गुरुवार, 29 नवंबर 2012

दिन भर की भाग दौड़
और जीवन की आपाधापी
ओह सुबह की चाय
फिर लंच
लो स्कूल की बस
छूट गयी बच्चों की
फिर लाज शरम का
पल्लू थामे
दौड़ो कि बस
छूट न जाये कहीं
ऑफिस में भी आराम कहां
ध्यान तो वहीं लगा
कि शायद रसोई में
कल की सब्जी ख़तम है
लौटती हूँ तो
बिखरे सामान के संग 
मन के कुछ कोने भी
समेटती जाती संग संग
और फ़िर रात को
चुपके से उठकर 
दबे पांव मैंने
पूजाघर की सबसे
ऊपर की अलमारी में
स्थापित कर दी कुछ यादें
न.. न..
तुम्हारी तस्वीर नहीं
तुम्हारा दिया हुआ
कुछ सामान
ताकि अलसुबह सबसे पहले उठकर
नवा सकूँ सिर अपना
कुलदेवता के बहाने ......................संध्या



बचपन के दिन भुला न देना

      हम कितने भी बड़े क्यूँ न हों जायें, बचपन के दिन हमेशा हमारी यादों में जिंदा रहते हैं.वो दिन जब हम बेफिक्री से बेमतलब यहाँ वहां घुमते हुए बिता दिया करते थे. न घर की चिंता थी न बाहर की. हमारे खेल थे कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेते थे. हर दिन हर मौसम में किसी वीडियों गेम की तजऱ् पर नए नए खेल ढूंढ लिया करते थे. फिर वो खेल एक गुट से दूसरे में और दूसरे गुट से टोले में और टोले से पूरे गाँव में चल पड़ता था. बड़े बुजुर्गों के लिए भले ही मौसम बदलते हों पर बच्चों के लिए तो मौसम खेल के हिसाब से बदला करते हैं..या यूं कह लीजिये की खेलों के ही मौसम हुआ करते हैं. वो पेड़ों पर चढऩा, कंचे खेलना, सिकड़ी, घर घर खेलना, गुड्डे- गुडिय़ों की झूठ मूठ की शादी रचाना, किरण पारी को बुलाना हो या हम सब में चोर कौन बनेगा ये डिसाइड करने के लिए कोई गीत गुनगुनाना हो जैसे- नीम्बू की प्लेट में चीनी का आचार था बुढिय़ा बीमार थी और बुड्ढा नाराज़ था. या फिर गोले में बैठकर घोड़ा जमाल खाए पीछे देखे मार खाए कहकर घूमना हो. कच्ची रेल की सडक़ बाबू धडक़ धडक़ सबसे प्रिय गीत हुआ करता था. चोरी करना बुरी बात है ये मम्मी पापा के अलावा ये गाना भी सिखाता था- पोशम पा भई पोशम पा सौ रुपये की घड़ी चुरायी अब तो झेल में जाना पड़ेगा जेल की रोटी खानी पड़ेगी. और हाँ साथ में बुरी आदतों से तौबा करने की हिदायत भी ये गाना देता था- सिगरेट पीना पाप है सिगरेट में तम्बाकू है और वही जेल का डाकू है. मां कितनी भी हिदायतें क्यूँ न दे पर कड़ी दोपहरी में बागों के लिए निकल पड़ते थे जैसे सूरज को चुनौती दे रहे हों और भला किसकी मजाल जो हमें बारिशों में नाव तैराने से रोक ले. ये वू दिन थे जब हर कांच का टुकड़ा हमें खेलने की चीज़ लगता था और रास्ते पर पड़े हर पत्थर को ठोकर मारने के लिए हमारे पांव ख़ुद -ब-ख़ुद उठ जाया करते थे. घर में लगा आईना किसी हमें हूबहू किसी दूसरे घर में पहुंचा दिया करता था. जिज्ञासाओं के ग़ुबार यहीं से शुरू होते थे. दीवाली के बचे हुए दीयों से तराजू बनाकर जिंदगी में  संतुलन बनाये रखना खेल खेल में सीख जाया करते थे.तितलियों के पीछे भागना हो या बादल में कोई नयी शक्ल देखना, चिडिय़ों के बच्चों के लिए पानी रखना, रेत के ढेर में पांव डालकर छोटा सा घरौंदा बनाना हो. बचपन के ये खेल कोई नहीं भूलता बस यादों के धुंधलके में जरा फ़ीके पड़ जाते हैं. पर आज भी जैसे ही हम किसी बच्चे को रंग बिरंगे गुब्बारों के लिए मचलता हुआ देखते है तो हम सब के भीतर का बच्चा मचलने लगता है. बदलते वक़्त के साथ ये सरे खेल कहीं गुम से हो गए हैं. आजकल के वीडियो गेम्स और और नयी नयी तकनीक से बने खिलौनों ने यक़ीनन बच्चों को आधुनिक और चतुर बनाया है पर उनका बचपना कहीं खो सा गया है. दिनभर सोफे पर बैठकर कंप्यूटर से चिपके रहना और वीडियो गेम्स खेलना आजकल के बच्चों का प्रिय शगल बन चुका है. मिट्टी की महक और लकड़ी के खिलौनों से ये दूर जा चुके हैं. पेड़ों से तोडक़र आम, इमली और जामुन खाने से ज्यादा स्वादिष्ट इन्हें पिज़्ज़ा और बर्गर लगते हैं. उन्हें दादी नानी की कहानियों से ज्यादा रुचिकर डोनाल्ड डक, टॉम एंड ज़ेरी और मिकी माउस लगते हैं. गिल्ली डंडे से कहीं ज्यादा उनके हाथ कम्पूटर के की -बोर्ड और माउस पर चलते हैं. प्रकृति से दूर हो चुके ये बच्चे तकनीकी भाषा ज्यादा समझने लगे हैं. शायद यही वजह है की भावनाओं का प्रतिशत उनके स्वभाव में कम पड़ता जा रहा है. भले ही खेल मन बहलाने का तरीका रहे हों मगर सच तो यह है की ये खेल बचपन से ही बच्चों में  संस्कारों और दुनियावी समझ की नींव अनजाने में ही रख देते थे.       







