सा सब वर्चुअल है. ये उभरता मीडिया पारंपरिक मीडिया के साथ उन सभी को सबको चुनौती दे रहा है जो बंधी बंधाई अभिव्यक्ति की स्वंत्रता में विश्वास रखते हैं. हर व्यक्ति के लिए यहाँ स्पेस है, फिर चाहे वो जिस धर्म का हो देश का हो या रंग का. वास्तव में मार्शल मैक्लुहान की वैश्विक गाँव की संज्ञा को सोशल मीडिया ने सच कर दिखाया है. यहाँ हर व्यक्ति संवाददाता है. उसका अपना मीडिया है.जब चाहे सूचनाओं पर प्रतिक्रिया दे सकता है और अगर किसी से सहमत न हो तो अपना घर साफ़ रखने की आजादी भी उसे देता है. ये तहरीर चौक का सूत्रधार रहा है और भारत में अन्ना आन्दोलन की जान. अभी हाल ही में ममता दीदी, मनमोहन सिंह और सोनिया के कार्टून्स को भी उसी प्रेम भाव से अपनाया था. यहाँ तक तो सब ठीक था पर असोम हिंसा ने एक नयी बहस को जन्म दे दिया है. सोशल मीडिया पर कुछ संदेशों और वीडियोज को तोड़ मरोडक़र कर डाला गया जिसके फलस्वरूप देशभर में रह रहे पूर्वोत्तर के लोगों में दहशत फ़ैल गयी और बड़ी संख्या में वे अपने घरों को लौटने लगे. देश भर में जगह जगह हिंसा की वारदातें हुईं. सरकार ने इन सबके लिए सोशल मीडिया को जिम्मेवार ठहराया और 300 वेबसाईट्स को नोटिस भेज दिया. बालक एसएमएस को लगभग पंद्रह दिनों बैन कर दिया गया. सरकार का तर्क था की देश की आतंरिक शांति को बनाये रखने के लिए ऐसा करना जरूरी था. इसके उलट बुद्धजीवियों का तबका इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला कहा. दोनों अपनी अपनी जगह सही हो सकते हैं पर कुछ पहलु यहाँ ऐसे हैं जिन पर गौर करना जरूरी है. पहला तो यह कि अगर मान लिया जाये कि क्या वाकई में  सोशल मीडिया  ही इन सबके लिए पूरी तरह से जिम्मेदार था? और अगर ऐसा ही था तो सरकारें आये आईएसआई दिन होनेवाले दंगों और आतंकी हमलों को क्यूँ नहीं रोक लेती. सारा दोष सोशल मीडिया और के मत्थे मढक़र सरकार अपने नकारेपन पर पर्दा नहीं डाल सकती.असोम की समस्या कुछ दिनों में उपजी समस्या नहीं है जो भी इसके बारे में थोड़ी सी भी जानकारी रखते हैं वो साफ़ बता सकते हैं की किस तरह वोट की  राजनीति हमारे  देश का बेडा गर्क करती आ रही है. इसके साथ साथ हमें यह भी तय करना होगा कि चीन की तरह ऐसे प्रतिबंधों को लागने के लिए हम तैयार हैं?  लोक्तान्तान्रिक देश में यक़ीनन ऐसे दमघोंटू कदमों को कभी स्वीकृति नहीं मिल सकेगी. दरसल ख़ामी सुरक्षा तैयारियों में है और रही बात सोशल नेटवर्किंग साईट्स को प्रतिबंधित करने की तो इसे भी दूसरी तरह के मीडिया जैसे आत्म नियमन पर छोड़ देना चाहिए. ये सच है की वर्चुअल मीडिया पर आत्म नियम कितना काम करेगा यह अंदाज़ा ठीक ठीक नहीं लगाया जा सकता.पर यह भी उतना ही सच है की यहाँ ऐसे लोग, सामाजिक संगठन भी सक्रिय है जो ऐसी अफवाहों का डटकर सामना कर रहे हैं और देश की अखंडता के लिए प्रतिबद्ध हैं. प्रतिबन्ध लगाने के बजाय अपने किले को मज़बूत करना ज्यादा समझदारी होगी क्योंकि वर्चुअल मीडिया भारत में अभी अपने शैशवकाल में है और इस पर इस तरह की .

