सोमवार, 18 जून 2012

prempatra

जब मोहब्बत की निशानी ताजमहल
और चीन की दीवार जैसे
बेजान आश्चर्यों को बनाते हुए
मारे गए थे जिंदा लोग
और कुछ के काट दिए गए थे हाथ
उन सबके नाम
मैंने लिखा था एक प्रेम पत्र
मानचित्रों में बनती धरती
पनडुब्बियों से नपा समंदर
मिसाईलों - उपग्रहों से हथियाए
गए आकाश गए नाम पर
जब मशीनों से विकसित कुछ देशों के
मानव रहित विमान अमादा हैं
पूरी सभ्यता के खात्मे को
इन जंगों में बहे खून और पसीने के नाम
मैंने लिखा था एक प्रेम पत्र
जो धूप में निकलने पर
हो जाते हैं लाल
गुस्से से पीले पड़ते है
ठण्ड में गुलाबी
डर से सफ़ेद और
जब किसी अश्वेत को 'कलर्ड' कहते समय
ये गिरगिट से रंग बदलते
हो जाते हैं रंगहीन
उन सब काले लोगों के नाम
मैंने लिखा था एक प्रेम पत्र
कभी सत्ता के नाम पर
चौक पर चल जाते हैं बुलडोज़र
और परिवर्तन की मांग करती
आवाजें दब जाती हैं
हड्डियों की चरमराहट तले
धर्म के नाम पर
भड़का दिए जायेंगे दंगे
किसी गैस त्रासदी में सो जायेंगे
पूरे शहर के शहर
उन सामूहिक कब्रों के नाम
मैंने लिखा था एक प्रेम-पत्र --------------------------------------------------संध्या
























