                                                                                                                                          - संध्या यादव

शनिवार, 24 नवंबर 2012

दुनिया पूछती है मेरी ख़ामोशी का सबब मुझसे
ज़रा सी याद तुम्हारी आई है और कोई बात नहीं

दिल में बसी तस्वीर धुंधली नज़र आती है
आँखों में उतर आई है और कोई बात नहीं

तेरी महफ़िलों में हम भी हैं आजकल
वफ़ा तुमसे हो गयी है और कोई बात नहीं

बाग़ के सब फूल चुन लिए उसके लिए
कांटे मेरे हिस्से में आये हैं और कोई बात नहीं

भीड़ में कोई उंगली तेरे जानिब न उठे
निगाह इसलिए चुरायी है और कोई बात नहीं

अंधेरों से न हो वास्ता रौशन तेरा घर रहे
दिल अपना जलाया है और कोई बात नहीं
                                                                    - संध्या
खेल खेलने के शौक थे मुझको
कभी गुड़ियों से
तो कभी तितलियों से
उड़ता पंछी देखकर
हो आती थी
नील गगन में
कंचे देखकर
चमक उठती थी आँखें
बारिश मेरी प्रिय थी
जब भीगते हुए

बादलों को खूब
चिढाती थी
पेड़ों की डालें
मेरा झूला थीं
जुगनुओं संग रोज रात
जलती बुझती थी
फिर एक दिन तुमने कहा
आओ चलो पतंग उड़ायें
मैंने ख़ुशी ख़ुशी
पतंग पर अपना नाम लिखा
और मांझा तुम्हारे
नाम का बाँध दिया
हम दोनों ने हाथ थामकर
खूब ऊँची पतंग उड़ाई
मैं ख़ुशी से चिल्लाई
बहुत दूर निकल आई हूँ
अब वापस चलते हैं
और तब तुमने
धरती से अपने मांझा
चुपके से काट दिया
मेरे नाम की कटी पतंग
कहीं दूर गिर गयी
-संध्या

चुल्लू भर कसाब बाकी है

                                            
                                                                                                                            