सोमवार, 18 जून 2012

prempatra

जब मोहब्बत की निशानी ताजमहल
और चीन की दीवार जैसे
बेजान आश्चर्यों को बनाते हुए
मारे गए थे जिंदा लोग
और कुछ के काट दिए गए थे हाथ
उन सबके नाम
मैंने लिखा था एक प्रेम पत्र
मानचित्रों में बनती धरती
पनडुब्बियों से नपा समंदर
मिसाईलों - उपग्रहों से हथियाए
गए आकाश गए नाम पर
जब मशीनों से विकसित कुछ देशों के
मानव रहित विमान अमादा हैं
पूरी सभ्यता के खात्मे को
इन जंगों में बहे खून और पसीने के नाम
मैंने लिखा था एक प्रेम पत्र
जो धूप में निकलने पर
हो जाते हैं लाल
गुस्से से पीले पड़ते है
ठण्ड में गुलाबी
डर से सफ़ेद और
जब किसी अश्वेत को 'कलर्ड' कहते समय
ये गिरगिट से रंग बदलते
हो जाते हैं रंगहीन
उन सब काले लोगों के नाम
मैंने लिखा था एक प्रेम पत्र
कभी सत्ता के नाम पर
चौक पर चल जाते हैं बुलडोज़र
और परिवर्तन की मांग करती
आवाजें दब जाती हैं
हड्डियों की चरमराहट तले
धर्म के नाम पर
भड़का दिए जायेंगे दंगे
किसी गैस त्रासदी में सो जायेंगे
पूरे शहर के शहर
उन सामूहिक कब्रों के नाम
मैंने लिखा था एक प्रेम-पत्र --------------------------------------------------संध्या
























































शनिवार, 16 जून 2012

मेधावियों के सपने न चढ़ें राजनीती की बलि



प्राइमरी स्कूल की बदहाल  स्थिति- उत्तर प्रदेश मे प्राइमरी स्कूल के नाम पर जो तस्वीर हमारे ज़ेहन में उभरती है वो कोई बहुत अच्छी नहीं है।
सेन्सस 2०11 के आंकड़ों की माने तो इस समय प्रदेश में कुल १०7452 गांवों सहित 866361 प्राइमरी स्कूल हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के एक बयान के अनुसार प्रदेश लगभग पौने दो लाख शिक्षकों की कमी से जूझ रहा है। अगर सिर्फ प्राइमरी स्कूलों का ये हाल है तो गांवों में पढने वाले ये नौनिहाल किसके भरोसे हैं और शिक्षा के नाम पर हम उन्हें आखिर क्या दे रहे है? इनमें से महज़ 59त्नमें बाउंडरी वाल है, 15त्न में बिजली की व्यवस्था है और भगवान् जाने कितने समय के लिए ये बिजली दर्शन देती होगी? जिन बच्चों को बारहवीं पास करने पर लैपटॉप के तकनीकी सपने (मुआफ कीजियेगा सपने कभी तकनीकी नहीं होते पर हमारी सरकारें पांच साल के गुणा-भाग के बाद ये तय करती हैं कि वोट पाने के लिए कौन सा झांसा काम करेगा) दिखाए जा रहे है उन स्कूलों में कुल 3.1त्न कंप्यूटर सेंटर हैं। इन स्कूलों की हालत ऐसी है जहाँ लड़कियों के लिए टॉयलेट तक की व्यवस्था नहीं है। गुरु जी अक्सर गप्पे लड़ते या जाड़ों में मास्टरनी जी स्वेटर बुनते हुए पत्रकारों के कैमरे में कैद हो जाती हैं। मिड डे मील जैसी परियोजनाएं भी यहाँ शिक्षा का स्तर नहीं सुधार पाई हैंैं। जो किताबें बच्चों के लिए भेजी जाती है कई बार कबाड़ में धूल फांकती नजऱ आती हैं। हम आज भी यह कहते नहीं अघाते कि भारत गांवों में बसता है। जब आधे से ज्यादा भारत गांवों में रहता है तो ज़ाहिर है कि लगभग इतने ही बच्चे जो आगे चलकर इण्डिया को शाईन करेंगे इन्हीं गाँवो के प्राइमरी स्कूलों से पढक़र निकलेंगे।