शनिवार, 16 जून 2012

मेधावियों के सपने न चढ़ें राजनीती की बलि



प्राइमरी स्कूल की बदहाल  स्थिति- उत्तर प्रदेश मे प्राइमरी स्कूल के नाम पर जो तस्वीर हमारे ज़ेहन में उभरती है वो कोई बहुत अच्छी नहीं है।
सेन्सस 2०11 के आंकड़ों की माने तो इस समय प्रदेश में कुल १०7452 गांवों सहित 866361 प्राइमरी स्कूल हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के एक बयान के अनुसार प्रदेश लगभग पौने दो लाख शिक्षकों की कमी से जूझ रहा है। अगर सिर्फ प्राइमरी स्कूलों का ये हाल है तो गांवों में पढने वाले ये नौनिहाल किसके भरोसे हैं और शिक्षा के नाम पर हम उन्हें आखिर क्या दे रहे है? इनमें से महज़ 59त्नमें बाउंडरी वाल है, 15त्न में बिजली की व्यवस्था है और भगवान् जाने कितने समय के लिए ये बिजली दर्शन देती होगी? जिन बच्चों को बारहवीं पास करने पर लैपटॉप के तकनीकी सपने (मुआफ कीजियेगा सपने कभी तकनीकी नहीं होते पर हमारी सरकारें पांच साल के गुणा-भाग के बाद ये तय करती हैं कि वोट पाने के लिए कौन सा झांसा काम करेगा) दिखाए जा रहे है उन स्कूलों में कुल 3.1त्न कंप्यूटर सेंटर हैं। इन स्कूलों की हालत ऐसी है जहाँ लड़कियों के लिए टॉयलेट तक की व्यवस्था नहीं है। गुरु जी अक्सर गप्पे लड़ते या जाड़ों में मास्टरनी जी स्वेटर बुनते हुए पत्रकारों के कैमरे में कैद हो जाती हैं। मिड डे मील जैसी परियोजनाएं भी यहाँ शिक्षा का स्तर नहीं सुधार पाई हैंैं। जो किताबें बच्चों के लिए भेजी जाती है कई बार कबाड़ में धूल फांकती नजऱ आती हैं। हम आज भी यह कहते नहीं अघाते कि भारत गांवों में बसता है। जब आधे से ज्यादा भारत गांवों में रहता है तो ज़ाहिर है कि लगभग इतने ही बच्चे जो आगे चलकर इण्डिया को शाईन करेंगे इन्हीं गाँवो के प्राइमरी स्कूलों से पढक़र निकलेंगे।
प्राईमरी स्कूलों ने दिए हैं समाज को आदर्श-इन  प्राइमरी स्कूलों में बच्चों को सीखने का प्राकृतिक व स्वाभाविक वातावरण मिलता है जो इनके अन्दर की प्रतिभा को उभारने में इनकी मदद करता है और इनके व्यक्तित्व का विकास किसी बहुमंजिला ईमारत की कक्षाओं में न होकर आस पास की चीज़ों से होता हो जो उसे समाज से मिलती हैं। अगर प्रशिक्षित व ईमानदार अध्यापकों  का साथ मिले तो हर बच्चे में कोई वैज्ञानिक छिपा मिल। दुनिया में सबसे ज्यादा इंजीनियर्स का उत्पादन करने के बाद भी आज हम क्यों छोटे -छोटे मशीनी पुर्जों के लिए जापान और चीन का मुंह ताकते है। दुनिया को जीरो देने वाला भारत आज अविष्कारों के मामले में जीरो है।  विदेशी नक़ल करते हुए हमने तमाम संस्थान खोल डाले पर किसी को भी उस स्तर तक नहीं पहुंचा सके जहाँ कभी इलाहाबाद विश्वविद्यालय, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी हुआ करते थे। जिन सरकारी स्कूलों को उपेक्षा की नजऱों से देखा जाता है। वर्तमान में जिनके बारे में ये मानकर चलते हैं कि यहाँ से पढ़ी आखें बड़े सपने नहीं देखती। लड़कियां बस मायके को पाती लिखने भर का और लडक़े रुपयों का हिसाब लगाने भर का ज्ञान हासिल कर सकते है उन्हीं सरकारी स्कूलों ने समाज को राह दिखने वाले आदर्श