मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

आधी आबादी का सच


लखनऊ। 17 अप्रैल को मोहनलालगंज के अतरौली गाँव में घर के सामने खड़ंजे पर पगली (विक्षिप्त महिला) ने फूल जैसी बच्ची को जन्म दिया।  करीब दस साल पहले दिमागी संतुलन खऱाब हुआ तो उसने अपनी ससुराल छोड़ दी। विक्षिप्त अवस्था में आने के बाद ........ (यहाँ पर मैंने समाचार पत्रों में प्रयोग होने वाले शब्द दरिंदा, वहशी आदि का प्रयोग जानबूझ कर नहीं किया क्योंकि ये सब भी हमारे समाज का ही हिस्सा हैं और समाज को ये कहना शायद कई लोग पचा न पाएं) ने उसके साथ दुराचार किया। वह इससे पहले भी दो बेटों को जन्म दे चुकी है। एक बेटा अहिमामऊ व दूसरा नगराम में एक रिश्तेदार के पास है। गदियाना गाँव में ब्याही इस पीडि़ता के पति से तीन बच्चे भी हैं पर अफ़सोस सबने उसे ये दिन देखने के लिए छोड़ दिया।
19अप्रैल को सुलतानपुर में एक पिता ने अपनी सात माह की दुधमुंही बच्ची को पटक कर मार डाला।
हाल ही में इलाहाबाद के ममफोर्डगंज बाल निराश्रित गृह में बच्चियों के साथ वहीं  के कर्मचारियों ने दुराचार किया।
इसी तरह लखनऊ में ही एक पिता ने अपनी पुत्री की गला दबाकर हत्या कर दी क्योंकि लडक़ी गूंगी थी और उसके साथ दुराचार करने वालों का नाम बता पाने में असमर्थ थी।
20अप्रैल को ग्वालियर में चार बहनों ने अपने पिता के खिलाफ थाने में रिपोर्ट दर्ज करायी है कि उसके पिता उन्हें बार-बार बेचने की धमकी देते हैं।
20अप्रैल को ही गुडग़ाँव में एक व्यक्ति ने अपनी दो बेटियों सहित पत्नी का क़त्ल कर दिया फिर खुद को भी फंासी लगा ली। कारण नौकरीशुदा बीवी के चरित्र पर शक। 
18अप्रैल को बाराबंकी में एक पिता ने पुत्र के साथ मिलकर अपनी बेटी को मौत के घाट उतार दिया।
यही नहीं गुजरात में एक महिला ने बेटे की चाहत में अपनी ही बेटी को अपनाने से इंकार कर दिया।
20अप्रैल को पुरानी दिल्ली के लाहौरी गेट के रहने वाले जावेद तारिक ने अपनी बीवी इफ्तहयात को ज़हर दे दिया। उसका कुसूर बस इतना था कि उसने बेटी को जन्म दिया था। ये वही बड़े दिलवालों की दिल्ली है जहाँ की मुख्यमंत्री, देश को चलाने वाली सत्ताधारी पार्टी की अध्यक्ष, राष्टï्रपति और विपक्ष की कद्दावर नेता भी एक महिला हैं।  
                                                         ये घटनाएं महज़ बानगी भर हैं। अधिकतर हमारी संस्कृति के पुरोधा ये मानते हैं पश्चिमी सभ्यता औरतों को सम्मान नहीं देती।  ये घटनाएं हमारे उस सभ्य समाज की ‘जहाँ यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता’ का गुणगान गाया जाता है। ये श्लोक मनुस्मृति से लिया गया है यानि किजहाँ नारियों की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं। मनु स्मृति का ये श्लोक नारियों की पूजा की बात करता है तो हाँ बिल्कुल! हमारी संस्कृतिस्त्रियों की पूजा करती है। ये वही संस्कृति है जहाँ पैंतीस साल के आदमी की आठ साल की लडक़ी के साथ करवाना जायज़ ठहराती है, हाँ ये वही संस्कृति है जहाँ ये कहा जाता है कि रजस्वला होने पर यदि लडक़ी मां-बाप के घर रहे तो माता-पिता नर्क के भागीदार होते है और इसमें भी कोई शक नहीं कि ये वही संस्कृति है जिसमें  वेदों को पढऩे का अधिकार स्त्रियों को नहीं दिया गया था सिर्फ पुराण सुनने का अधिकार दिया गया था। आधुनिक काल तक जिस संस्कृति की सोच ये थी यदि स्त्रियों ने पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त कर ली तो वे विधवा हो जाएँगी और पति को अपने काबू में रखेंगी। जब भ्रूण हत्या प्रचलन में न थी यदि मान लिया जाये कि तब सौ में से पैंतालिस प्रतिशत महिलाएं थीं उनमें से बस यही तीन नाम लोपामुद्रा, घोषा,मैत्रेयी और अपाला मुख्य रूप से आते हैं जबकि ऋषि मुनियों के खाते में  बहुतेरे वेद पुराण आते हैं। जहाँ की आधी आबादी में से केवल तीन या चार नाम निकलते हैं। तो कल्पना कीजिये उस माली के लगाये सौ पौधों में से यदि सिर्फ तीन में फूल आते हैं तो माली बहुत अच्छा है या वो तीन जिन्होंने अपने संघर्ष से सब हासिल किया।  