प्राईमरी स्कूलों ने दिए हैं समाज को आदर्श-इन  प्राइमरी स्कूलों में बच्चों को सीखने का प्राकृतिक व स्वाभाविक वातावरण मिलता है जो इनके अन्दर की प्रतिभा को उभारने में इनकी मदद करता है और इनके व्यक्तित्व का विकास किसी बहुमंजिला ईमारत की कक्षाओं में न होकर आस पास की चीज़ों से होता हो जो उसे समाज से मिलती हैं। अगर प्रशिक्षित व ईमानदार अध्यापकों  का साथ मिले तो हर बच्चे में कोई वैज्ञानिक छिपा मिल। दुनिया में सबसे ज्यादा इंजीनियर्स का उत्पादन करने के बाद भी आज हम क्यों छोटे -छोटे मशीनी पुर्जों के लिए जापान और चीन का मुंह ताकते है। दुनिया को जीरो देने वाला भारत आज अविष्कारों के मामले में जीरो है।  विदेशी नक़ल करते हुए हमने तमाम संस्थान खोल डाले पर किसी को भी उस स्तर तक नहीं पहुंचा सके जहाँ कभी इलाहाबाद विश्वविद्यालय, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी हुआ करते थे। जिन सरकारी स्कूलों को उपेक्षा की नजऱों से देखा जाता है। वर्तमान में जिनके बारे में ये मानकर चलते हैं कि यहाँ से पढ़ी आखें बड़े सपने नहीं देखती। लड़कियां बस मायके को पाती लिखने भर का और लडक़े रुपयों का हिसाब लगाने भर का ज्ञान हासिल कर सकते है उन्हीं सरकारी स्कूलों ने समाज को राह दिखने वाले आदर्श और देश का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्तित्व दिए हैं। लाल बहादुर शास्त्री हों या कलाम साहब सभी सरकारी स्कूल से ही पढक़र विश्वपटल पर छा गए थे। ऐसे एक दो नहीं बहुत से नाम हैं। नयी शिक्षा प्रणाली बेशक देश को बेजान इमारतें गढऩे वाले  बड़े- बड़े इंजीनियर और नामी कंपनियों के प्रोडक्ट बेचने वाले सीओ तो दे सकती है पर समाज को राह दिखने वाले वे व्यक्तित्व नहीं दे सकती जो आने वाली पीढिय़ों के लिए आदर्श बन जायें। कई लोग ये तर्क भी दे सकते हैं कि आजका युवा ऐसे ही आदर्शों के पीछे भागता है पर कडवा सच यही है कि हम उनमें वो बीज ही नहीं बो पा रहे जो उन्हें समाज के प्रति जिम्मेदार बनाएं। 
भारत और इण्डिया तो नहीं बना रही ये शिक्षा प्रणाली-एक तरफ शहरी चमक-दमक में पली बढ़ी संतानें सर्व सुविधा संपन्न विद्यालयों में पढ़-बढ़ कर देश में एक विशिष्टï अभिजात्य वर्ग बनाती है, दूसरी ओर कई लाख बच्चे स्कूलों का मुंह तक नहीं देख पाते या फिर आठवीं के बाद घर का कमाऊ हाथ बन जाते हैं। तो कुछ के सपनों के आड़े छात्रवृत्ति आ जाती है। वे प्रतिभा होते हुए भी दूर खड़े होकर कोंवेन्ट स्कूलों में पढ़े बच्चों के लिए तालियाँ बजाते हैं।