और देश का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्तित्व दिए हैं। लाल बहादुर शास्त्री हों या कलाम साहब सभी सरकारी स्कूल से ही पढक़र विश्वपटल पर छा गए थे। ऐसे एक दो नहीं बहुत से नाम हैं। नयी शिक्षा प्रणाली बेशक देश को बेजान इमारतें गढऩे वाले  बड़े- बड़े इंजीनियर और नामी कंपनियों के प्रोडक्ट बेचने वाले सीओ तो दे सकती है पर समाज को राह दिखने वाले वे व्यक्तित्व नहीं दे सकती जो आने वाली पीढिय़ों के लिए आदर्श बन जायें। कई लोग ये तर्क भी दे सकते हैं कि आजका युवा ऐसे ही आदर्शों के पीछे भागता है पर कडवा सच यही है कि हम उनमें वो बीज ही नहीं बो पा रहे जो उन्हें समाज के प्रति जिम्मेदार बनाएं। 
भारत और इण्डिया तो नहीं बना रही ये शिक्षा प्रणाली-एक तरफ शहरी चमक-दमक में पली बढ़ी संतानें सर्व सुविधा संपन्न विद्यालयों में पढ़-बढ़ कर देश में एक विशिष्टï अभिजात्य वर्ग बनाती है, दूसरी ओर कई लाख बच्चे स्कूलों का मुंह तक नहीं देख पाते या फिर आठवीं के बाद घर का कमाऊ हाथ बन जाते हैं। तो कुछ के सपनों के आड़े छात्रवृत्ति आ जाती है। वे प्रतिभा होते हुए भी दूर खड़े होकर कोंवेन्ट स्कूलों में पढ़े बच्चों के लिए तालियाँ बजाते हैं।
अमीर और गरीब के बीच बढती खाई वाला हिसाब यहाँ भी फिट बैठता है। ये विडंबना है कि इन स्कूलों में ज़्यादातर बच्चे मेहनतकश और गरीब तबकों से आते हैं पर  समाज और वातावरण के प्रति उनके मन की जिज्ञासाओं को शांत करने वाले योग्य अध्यापक उन्हें नहीं मिल पाते।          भारत के हर नुक्कड़ पर आपको कोई छोटू बर्तन मांजता,जूते पोलिश करता, जून की खादी दोपहरी में पानी बेचता मिल जायेगा जो बस नाम का छोटू है। कहीं न कहीं ये साजिश लगती है जो देश को दो तरह के नागरिकों में बाँट देना चाहती है जिसके एक वर्ग को पढ़े लिखे अदृश्य गुलामों की जरुरत है जो टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलकर उन्हें चाय सर्व करे, सब्जी खरीद सके और दरबान बन सके। क्या इन स्कूलों में पढ़े बच्चे मंहगे स्कूलों में पढ़े बच्चों के आगे कहीं टिक पायेंगे। शिक्षा के नाम पर राजनीती कितनी सही- देश की राजनीती उस संक्रमण काल से गुजऱ रही है जहाँ देश,आदर्श और हितों से ऊपर राजनीती है। शिक्षा के नाम पर लापरवाही और इसका राजनीतिकरण सिर्फ समाज के लिए ही नहीं बल्कि देश के लिए भी घातक सिद्ध होगा।अगर यही चलताऊ रवैया रहा तो समाज काम या जाति के आधार पर नहीं बल्कि सरकारी और प्राइमरी या स्कूलों की हैसियत के हिसाब से बँट जायेगा और जो जैसे स्कूल में पढ़ा होगा उसे वही दजऱ्ा हासिल होगा। होना तो ये चाहिए कि शिक्षा के क्षेत्र में किसी भी सकारात्मक बदलाव के लिए राज्य की सरकारें सभी भेदभाव भुलाकर एक साथ काम करें और कम से कम इसे आरक्षण जैसे पैंतरों से मुक्त रखें। प्रतिभा चाहे जिस राज्य की हो, क्षेत्र या प्रदेश से हो सम्मान पूरे देश में मिले उसकी राह में भाषा या जाति संबंधी बाधाएं न आयें। राजनीति की बलि मेधावियों के सपने न चढ़ें।      
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गुरुवार, 14 जून 2012

