गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

अभी दूर की कौड़ी है सुलभ शौचालय

ऑस्कर विजेता फिल्म स्लमडॉग मिलेनियर का वो दृश्य तो याद होगा न जिसका एक बाल कलाकार अमिताभ बच्चन का ऑटोग्राफ पाने के लिए संडास के गड्ढे में कूद जाता है. भारत की इस छवि ने उसे ऑस्कर का स्वाद चखा दिया. इस सम्मानित बेईज्ज़ती के बाद भी हमने कोई सबक नहीं लिया और हालात जस के तस बने हुए हैं. इनक्रेडिबल इण्डिया के किसी भी कोने में आप यात्रा कर रहे हों कुछ दृश्य आपको एक जैसे देखने को मिलेंगे. किसी भी रेलवे स्टेशन पर कसमसाती, बेहाल भीड़, दिमाग की नसें तंग कर देने वाला शोर, कबाड़ बीनता भारत का तथाकथित भविष्य और निःसंदेह पटरियों पर बिखरा मल, इन सबसे साबक़ा पड़ते ही एक नए तरह के भारत की तस्वीर उभरती है. किसी भी ग्रामीण क्षेत्र में अँधेरा बढ़ते ही लोटा लिए शौच को जाती महिलाओं का रेला दिखना आम बात है. केंद्रीय ग्रामीण विकास और पेयजल एवं स्वच्छता मंत्री जयराम रमेश ने फिर से एक बयान दिया है कि अगर 'शौचालय नहीं तो दुल्हन नहीं'.  इससे पहले भी शौचालयों की मंदिरों से तुलना करने पर वे विवादों में फंस गए थे. इससे पहले भी एक रिपोर्ट आई थी जिसमें कहा गया था की भारत में शौचालयों से कहीं ज्यादा सेल फोन्स की संख्या है. यही नहीं यूनिसेफ की एक हालिया रिपोर्ट कहती है कि दुनियाभर में १.२ बिलियन लोग जो शौचालय का प्रयोग नहीं करते उनमें से ६६५ करोड़ सिर्फ भारत से हैं और लगभग ५५% की आबादी शौचालय की सुविधा से महरूम है. दक्षिण एशिया की प्रमुख आर्थिक शक्ति की कतार में खड़े देश के लिए ये शर्म का विषय होना चाहिए कि उसकी आधी असे ज्यादा आबादी मूलभूत सुविधाओं से वंचित है. लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं की सूची में सेल फोन शामिल हो गया है ये बात तो समझ है पर निवृत्त होने जैसी मूलभूत जरूरत बदल गयी हो ऐसा नहीं हो सकता. सरकारें भले ही लोगों इसका ठीकरा लोगों पर फोडती आ रही हों लेकिन सच तो यही है कि शौचालय से ज्यादा सस्ते में उन्हें फोन उपलब्ध हैं. शहरी और कस्बाई इलाकों के हालत तो और भी गंभीर हैं. ख़राब सीवरेज सिस्टम हालत और भी बदतर कर देता है. सीवरों का गन्दा पानी  नदियों के प्रदूषित होने का एक बड़ा कारण है और इसे ढंग से उपचारित किये बिना ही घरों में सप्लाई  कर दिया जाता है. पानी से जनित रोग डायरिया का सबसे ज्यादा शिकार पांच साल कि उम्र के बच्चे होते हैं जिनकी संख्या लगभग ५,३५००० है. ग्रामीण इलाकों में आज भी दस्त से मौत का शिकार होने वाले नवजातों की संख्या आंकड़ों से कहीं ज्यादा है. देखा जाये तो खुले में शौच की समस्या से सबसे ज्यादा महिलाओं को दो-चार होना पड़ता है. जैसा कि स्त्री हमेशा से ही समाज के हाशिये पर रही है शायद इसी वजह से हमारे ग्रामीण समाज में खुले में निवृत्त होना कोई समस्या नहीं है. उत्तर प्रदेश के विष्णुपुर की प्रियंका ने इस मामले में हिम्मत दिखाई और अपने पति के घर जाने से इसलिए मना कर दिया क्योंकि वहां शौचालय की सुविधा नहीं थी लेकिन प्रियंका जैसी हिम्मत हर कोई नहीं दिखा पाता.