अमीर और गरीब के बीच बढती खाई वाला हिसाब यहाँ भी फिट बैठता है। ये विडंबना है कि इन स्कूलों में ज़्यादातर बच्चे मेहनतकश और गरीब तबकों से आते हैं पर  समाज और वातावरण के प्रति उनके मन की जिज्ञासाओं को शांत करने वाले योग्य अध्यापक उन्हें नहीं मिल पाते।          भारत के हर नुक्कड़ पर आपको कोई छोटू बर्तन मांजता,जूते पोलिश करता, जून की खादी दोपहरी में पानी बेचता मिल जायेगा जो बस नाम का छोटू है। कहीं न कहीं ये साजिश लगती है जो देश को दो तरह के नागरिकों में बाँट देना चाहती है जिसके एक वर्ग को पढ़े लिखे अदृश्य गुलामों की जरुरत है जो टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलकर उन्हें चाय सर्व करे, सब्जी खरीद सके और दरबान बन सके। क्या इन स्कूलों में पढ़े बच्चे मंहगे स्कूलों में पढ़े बच्चों के आगे कहीं टिक पायेंगे। शिक्षा के नाम पर राजनीती कितनी सही- देश की राजनीती उस संक्रमण काल से गुजऱ रही है जहाँ देश,आदर्श और हितों से ऊपर राजनीती है। शिक्षा के नाम पर लापरवाही और इसका राजनीतिकरण सिर्फ समाज के लिए ही नहीं बल्कि देश के लिए भी घातक सिद्ध होगा।अगर यही चलताऊ रवैया रहा तो समाज काम या जाति के आधार पर नहीं बल्कि सरकारी और प्राइमरी या स्कूलों की हैसियत के हिसाब से बँट जायेगा और जो जैसे स्कूल में पढ़ा होगा उसे वही दजऱ्ा हासिल होगा। होना तो ये चाहिए कि शिक्षा के क्षेत्र में किसी भी सकारात्मक बदलाव के लिए राज्य की सरकारें सभी भेदभाव भुलाकर एक साथ काम करें और कम से कम इसे आरक्षण जैसे पैंतरों से मुक्त रखें। प्रतिभा चाहे जिस राज्य की हो, क्षेत्र या प्रदेश से हो सम्मान पूरे देश में मिले उसकी राह में भाषा या जाति संबंधी बाधाएं न आयें। राजनीति की बलि मेधावियों के सपने न चढ़ें।      
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गुरुवार, 14 जून 2012

पिटरोलवा बड़ा सतावेला

                                               
लगभग दो हफ्ते से देश की जनता पेट्रोलमय है। जैसे कॉँग्रेस राहुलमय और भाजपा मोदीमय रहा करती है। बॉलीवुड की सारी हीरोइनों को छोडक़र पेट्रोल सबसे हॉट बना हुआ है, सबसे सेक्सी जिसे देखकर ही कुछ नहीं बल्कि बहुत कुछ करने का मन करता है। जनता बेचारी अब तक बम धमाकों, रेल दुर्घटनाओं और भगदड़ों से मरा करती थी पर अब पेट्रोल के दामों से मरती है। अगर अलादीन का चिराग मिल जावे तो उससे टैंकर दो टैंकर पेट्रोल मांग लेवें। पिटरोल से जउन हाय तौबा मची है थोड़े दिनों में उससे कुछ ऐसे सीन बनेंगे-
                                                                 हॉस्पिटल मरीजों से भरा पड़ा है। जहाँ हर किसी को सर्दी खांसी के बजाय पेट्रोमेनिया हुआ है। रोग विशेषज्ञ के रूप में पेट्रोल मंत्री खासतौर से दिल्ली से चल चुके हैं। दवाइयों की जगह पेट्रोल की दो-दो बूँदें और क्रिटिकल केसेज में पेट्रोल के इंजेक्शन सधे मरीज की नसों में ठोंके जा रहे हैं। घरो में डकैतियां अचानक से बढ़ गयी हैं। डाकू लल्लन घोड़े पर मोटरसायकिल लादकर आया है और सोने-चांदी की जगह पेट्रोल लूटकर ले जा रहा है। इधर मंजनुओं की तो समझो वाट लग गयी है। लैला गिफ्ट  में पेट्रोल के जरी केन, यार्डले की परफ्यूम की जगह बोतल भर पेट्रोल और डेट के लिए किसी पेट्रोल संग्रहालय चलने की जिद पर अड़ी हुई है। तेल कंपनियों के साथ सरकार पेट्रोल की चुस्कियां ले रही है। बच्चे खिलौने के बजाय पेट्रोल से चलने वाली गाडिय़ाँ मांग रहे