पिटरोलवा बड़ा सतावेला

                                               
लगभग दो हफ्ते से देश की जनता पेट्रोलमय है। जैसे कॉँग्रेस राहुलमय और भाजपा मोदीमय रहा करती है। बॉलीवुड की सारी हीरोइनों को छोडक़र पेट्रोल सबसे हॉट बना हुआ है, सबसे सेक्सी जिसे देखकर ही कुछ नहीं बल्कि बहुत कुछ करने का मन करता है। जनता बेचारी अब तक बम धमाकों, रेल दुर्घटनाओं और भगदड़ों से मरा करती थी पर अब पेट्रोल के दामों से मरती है। अगर अलादीन का चिराग मिल जावे तो उससे टैंकर दो टैंकर पेट्रोल मांग लेवें। पिटरोल से जउन हाय तौबा मची है थोड़े दिनों में उससे कुछ ऐसे सीन बनेंगे-
                                                                 हॉस्पिटल मरीजों से भरा पड़ा है। जहाँ हर किसी को सर्दी खांसी के बजाय पेट्रोमेनिया हुआ है। रोग विशेषज्ञ के रूप में पेट्रोल मंत्री खासतौर से दिल्ली से चल चुके हैं। दवाइयों की जगह पेट्रोल की दो-दो बूँदें और क्रिटिकल केसेज में पेट्रोल के इंजेक्शन सधे मरीज की नसों में ठोंके जा रहे हैं। घरो में डकैतियां अचानक से बढ़ गयी हैं। डाकू लल्लन घोड़े पर मोटरसायकिल लादकर आया है और सोने-चांदी की जगह पेट्रोल लूटकर ले जा रहा है। इधर मंजनुओं की तो समझो वाट लग गयी है। लैला गिफ्ट  में पेट्रोल के जरी केन, यार्डले की परफ्यूम की जगह बोतल भर पेट्रोल और डेट के लिए किसी पेट्रोल संग्रहालय चलने की जिद पर अड़ी हुई है। तेल कंपनियों के साथ सरकार पेट्रोल की चुस्कियां ले रही है। बच्चे खिलौने के बजाय पेट्रोल से चलने वाली गाडिय़ाँ मांग रहे हैं। घरों में गंगाजल की जगह अब पेट्रोल ने ले ली है। मानसरोवर और कैलाश की यात्रा पर जाने वाले श्रद्घालुओं ने बड़ी सफाई से भगवन को ठेंगा दिखाकर खाड़ी देशों की तीरथ यात्रा पर चल पड़े हैं। कहावतें भी बदल गयी हैं। लोग चूल्लुभर पानी की जगह चुल्लूभर पेट्रोल में डूब मरने को उतावले हैं। अमेरिका ईरान को उतने ही पैर पसारने की धमकी दे रहा जितना उसके पास है पेट्रोल। बच्चे स्कूल में पी फार पैरट के स्थान पर पेट्रोल पढ़ रहे हैं। जब बच्चे झगड़ते हैं तो आपस में कुछ ऐसे दम दिखाते हैं-अले बे मेले को जानता नहीं। मेले पापा नेता हैं। दूसरा- तो मे कौन सा कम हूँ तेले से, मेले पापा पुलिस में हैं झूठे केस में अंदल करवा देंगे। तीसरा-बस कलो तुम दोनों जो मेले पापा के पास है वो तुम दोनों के पापा के पास नहीं है। मेले पापा के पास पेट्रोल पम्प है। सोसाइटी की मॉडर्न लेडीज की किट्टी पार्टियों के नज़ारे भी बदल गए हैं। एक दूसरे की गाडिय़ों और गहनों की जगह पेट्रोल पर पंचौरा हो रहा है। मिसेज खन्ना मिसेज भाटिया से कुछ यूं सवाल करती हैं-सुना है आपके दो- दो पेट्रोल पम्प हैं। हमारे इनको जऱा डिस्काउंट दिलवा दीजिये अपने उनसे कहकर और तो और केबीसी के विजेता को पांच करोड़ की जगह पांच लीटर पेट्रोल दिया गया है। भ्रष्टाचार और काले धन पर अप्रत्याशित रूप से रोक लग जाने के कारण अन्ना और बाबा रामदेव की दुकानदारी पर बट्टा लग गया है। लोग-बाग़ भी घूस देने के लिए रुपये की जगह पेट्रोल प्रिफऱ कर रहे हैं। बैंकों ने नयी स्कीम चला दी है। अब रूपये और गहनों के साथ पेट्रोल भी बैंक में जमा किया जा सकेगा। पर्यावरणविद भौंचक्के हैं। लोगों ने अपने पेट्रोलचालित वाहनों में सायकिल के पैडल लगवा लिए हैं। हीरो होंडा हो या हार्ले डेविडसन, मर्सिडीज हो या फेरारी सब पैडल मार-मारकर चलायी जा रही हैं। जऱा कल्पना कीजिये राजपथ पे सारी गाडिय़ाँ सायकिल के पैडल से चल रही हो तो समानता का कैसा मनोहारी दृश्य उत्पन्न होगा। उधर बॉलीवुड में भी पेट्रोल चल निकला है। फिल्म इशकजादे के बाद पेट्रोलजादे, पेट्रोलघाट और पेट्रोल के लुटेरे बन रही हैं। भोजपुरी फिल्मों के नाम कुछ ऐसे रखे जा रहे हैं- पेट्रोलवा बाबू आई लब यू, पिटरोलवा पे मनवा डोले,पिटरोलवा बड़ा सतावेला, दिल ले गईल पिटरोल पम्प वाली और निरहुवा के पिटरोल रोग भईल ते गज़ब की कमाई करे रहिल।  मां बेटे की बलइयां लेते हुए कहती है मेरे पिटरोल जैसे बेटे की नजऱ लगे और बेटा हो तो पिटरोल जैसा।
                                                 पेट्रोल महिमा देखकर हम भी सोच रहे कि अपनी वसीयत लगे हाथ बनवा लें।  यदि मंहगाई की वजह से मेरा ऊपर का टिकट कटता है तो अंतिम संस्कार में मिलावटी घी और लकडिय़ों की जगह पेट्रोल डालकर फूंका जाये। माना कि हम जैसे पापी रोज़-रोज़ जनम नहीं लेते पर फिर भी खून के आंसू रोने के बजाय पेट्रोल के आंसू रोना। जब प्राणपखेरू होने को हों तो विषैले गंगाजल की जगह कुछ बूंदे पेट्रोल की मुंह में डाल दी जायें हम तर जायेंगे।     
                                   

