बुधवार, 12 सितंबर 2012

वर्चुअल सोसाईटी -कितने दूर कितने पास



सुबह नींद खुलने पर न्यूज़पेपर और एक कप चाय के साथ अब एक और काम बेहद ज़रूरी हो गया है. मोबाईल फ़ोन के एस एम एस, ई मैसेजेस चेक करना लगभग कंप्यूटर साक्षर की दिनचर्या में शामिल है. पर सबसे ज्यादा उतावलापन उन प्रतिक्रियाओं को लेकर रहता है जिन्हें रात के भोर पहर तक फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर अपडेट किया जाता है. उस वर्चुअल विचार को कितने वर्चुअल लायिक्स मिले हैं और कितने डिसलायिक्स मिले हैं किसने क्या कमेन्ट किया और कितने वर्चुअल लोगों ने आपका समर्थन किया.. अगर ये सब चेक न करें तो दिन अधूरा सा लगता है. इसे कुछ यूं भी कह सकते हैं की ये एक तरह का नशा है जो हमें नए उदित होते समाज का बोध कराता है , एक ऐसा समाज जो तुरंत प्रतिक्रिया दिलाऊ है.चौबीसों घंटे जागरूक है.मतलब बेमतलब की हर बात पर प्रतिकृया देने को उतारू है.ये वर्चुअल जागरूकता रखता हा, इसमें वर्चुअल जोश है. कुल मिलाकर इसकी भावनाएं, गुस्सा सब वर्चुअल है. ये उभरता मीडिया पारंपरिक मीडिया के साथ उन सभी को सबको चुनौती दे रहा है जो बंधी बंधाई अभिव्यक्ति की स्वंत्रता में विश्वास रखते हैं. हर व्यक्ति के लिए यहाँ स्पेस है, फिर चाहे वो जिस धर्म का हो देश का हो या रंग का. वास्तव में मार्शल मैक्लुहान की वैश्विक गाँव की संज्ञा को सोशल मीडिया ने सच कर दिखाया है. यहाँ हर व्यक्ति संवाददाता है. उसका अपना मीडिया है.जब चाहे सूचनाओं पर प्रतिक्रिया दे सकता है और अगर किसी से सहमत न हो तो अपना घर साफ़ रखने की आजादी भी उसे देता है. ये तहरीर चौक का सूत्रधार रहा है और भारत में अन्ना आन्दोलन की जान. अभी हाल ही में ममता दीदी, मनमोहन सिंह और सोनिया के कार्टून्स को भी उसी प्रेम भाव से अपनाया था. यहाँ तक तो सब ठीक था पर असोम हिंसा ने एक नयी बहस को जन्म दे दिया है. सोशल मीडिया पर कुछ संदेशों और वीडियोज को तोड़ मरोडक़र कर डाला गया जिसके फलस्वरूप देशभर में रह रहे पूर्वोत्तर के लोगों में दहशत फ़ैल गयी और बड़ी संख्या में वे अपने घरों को लौटने लगे. देश भर में जगह जगह हिंसा की वारदातें हुईं. सरकार ने इन सबके लिए सोशल मीडिया को जिम्मेवार ठहराया और 300 वेबसाईट्स को नोटिस भेज दिया. बालक एसएमएस को लगभग पंद्रह दिनों बैन कर दिया गया. सरकार का तर्क था की देश की आतंरिक शांति को बनाये रखने के लिए ऐसा करना जरूरी था. इसके उलट बुद्धजीवियों का तबका इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला कहा. दोनों अपनी अपनी जगह सही हो सकते हैं पर कुछ पहलु यहाँ ऐसे हैं जिन पर गौर करना जरूरी है. पहला तो यह कि अगर मान लिया जाये कि क्या वाकई में  सोशल मीडिया  ही इन सबके लिए पूरी तरह से जिम्मेदार था? और अगर ऐसा ही था तो सरकारें आये आईएसआई दिन होनेवाले दंगों और आतंकी हमलों को क्यूँ नहीं रोक लेती. सारा दोष सोशल मीडिया और के मत्थे मढक़र सरकार अपने नकारेपन पर पर्दा नहीं डाल सकती.असोम की समस्या कुछ दिनों में उपजी समस्या नहीं है जो भी इसके बारे में थोड़ी सी भी जानकारी रखते हैं वो साफ़ बता सकते हैं की किस तरह वोट की  राजनीति हमारे  देश का बेडा गर्क करती आ रही है. इसके साथ साथ हमें यह भी तय करना होगा कि चीन की तरह ऐसे प्रतिबंधों को लागने के लिए हम तैयार हैं?  लोक्तान्तान्रिक देश में यक़ीनन ऐसे दमघोंटू कदमों को कभी स्वीकृति नहीं मिल सकेगी. दरसल ख़ामी सुरक्षा तैयारियों में है और रही बात सोशल नेटवर्किंग साईट्स को प्रतिबंधित करने की तो इसे भी दूसरी तरह के मीडिया जैसे आत्म नियमन पर छोड़ देना चाहिए. ये सच है की वर्चुअल मीडिया पर आत्म नियम कितना काम करेगा यह अंदाज़ा ठीक ठीक नहीं लगाया जा सकता.पर यह भी उतना ही सच है की यहाँ ऐसे लोग, सामाजिक संगठन भी सक्रिय है जो ऐसी अफवाहों का डटकर सामना कर रहे हैं और देश की अखंडता के लिए प्रतिबद्ध हैं. प्रतिबन्ध लगाने के बजाय अपने किले को मज़बूत करना ज्यादा समझदारी होगी क्योंकि वर्चुअल मीडिया भारत में अभी अपने शैशवकाल में है और इस पर इस तरह की .

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