श्रेय किसे दिया जाए? जहाँ अहिंसा परमो धर्म है और इंसानियत व दान पुण्य के किस्से स्वर्ग नरक तय करते हैं उस देश में महिलाओं की हालत का अंदाजा आप सहज लगा सकते हैं।  मैं किसी नारीवादी की तरह सारा दोष पुरुषों पर नहीं मढऩा चाहती बल्कि दोष तो हमारी समाज व्यवस्था और ढोंगी संस्कृति का है। वह संस्कृति जिसमें सूर्यदेवता कुंती को दान स्वरूप कर्ण जैसा तेजस्वी योद्धा देते हैं, गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के रूप पर मोहित होकर इन्द्र छद्मवेश का मायाजाल रचते है, फिर अहिल्या गौतम ऋषि के श्राप से पत्थर बन जाती है और उद्धार के लिए मर्यादापुरुषोत्तम राम आते हैं, जिनकी खुद की पत्नी सीता को अग्नि परीक्षा के बावजूद महल छोडऩा पड़ता है। जहाँ स्त्री की कोख की उर्वरता को तो पूजा जाता है पर उसकी कोख को उस कटोरे से कम नहीं आँका जाता जिसके भरने और खाली होने में ज्यादा फर्क नहीं किया जाता। इस भारत भूमि पर उगे हर धर्म का सार इंसानियत है। यहाँ इंसानियत के नाते सडक़ पर बच्चा देती गाय के लिए ट्रैफिक जाम हो सकता है पर किसी पगली औरत पर किसी का ध्यान नहीं जाता जो साल-दर -साल तीन बच्चों की माँ सडक़ पर बनी हो। शायद यहाँ औरत को सिर्फ मादा समझा जाता है। हमारे समाज में सभ्यता के पैमाने कपड़ों से तय किये जाते हैं। मैं ये नहीं कहती कि औरतें सिर्फ छोटे कपड़े पहनेें या फिर शराब या सिगरेट पीना शुरू कर दें लेकिन यदि बराबरी की बात छिड़े तो फिर सब पर लागू हो। यदि जींस या छोटे कपड़े पहनने से अश्लीलता को बढ़ावा मिलता है तो फिर उन पुरुषों को क्या कहा जायेगा जो कभी भी कहीं भी खड़े होकर निपट लेते हैं। औरतों के ऊपर मान-मर्यादा की लिजलिजी केंचुली किस कदर चढ़ा दी गयी हैं इसका नमूना हमारे समाचार-पत्रों के उस शीर्षक से पता चलता है जिसमें चार बच्चों की माँ प्रेमी संग फरार हो जाती है। कहने को तो अमृता प्रीतम जैसी स्त्रियों को भी ये समाज पचा नहीं पता जिन्होंने साहिर और इमरोज़ के साथ अपने संबंधों को समाज के सामने स्वीकार किया।  एक आम शादीशुदा महिला प्रेमी संग फरार ही हो सकती है। आम तौर पर ये खबरें कभी संज्ञान में नहीं आतीं कि चार बच्चों का बाप फरार। यहंा एक मां पुत्र की लालसा में अपनी ही बेटी को अपनाने से इनकार कर दे और बच्ची सात दिन तक भूखी  रहती है। यदि जानवरों के बच्चों के साथ भी थोड़ा समय बिताया जाए तो लगाव हो जाता है तो फिर बच्चियों को मार देने वाले किस श्रेणी में आते हैं ये आप सब तय करिए? सिर्फ दो धड़ों में बंटा हमारा समाज तीसरे रास्ते के लिए आसानी से तैयार नहीं दिखता। होना तो चाहिए कि ऐसे लोगों का सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाये जिन्होंने कभी दहेज़ लिया हो या अपनी बहू की हत्या की  हो या गर्भ में पलने वाली अजन्मी बच्ची को मारा हो। क्योंकि जब तक सामाजिक बहिष्कार नहीं होता तब तक ऐसे लोगों को सबक नहीं  सिखाया जा सकता। अगर ऐसी घटनाओं को रोकना है तो हमें संस्कारों की पाठशाला अपने घर से शुरू करनी होगी। सिर्फ बेटी को बचाव के तरीके सिखाने से काम नहीं चलेगा। बेटों को भी वो संस्कार देने होंगे। नारीवादी सिर्फ महिलाएं ही क्यूँ होती हैं नारीवादी पुरुष बनने से अगर कोई बदलाव नजऱ आता है तो इसमें हजऱ् क्या है?

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