गुरुवार, 7 जून 2012

चलो कुछ क्रिएटिव करें



लो जी संसद में कॉपी राईट एक्ट पास हो गया और फायदा जिसका ये हुआ कि आप किसी  के पहले वाले काम की चोरी नहीं कर पाएंगे.जैसे दो पडोसी आपस में कटाजुझौव्वर कर रहे हैं.एक दावा करे कि पूरे मोहल्ले में बीवी से पीटने वाला वो पहला है इतने में दूसरा झट से चिल्लाये नहीं रे तुझसे पहले मैं था.. ये क्रिए..टिबिटी का सवाल है इसलिए सब पर समान रूप से लागुएमान है. अब से जो कुछ भी नया और पहली बार होगा क्रिए..टिबिटी यानि की रचनात्मक माना जायेगा. क्रिए..टिबिटी का कानून बनने इस अदने से मन मस्तिष्क में कुछ दृश्य बन रहे हैं.

दृश्य एक-सभी राजनीतिक पार्टियाँ अपने पे उतर आयीं हैं. अभी तक सेना टाईप की पार्टियाँ ही खुल्ले में हंगामा करती थीं पर अब भाजपा के साथ साथ कांग्रेस ने भी कब्ब से डुबकी लगा दी है. भाजपा त्रिशूल और सेना सहित चिल्लपों मचा रही है कि घोटालों का सारा क्रेडिट कॉँग्रेस ही ले जाये ऐसा कैसे हो सकता है. अगर दस्तावेज़ बाकी बचे होंगे तो जाँच से ये साफ़ पता चल जायेगा कि घोटालों की शुरुआत हमीं से मानी जाये. इस दलाली भरी दलील पर पर कॉँग्रेस चीयरलीडर्स सी कुलांचे भरती है और अपने निकनेम का हवाला देते हुए कहती है कि इस मामले में जो भी कहेंगे सच कहेंगे.आखिर इतने बड़े बड़े घपलों का खुलासा हमारी सरकार में हुआ तो क्रेडिट हमहीं को जावे. इतनी चू-चपड़ के बाद मेरे द्वारा स्वविवेक से यह मान लिया गया है कि जिस प्रकार से सूर, तुलसी के जन्मस्थान  को  एक किवदंती के अनुसार निर्धारित किया जाता रहा है. ठीक उसी प्रकार सबसे 'पहले और सबसे बड़े घोटाले का जन्म खान और किस सरकार में हुआ इसका पता नहीं लगाया जा सकता है.

दृश्य -परधानी के बाद अब निकाय चुनावों में एक नयी परकार की रचनात्मक पुरवईया चल रही है. क्रिए..टिबिटी का भण्डार चुनावी पोस्टरों में साफ़ देखा जा सकता है. जहाँ महिला प्रत्याशी हाथ जोड़े फोटू ऐंचवा रही है जो घर में भी हाथ जोड़े रहती हैं और फोटू में भी. साथ में महिला का पति भी लगता है पहली दफ़ा शादी के सात फेरों का पालन तटस्थ भाव से करता दिख रहा है और सेम सेवाभाव से हाथ जोड़े खड़ा है. इसके अलावा वोट मांगने के लिए जिन दयनीय शब्दों का प्रयोग किया जाता है उसके आगे तो अव्वल दर्जे के भिखारी भी शरमा जायें. इसे निम्नलिखित डेमो के द्वारा समझा जा सकता है-

प्रिय जनता आपके चरणों में आजीवन सेवारत क्षेत्र के इमानदार प्रत्याशी को भरी मतों से विजयी बनाएं.

दृश्य - प्रीतम और अनु मालिक जैसे कुछ धुन और स्टोरी चोट्टों को छोड़ तो बॉलीवुड रचनात्मकता का सबसे बड़ा खरीददार और बेंचूलाल है. जितना सम्मान वो मधुबाला और मीना कुमारी को देता है उसी भाव से वीना और पाउली डैम को भी देता है. इस तरह की विशेष श्रेणी की रचनात्मकता को नेता लोग संसद में देखकर सम्मान देते हैं.यानि बात संसद में कॉपीराईट एक्ट के पास होने से शुरू हुयी थी और अंत में संसद में रचनात्मकता के सम्मान पर आकर रुकी.पाठकों से निवेदन है कि वे मेरी ज़बरदस्ती का लेखक बनने की हुज्जत को इस लेख को पढक़र सम्मान दें.भई!आखिर रचनात्मकता तो आखिर रचनात्मकता होती है .