सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

नारी शक्ति आज के सन्दर्भ में

                    
                                                                                                                                                                                                                                     
बात दो महीने से ज्यादा पुरानी नहीं है. मेरे गाँव के पड़ोस में लगने वाली मवेशियों की बाज़ार में सबसे मंहगा मवेशी नब्बे हज़ार में बिका था और संयोग से ठीक उसी समय गाँव का एक अधेड़ अपने लिए महज़ तीस हज़ार में जीवनसंगिनी खरीद कर लाया था. उस वक़्त मुझे लगा था कि ये महज़ इत्तेफाक है लेकिन आज जब कुछ ऐसी ही आदिवासी लड़कियों से जुडी खबर एक वेबसाईट पर तो पूरे देश में लड़कियों की जो हालत है वो समझते देर न लगी. एक और खबर सभी मीडिया चैनलों पर बड़े जोर शोर से उठाई जा रही है. हरियाणा के जींद में एक दलित लडक़ी ने दुष्कर्म के बाद आत्महत्या कर ली थी और दोषियों को सजा दिलाने के नाम पर हरियाणा सरकार के ढुलमुल रवैये की चौतरफा आलोचना के बाद कांग्रेस प्रमुख सोनिया भी उनके बचाव में उतर आई हैं. उनका तो यहाँ तक कहना है की रेप तो पूरे देश में हो रहे हैं. आखिर उनके इस बयां का क्या मतलब निकाला जाए. माफ़ कीजियेगा यह आपके लिए हो सकता है कि गर्व की बात हो पर किसी भी सभ्य समाज के लिए ये राष्ट्रीय शर्म का विषय होना चाहिए, जहाँ की खाप पंचायतें लड़कियों को बलात्कार से बचने के लिए उनकी जल्द शादी कर देने जैसे सुझाव देती हो, जहाँ तमाम तरह के कानूनों को धता बताकर एक महिला को उल्टा लटकाकर अमानवीय यातनाएं दी जाती है और समाज की सुरक्षा के नाम पर सरकारी तनख्वाहें डकारने वाले लोग खड़े खड़े तमाशा देखते हों.   हरियाणा की कांग्रेस सरकार पिछले एक महीने के दौरान डेढ़ दर्जन से ज्यादा हो चुकी दुष्कर्म की घटनाओं के बाद तमाम महिला संगठनों और अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग की नजऱों में चढ़ चुकी है. ये कुछ घटनाएं बानगी भर हैं. यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता.....का जुमला सदियों से नारी महिमा का बखान करने के लिए सुनते सुनते आ रहे हैं. भारतीय संस्कृति खासतौर से हिन्दू धर्मं में नारी को समाज का आधार माना गया है. नवरात्र के नव दिनों में हम स्त्री के नव रूपों की पूजा करते नहीं अघाते. शक्ति स्वरूपा को खुश करने के लिए घंटे, घडिय़ाल, नैवद्य और न जाने क्या क्या चढाते हैं. इन नौ दिनों में नारी के इस दैवीय स्वरुप की खूब पूजा होती है. महिलाओं पर अत्याचार से सम्बंधित दुनिया भर की घटनाओं, स्वयंसेवी संस्थाओं यहाँ तक कि एक दिन पहले तक मालूम उन सभी घटनाओं को भूलकर बस इन नौ दिनों तक गौर कीजिये, क्या ऐसा कोई अखबार या न्यूज़ चैनल बाकी बचा जिसमें महिलाओं पर हिंसा, दुष्कर्म अथवा मारपीट से जुडी खबरें न आई हो. हम सदियों से चली आ रही परम्पराओं का बोझ ढोने में माहिर है लेकिन एक बार ठिठक कर ये सोचने की ज़हमत नहीं उठाते कि आखिर किस बेताल को अपनी पीठ पर बेमतलब ढोये जा रहे हैं. कितने ही लोग हैं जो मंदिर में देवी के आगे झुकाते है और उसी उल्टे पांव घर आकर घर की महिलाओं पर हाथ साफ़ करने से बाज़ नहीं आते होगे. इन सब बातों के विरोध में कुछ लोग ये दलील से सकते हैं कि भारत के ही केरल जैसे राज्यों में मातृसत्ता है  जहाँ स्त्रियों से वंश चलता है लेकिन एक राज्य के आधार पर पूरे देश की स्त्रियों की हालत का अंदाज़ा लगाना कहाँ तक उचित है.वो भी ऐसे देश में जिसके बारे में कहा जाता जाता है कि यहाँ एक कोस पर पानी और चार कोस पर भाषा बदल जाती है. सिर्फ भारत ही क्या दुनिया भर की ख़ासतौर से मुस्लिम देशो की महिलाओं की खस्ताहालत किसी से छिपी नहीं है. हाल ही में तालिबान से अकेले दम पर लोहा लेने वाली चदः साल की मलाला को गोली से मारने की कोशिश की गयी. अफगानिस्तान में ऐसा कितनी ही बार हुआ हो चुका है जब लड़कियों को घर की चहारदीवारी से निकलकर स्कूल का रुख करने पर स्कूल में पीने के पानी में ज़हर दिया गया. ट्रेन और सार्वजनिक स्थलों पर छेडख़ानी तो आम बात हो चली है. खास तबके का बुद्धिजीवी वर्ग ही ऐसी हरकतों में शामिल होता है इसका नज़ारा भी पूरे भारत ने तब देखा  जब एक आईएएस अफसर ने ट्रेन में अपनी मां के साथ सफऱ कर रही एक लडक़ी के साथ छेडख़ानी की. मामला सुर्ख़ियों में आने पर प्रशासन ने ट्रेनों और सार्वजनिक स्थानों पर महिला कमांडो की तैनाती की बात कह पल्ला झाड लिया पर अगर प्रसाशन के कान वास्तव में सुन सकते तो ये फैसला करने से पहले उस घटना पर जरूर विचार करते जब एक महिला पुलिसकर्मी पर भीड़ ने हमला किया था.  अपनी कमियों से पिंड छुडाने के लिए अक्सर ये कहा जाता है कि अब समय बदल रहा है और सुनीता विलियम्स और इंदिरा नूयी जैसी महिलाएं इसका सुबूत हैं. सनद रहे कि ये कुछ चेहरे भर हैं जिनकी गिनती हम अपनी उँगलियों पर कर सकते है.ये प्रतीक भर है जो किसी महिला सशक्तीकरण वाली  मैगजीन के मुखपृष्ठ की शोभा बढ़ा सकते हैं. वास्तविक स्थिति बिल्कल इससे उलट है. जिसका अंदाजा हम चंद ख़बरों और कागज़ी आंकड़ों के दम पर नहीं लगा सकते. अब महिलाओं को भी ये मान लेना चाहिए कि कोई फ़ोर्स, कानून या सरकार सुरक्षा नहीं मुहैया करा सकती. किसी भी तरह की हिंसा की शिकार होने पर दूसरो की मदद की बात जोहने के बजाय डटकर सामना करो. आत्महत्या से बेहतर है कि लड़ते हुए मर जाना. यकीन मानों तुम्हारा एक साहस भरा कदम हजारों लड़कियों के लिए प्रेरणा बन जायेगा. महिलाओं को खुद अपनी सुरक्षा के लिए तैयार रहना चाहिए और इसकी शुरुआत आपके बचपन से होगी जब तुम खिलौने के ढेर से सिर्फ गुडिया चुनने से इनकार कर दोगी. विकल्प ढेर सारे हैं आखिर जीवन आपका है.     
                                                                                                                              - संध्या 

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