हैं। घरों में गंगाजल की जगह अब पेट्रोल ने ले ली है। मानसरोवर और कैलाश की यात्रा पर जाने वाले श्रद्घालुओं ने बड़ी सफाई से भगवन को ठेंगा दिखाकर खाड़ी देशों की तीरथ यात्रा पर चल पड़े हैं। कहावतें भी बदल गयी हैं। लोग चूल्लुभर पानी की जगह चुल्लूभर पेट्रोल में डूब मरने को उतावले हैं। अमेरिका ईरान को उतने ही पैर पसारने की धमकी दे रहा जितना उसके पास है पेट्रोल। बच्चे स्कूल में पी फार पैरट के स्थान पर पेट्रोल पढ़ रहे हैं। जब बच्चे झगड़ते हैं तो आपस में कुछ ऐसे दम दिखाते हैं-अले बे मेले को जानता नहीं। मेले पापा नेता हैं। दूसरा- तो मे कौन सा कम हूँ तेले से, मेले पापा पुलिस में हैं झूठे केस में अंदल करवा देंगे। तीसरा-बस कलो तुम दोनों जो मेले पापा के पास है वो तुम दोनों के पापा के पास नहीं है। मेले पापा के पास पेट्रोल पम्प है। सोसाइटी की मॉडर्न लेडीज की किट्टी पार्टियों के नज़ारे भी बदल गए हैं। एक दूसरे की गाडिय़ों और गहनों की जगह पेट्रोल पर पंचौरा हो रहा है। मिसेज खन्ना मिसेज भाटिया से कुछ यूं सवाल करती हैं-सुना है आपके दो- दो पेट्रोल पम्प हैं। हमारे इनको जऱा डिस्काउंट दिलवा दीजिये अपने उनसे कहकर और तो और केबीसी के विजेता को पांच करोड़ की जगह पांच लीटर पेट्रोल दिया गया है। भ्रष्टाचार और काले धन पर अप्रत्याशित रूप से रोक लग जाने के कारण अन्ना और बाबा रामदेव की दुकानदारी पर बट्टा लग गया है। लोग-बाग़ भी घूस देने के लिए रुपये की जगह पेट्रोल प्रिफऱ कर रहे हैं। बैंकों ने नयी स्कीम चला दी है। अब रूपये और गहनों के साथ पेट्रोल भी बैंक में जमा किया जा सकेगा। पर्यावरणविद भौंचक्के हैं। लोगों ने अपने पेट्रोलचालित वाहनों में सायकिल के पैडल लगवा लिए हैं। हीरो होंडा हो या हार्ले डेविडसन, मर्सिडीज हो या फेरारी सब पैडल मार-मारकर चलायी जा रही हैं। जऱा कल्पना कीजिये राजपथ पे सारी गाडिय़ाँ सायकिल के पैडल से चल रही हो तो समानता का कैसा मनोहारी दृश्य उत्पन्न होगा। उधर बॉलीवुड में भी पेट्रोल चल निकला है। फिल्म इशकजादे के बाद पेट्रोलजादे, पेट्रोलघाट और पेट्रोल के लुटेरे बन रही हैं। भोजपुरी फिल्मों के नाम कुछ ऐसे रखे जा रहे हैं- पेट्रोलवा बाबू आई लब यू, पिटरोलवा पे मनवा डोले,पिटरोलवा बड़ा सतावेला, दिल ले गईल पिटरोल पम्प वाली और निरहुवा के पिटरोल रोग भईल ते गज़ब की कमाई करे रहिल।  मां बेटे की बलइयां लेते हुए कहती है मेरे पिटरोल जैसे बेटे की नजऱ लगे और बेटा हो तो पिटरोल जैसा।
                                                 पेट्रोल महिमा देखकर हम भी सोच रहे कि अपनी वसीयत लगे हाथ बनवा लें।  यदि मंहगाई की वजह से मेरा ऊपर का टिकट कटता है तो अंतिम संस्कार में मिलावटी घी और लकडिय़ों की जगह पेट्रोल डालकर फूंका जाये। माना कि हम जैसे पापी रोज़-रोज़ जनम नहीं लेते पर फिर भी खून के आंसू रोने के बजाय पेट्रोल के आंसू रोना। जब प्राणपखेरू होने को हों तो विषैले गंगाजल की जगह कुछ बूंदे पेट्रोल की मुंह में डाल दी जायें हम तर जायेंगे।