शौचालय का मुद्दा महिलाओं कि सुरक्षा से भी जुडा हुआ है. ऐसे कई मामले सामने आये हैं जब बच्चियां शौच के लिए जाते समय बलात्कार जैसी घटनाओं का शिकार हुई हैं. दूर दराज़ के इलाकों में लड़कियां इसलिए सरकारी स्कूलों में पढने नहीं जाती क्यूंकि वहां टॉयलेट की सुविधा नहीं है. यही नहीं मैला साफ़ करने वाले सफाई कर्मचारियों को आज भी समाज में हेयदृष्टि से देखा जाता है. रेलवे तक इस तरह के मानव उत्पीडन का जिम्मेदार है. सरकार और निति नियंता भी इस समस्या पर ढुलमुल रवैया अपनाये हुए हैं. सहस्त्रब्ती विकास लक्ष्य के एजेंडे में शामिल इस समस्या का हल अभी तक नहीं ढूँढा जा सका है. सिर्फ बयानबाजी करने से किसी समस्या का हल नहीं निकलने वाला. कम से कम हमें दृढ इक्छाशक्ति तो दिखानी ही होगी. 
बड़ा डर लागे है आजकल जी. एक दुकान पर लिखा देखा था यहाँ कान से सुनने की मशीन मिलती है. दिमाग  भन्ना गया एकदम कि भाया अगर ये कान से सुनने की मशीन बेंच रहे हैं तो अब तक हम सुनने के लिये किसका प्रयोग करते आ रहे थे. वो तो भला हो तुरंत खबरिया चैनल का जिससे पता चला बैसाखी की जगह हियरिंग मशीन थमा दी गयी है. अबतक लोग भले ही बैसाखी से चला करते हों पर आगे से कान से सुनने वाली मशीन से चला करियेगा. एक नेताईन जी के ट्रस्ट का स्पेशल प्रोडक्ट है. ऑस्ट्रिया के फेलिक्स भाई साहब ने अंतरिक्ष से नये तरीके की छलांग लगाई है. हिम्मत हो तो हियरिंग मशीन से चलकर दिखावें. अव्वल दर्ज़े के एडवेन्चरस काम तो इंडिया में ही होते हैं. हमारी ना मानो तो राष्‍ट्रीय दामाद जी से पूछो. सोना डार्लिंग को तो छोड़ो रॉबर्ट तक बताने को तैयार नहीं कि कितना माल था. ये काम अपने ट्रस्ट वाले गुर्गे और दूसरे खास लोगों को जरूर सौंपा है. दामाद नाम के जीव की अचानक टीआरपी बढ़ गयी है. पूजा पाठ के मौसम में खासी डिमांड रहने वाली है. कुछ कंपनियों ने मौका ताड़कर राष्ट्रीय दामाद नाम के प्रोडक्ट भी बाज़ार में उतार दिए हैं. आम आदमी के झोले में मैंगो और बनाना के साथ राष्ट्रीय दामाद का भी बोझ बढ़ गया है. वो टूजी वाला और बत्तीस पैसे वाला एडवेन्चर तो पुराना हो गया. कोलगेट वाला थोड़ा ताज़ा है. इंडिया गेट, चाइना गेट सब फीके पड जायें. कोल गेट से बड़े बड़े सफेदपोश बेदाग निकल गये. काजल की कोठरी में भयंकर वाले सयाने घुसे और चौंका देने वाली सफेदी के साथ बाहर निकले. एक नया लड़ाका पानी पी पीकर पीछे पड़ा हुआ है. बिल्कुल भकौवां बनकर डरा रहा है. नेता लोगों की सांस इस लड़ाके के खुलासों में अटक गयी है. बडबोला टाईप का ये लड़ाका अपनी टीम से सस्पेंड किया जा चुका है. अपने कैप्टन की टोपी पहनता है. खबर है कि पॉलिटिक्स में अपने लिए स्पेस का जुगाडमेंट कर रहा है. नये तरीके का एडवेन्चर चलन में है. खांटी दुकानदार की तरह ट्रस्ट एक बार सेवा का अवसर मांग रही है. तो आप सब क्या कहते हैं?

सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

नारी शक्ति आज के सन्दर्भ में

                    
                                                                                                                                                                                                                                     
बात दो महीने से ज्यादा पुरानी नहीं है. मेरे गाँव के पड़ोस में लगने वाली मवेशियों की बाज़ार में सबसे मंहगा मवेशी नब्बे हज़ार में बिका था और संयोग से ठीक उसी समय गाँव का एक अधेड़ अपने लिए महज़ तीस हज़ार में जीवनसंगिनी खरीद कर लाया था. उस वक़्त मुझे लगा था कि ये महज़ इत्तेफाक है लेकिन आज जब कुछ ऐसी ही आदिवासी लड़कियों से जुडी खबर एक वेबसाईट पर तो पूरे देश में लड़कियों की जो हालत है वो समझते देर न लगी. एक और खबर सभी मीडिया चैनलों पर बड़े जोर शोर से उठाई जा रही है. हरियाणा के जींद में एक दलित लडक़ी ने दुष्कर्म के बाद आत्महत्या कर ली थी और दोषियों को सजा दिलाने के नाम पर हरियाणा सरकार के ढुलमुल रवैये की चौतरफा आलोचना के बाद कांग्रेस प्रमुख सोनिया भी उनके बचाव में उतर आई हैं. उनका तो यहाँ तक कहना है की रेप तो पूरे देश में हो रहे हैं. आखिर उनके इस बयां का क्या मतलब निकाला जाए. माफ़ कीजियेगा यह आपके लिए हो सकता है कि गर्व की बात हो पर किसी भी सभ्य समाज के लिए ये राष्ट्रीय शर्म का विषय होना चाहिए, जहाँ की खाप पंचायतें लड़कियों को बलात्कार से बचने के लिए उनकी जल्द शादी कर देने जैसे सुझाव देती हो, जहाँ तमाम तरह के कानूनों को धता बताकर एक महिला को उल्टा लटकाकर अमानवीय यातनाएं दी जाती है और समाज की सुरक्षा के नाम पर सरकारी तनख्वाहें डकारने वाले लोग खड़े खड़े तमाशा देखते हों.   हरियाणा की कांग्रेस सरकार पिछले एक महीने के दौरान डेढ़ दर्जन से ज्यादा हो चुकी दुष्कर्म की घटनाओं के बाद तमाम महिला संगठनों और अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग की नजऱों में चढ़ चुकी है. ये कुछ घटनाएं बानगी भर हैं. यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता.....का जुमला सदियों से नारी महिमा का बखान करने के लिए सुनते सुनते आ रहे हैं. भारतीय संस्कृति खासतौर से हिन्दू धर्मं में नारी को समाज का आधार माना गया है. नवरात्र के नव दिनों में हम स्त्री के नव रूपों की पूजा करते नहीं अघाते. शक्ति स्वरूपा को खुश करने के लिए घंटे, घडिय़ाल, नैवद्य और न जाने क्या क्या चढाते हैं. इन नौ दिनों में नारी के इस दैवीय स्वरुप की खूब पूजा होती है. महिलाओं पर अत्याचार से सम्बंधित दुनिया भर की घटनाओं, स्वयंसेवी संस्थाओं यहाँ तक कि एक दिन पहले तक मालूम उन सभी घटनाओं को भूलकर बस इन नौ दिनों तक गौर कीजिये, क्या ऐसा कोई अखबार या न्यूज़ चैनल बाकी बचा जिसमें महिलाओं पर हिंसा, दुष्कर्म अथवा मारपीट से जुडी खबरें न आई हो. हम सदियों से चली आ रही परम्पराओं का बोझ ढोने में माहिर है लेकिन एक बार ठिठक कर ये सोचने की ज़हमत नहीं उठाते कि आखिर किस बेताल को अपनी पीठ पर बेमतलब ढोये जा रहे हैं. कितने ही लोग हैं जो मंदिर में देवी के आगे झुकाते है और उसी उल्टे पांव घर आकर घर की महिलाओं पर हाथ साफ़ करने से बाज़ नहीं आते होगे. इन सब बातों के विरोध में कुछ लोग ये दलील से सकते हैं कि भारत के ही केरल जैसे राज्यों में मातृसत्ता है  जहाँ स्त्रियों से वंश चलता है लेकिन एक राज्य के आधार पर पूरे देश की स्त्रियों की हालत का अंदाज़ा लगाना कहाँ तक उचित है.वो भी ऐसे देश में जिसके बारे में कहा जाता जाता है कि यहाँ एक कोस पर पानी और चार कोस पर भाषा बदल जाती है. सिर्फ भारत ही क्या दुनिया भर की ख़ासतौर से मुस्लिम देशो की महिलाओं की खस्ताहालत किसी से छिपी नहीं है. हाल ही में तालिबान से अकेले दम पर लोहा लेने वाली चदः साल की मलाला को गोली से मारने की कोशिश की गयी. अफगानिस्तान में ऐसा कितनी ही बार हुआ हो चुका है जब लड़कियों को घर की चहारदीवारी से निकलकर स्कूल का रुख करने पर स्कूल में पीने के पानी में ज़हर दिया गया. ट्रेन और सार्वजनिक स्थलों पर छेडख़ानी तो आम बात हो चली है. खास तबके का बुद्धिजीवी वर्ग ही ऐसी हरकतों में शामिल होता है इसका नज़ारा भी पूरे भारत ने तब देखा  जब एक आईएएस अफसर ने ट्रेन में अपनी मां के साथ सफऱ कर रही एक लडक़ी के साथ छेडख़ानी की. मामला सुर्ख़ियों में आने पर प्रशासन ने ट्रेनों और सार्वजनिक स्थानों पर महिला कमांडो की तैनाती की बात कह पल्ला झाड लिया पर अगर प्रसाशन के कान वास्तव में सुन सकते तो ये फैसला करने से पहले उस घटना पर जरूर विचार करते जब एक महिला पुलिसकर्मी पर भीड़ ने हमला किया था.  अपनी कमियों से पिंड छुडाने के लिए अक्सर ये कहा जाता है कि अब समय बदल रहा है और सुनीता विलियम्स और इंदिरा नूयी जैसी महिलाएं इसका सुबूत हैं. सनद रहे कि ये कुछ चेहरे भर हैं जिनकी गिनती हम अपनी उँगलियों पर कर सकते है.ये प्रतीक भर है जो किसी महिला सशक्तीकरण वाली  मैगजीन के मुखपृष्ठ की शोभा बढ़ा सकते हैं. वास्तविक स्थिति बिल्कल इससे उलट है. जिसका अंदाजा हम चंद ख़बरों और कागज़ी आंकड़ों के दम पर नहीं लगा सकते. अब महिलाओं को भी ये मान लेना चाहिए कि कोई फ़ोर्स, कानून या सरकार सुरक्षा नहीं मुहैया करा सकती. किसी भी तरह की हिंसा की शिकार होने पर दूसरो की मदद की बात जोहने के बजाय डटकर सामना करो. आत्महत्या से बेहतर है कि लड़ते हुए मर जाना. यकीन मानों तुम्हारा एक साहस भरा कदम हजारों लड़कियों के लिए प्रेरणा बन जायेगा. महिलाओं को खुद अपनी सुरक्षा के लिए तैयार रहना चाहिए और इसकी शुरुआत आपके बचपन से होगी जब तुम खिलौने के ढेर से सिर्फ गुडिया चुनने से इनकार कर दोगी. विकल्प ढेर सारे हैं आखिर जीवन आपका है.     
                                                                                                                              - संध्या 

सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

नया लहू...

हम सपनों को खाते पीते
उमीदों के बिछौने लगाते हैं
आसमान को गले बांध
मौत से पेंच लड़ाते हैं
हम फक्कड़ से अपनी ही धुन में
मारे मारे फिरते हैं  
अरमानों के राजकुंवर  हम
रंक सरीखे दिखते हैं
जीवन की रस्सी पर
नटनी जैसे चलते हैं
जोश जहाँ पे हाथ बढ़ा दे
डेरे वहीं जमाते हैं
बेफिक्री से मुस्काते हैं
जब ड्योढ़ी पे बैठे काका हमको
नए लहू का कहते हैं

एक हाथ में चाँद लिए
सूरज को दिया दिखाते हैं
ग़ुरबत के अखाड़े में हम
बस जीत के मुक्के जड़ते हैं
ठोकर खाते हैं, गिरते हैं
गिरके फिर संभलते हैं
धूल झटककर नाकामी की
नए सिरे से उड़ान के अपनी
कलपुर्जे कसते हैं
माटी भी हैं, सोना भी हम   
जो ताप चढ़े से निखरता है
महक-लहक से जाते हैं
जब ड्योढ़ी पे बैठे काका हमको
नए लहू का कहते हैं

यारों के संग अड्डेबाजी
तीरथ यात्रा लगती है
कौर छीन कर खाएं जो
काशी-काबा लगते हैं
जान लड़ा दें उनकी ख़ातिर
ग़र खुशियों पे पंचायत लगे कहीं
अपने टोले की गलियां हमको
लन्दन पेरिस लगती हैं
तंग गली की वो खिड़की जब
इक लड़की के चेहरे सी खुलती है
पंख मेरे बन कोई संग- संग उड़ता है
वो आवारा सा लड़का तब
सबसे भलो लगता है
गुज़रे हुए ज़माने से हम
पंजे खूब लड़ाते हैं
सर्द हवा में गोते खाते हैं
जब ड्योढ़ी पे बैठे काका हमको
नए लहू का कहते हैं

थाम मशालें चल दें तो
धरते हिचकोले खाती है
जुट जायें जो किसी चौक पे
सारथी क्रांति के बन जाते हैं
हमारी चंद लकीरों से
सिंहासन हिलने लगते हैं
अपने धरम के मुल्ला हैं हम
प्रेम का जनेऊ चढ़ाते हैं
वक़्त के साथ दौड़ने को हम
जमकर एड़ लगाते हैं
हंसी ख़ुशी अपने हिस्से का
देश उठाते है
जब ड्योढ़ी पे बैठे काका हमको
नए लहू का कहते हैं                                       -संध्या
 

बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

आओ परखें गांधी को



                                           

कहते हैं खुद को वक्त की कसौटी पर तौलते रहना चाहिए जिससे पता चलता रहे कि कौन कितने पानी में हैं। चूँकि हम भारतीयों में गर्व करने वाला सिंड्रोम बाकियों की अपेक्षा ज्यादा होता है इसीलिए ख्याल आया की क्यूँ न अपने गाँधी जी में कितना वजऩ बाकी है परख लें। अभी हाल ही में अमेरिका के राष्ट्रपति ने गाँधी जी को फिर से याद किया है। म्यांमार की लोकप्रिय नेता सू की ने माना है कि गाँधी उन्हें प्रेरणा देते रहते हैं।अफ्रीका तो गाँधी जी का दूसरा घर रहा है।छोटा बच्चे के लिए गांधी नोटों पर छपे एक शख्स  हैं। युवाओं के लिए गांधी वो हैं जो किसी फिल्म में हीरो का ह्रदय परिवर्तन कर देते है। बुजुर्गों के लिए गांधी नास्टेल्जिया हैं। राजनीति में गाँधी एक एजेंडा हैं। अगर कुछ यूं कहें कि गांधी वह व्यक्तित्व है जो साल दर साल नए रूप धारण कर अपनी चमक बिखेरता है, ऐसा विचार है जिसे जिस बर्तन में डालो उसी का आकार ग्रहण कर लेता है और ये अहिंसा नाम की उस धातु से बना है जिसके लचीलेपन का कोई जवाब नहीं। जिसका जन्म तो ज्ञात है पर मृत्यु को लेकर संशय बरकऱार है जो आज भी जिंदा है। गांधी हमारी आजादी के निहत्थे योद्धा हैं। किसी के लिए गाँधी संत हैं,तो किसी के लिए महात्मा, गाँधी अहिंसा के पुजारी हैं, गाँधी चश्मा और खद्दरधारी हैं। रीढ़ से लचीला लेकिन सिद्धांतों के मामले में बेहद जिद्दी एक ऐसा आदमी जिसे कुछ प्रतीकों भर से पहचाना जा सकता है जिसे हर धर्म चहीता था फिर भी जीवन के अंतिम वक्त में जिनके मुंह से राम ही निकला था और इण्डिया के लिए गाँधी ब्रांड बन चुके हैं। कई बार दुविधा खड़ी हो जाती है कि गांधी हमारे हैं या हम गांधी के हैं। शायद आज गांधी हमारे लिए हथियार हैं कि सुनों हम गांधी के देश से हैं हमारी भी सुनो। इस महात्मा की प्रासंगिकता पर अक्सर बहसें होती हैं।इनके सिद्धांतों की शल्य क्रिया करना हमारा प्रिय शगल बन चुका है। इन्हीं के तरकश का एक तीर था जो आजकल अनशन के नाम से जाना जाता है जिसके बहाने हम कई निशाने साधते आये हैं। इन दिनों हमने अपनी सुविधानुसार गांधी का नवीनीकरण कर लिया है। कुछ साल पहले गांधी अपना बापू बन गए थे। आजकल जंतर मंतर पर डेरा जमाये हुए हैं। इस नए रूप में ढलने का काम अन्ना नामक उनके तथाकथित भक्त ने किया है। इस तरह से गांधी की एक और उपयोगिता सामने आई है। वे पब्लिसिटी स्टंट भी हो सकते हैं। जरा दिमाग पर जोर डालिए और सोचिये गांधी कहाँ-कहाँ विराजमान हैं। क्या आत्महत्या करते किसी किसान में, तहरीर चौक पे, म्यांमार की उस कोठरी में जहाँ अपनी आधी जि़ंदगी एक नेता ने नजऱबंदी में गुज़ार दी, किसी पांच सितारा होटल के पीछे बसी उन झुग्गियों में जो चाँद पे दाग सरीखी नजऱ आती हैं या फिर सिर्फ उस गाँधी टोपी में जो कभी-कभी मजबूरी में नजऱ आती है हमारे सिरों पर? बात सोचने वाली है जनाब आखिर गांधी नाम की सरकार है इस देश में। गाँधी हमारे बापू हैं, राष्ट्रपिता हैं। नोटों पर मुस्कुराते गांधी पर ही हमारे देश की अर्थव्यवस्था टिकी है।          -संध्या