मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

ख्वाब देखते हुए
मैंने तय किया था
उड़ान भरकर जिंदा रहेंगे
बेजान पर
और निर्जीव बना लूंगी इन
जिंदा पैरों को
ताकि बैठ सकूँ मैं  
बिजली के तारों पर
महसूस करूँ उन
दरख्तों का खुरदुरापन
जो साक्षी हैं सृजन के
और जब आकाश की
गहराइयों में गोते लगाते-लगाते
यदि थक जाऊं
तो उतर सकूँ
यथार्थ के  पथरीले धरातल पर
साथी! आसान नहीं
मगर फिर भी
प्रण किया था
अपने ही जिस्म के एक
हिस्से को निर्जीव बनाने का
ताकि बचा ले जाऊं
बाकि को ज़ख़्मी होने से
पर देखो
घृणा न करना
परख नहीं गर इनको
कोमल एहसासों की
क्योंकि जब पंख उड़ान भरेंगे
फिर से सपनों की
तिनका ये निर्जीव ही थामेंगे                                                                       -संध्या   
नाराज़ होने का वक़्त ही कहाँ मिला?
गोया उम्र गुजर गयी उनको मनाने में


आँखों को सोये एक अरसा हुआ
ज़िम्मा पलकों का हुआ थपकियाँ दिलाने का


होंठ खुलते भी तो कैसे पत्थरों की इबादत को
हाथों को आदत हुयी जिंदा बस्तियां जलाने की


हार मान मैंने सफर में  मगर शर्त है राही
कांटे पांव के न झुककर निकाले जायें                                                  -संध्या