काहे गयो  रे कसाब। तुम तो चले गए गए बिरयानी और सत्तर बकरों की बोटी खाकर पर अपने पीछे भरा पूरा संभावनाओं का कसाब छोड़ गए। तुम्हारे चाचा बहुत तंग कर रहे हैं। उनने न तुम्हें जिंदा अपनाया न मुर्दा। और जब तुम जमीन में गड़ गए तो गड़े मुर्दे उखाड़ रहे हैं। हम इण्डिया वाले इतने भी गए गुजऱे नहीं हैं जो तुम्हारी तेरहवीं वगैरह का जुगाड़ न करा सकें।। पचास करोड़ तो ऐवें ही खर्च कर दिए। ये क्या दो जोड़ी कपड़ों के लिए सईद चाचा के पास चले गए। इससे तो अच्छा था कि बांग्लादेशी शरणार्थी बनकर पहले ही यहाँ चले आते, उधर असम में अच्छा जुगाड़ था या फिऱ हमारे किसी घोटाला योजना में शामिल हो जाते। इससे डबल फ़ायदा था। जि़ंदा भी रहते और ऊपर की कमाई होती सो अलग। तुम यूं चले जाओगे किसी ने नहीं सोचा था। विपक्ष वालों ने तो बिलकुल नहीं। तुम पिछले चार  सालों से मुद्दा थे। मुद्दा क्या था बैठने के लिए आरामदेह गद्दा थे। जिसपर बैठकर आराम से दूसरों को गरियाया जा सकता था। पर अब क्या अब तो तुम चले गए। इससे तो अच्छा था कि तुम डेंगू से मर जाते। तो उस मच्छर से अफज़ल जी के लिए भी बात चलाते। लेकिन शायद  तुम दोनों एक दूजे के लिए ही बने थे। मच्छर भी शिंदे जी टाईप का देशभक्त निकला। तुम्हारे साथ पूरी वफ़ादारी दिखाई। लेकिन अगर तुम होते तो तो डेंगू का केजरीवाल मच्छर न आता। उस देशभक्त मच्छर को कम से कम अपना फेसबुक अकाउंट बनाना चाहिए था। पुलिस तुम्हें गिरफ्तार नहीं करती।।आजकल बालासाहेब जी पर स्टेटस अपडेट देख रही है। हे मराठी मानुष तुम धन्य हो। स्वर्ग में जाते ही मोर्चा संभाल लिया। अपने पीछे सबसे पहले कसाब को ही बुलवाया। मान गए जी महाराष्ट्र में ही नहीं स्वर्ग में भी तुम्हारी ही चलती है। तुम होते तो सईद चाचा के साथ मच्छर की भी पहचान करते। कम से कम सरकार क्रेडिट तो न लेने पाती। तुम्हारे जाने से मौन मोहन जी की वाट लगी हुई है। पता नहीं कौन से वाले पिछवाड़े से गए की सोनिया बहू जी को भी न पता चला। ये ऑपरेशन एक्स नाम का गोपन वाला मामला बड़ा झाम कर रहा। तुम इतनी मंहगाई में क्यूँ गए। खुद तो बिरयानी उड़ाते रहे चार साल तक।मानगो पीपुल के दिल और जेब से पूछो एक के बाद एक दीवाली मनाने में कितना खर्च आता है।और महामहिम जी पहले वाली जॉब में रहते आपने ईमानदारी नहीं दिखाई। जब कसाब की फाईल पास आई तब जाना मंहगाई क्या होती है। कसाब को निपटने के लिए ही तो प्रमोशन नहीं हुआ था आपका। ममता दीदी को भी नाराज़ कर दिया मौन मोहन जी को न सही ममता दीदी को तो बताना चाहिए था। कसाब जितना सबका था उतना दीदी का भी था। हो सकता था वो कुछ ज्यादा सस्ते में निपटा देती तुम्हें। बस नहीं था तो पाकिस्तान का। कसाब तुम्हें ऐसे नहीं जाना चाहिए था। 





                                                                                                                            -संध्या यादव




शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

डायरी


मैंने तुम्हारे लिए
कभी कोई डायरी नहीं लिखी
इस डर से नहीं कि
कोई दूसरा न पढ़ ले
बल्कि इसलिए कि डायरी
के पन्ने भरते जाएँगे
एक के बाद एक
इस तरह कई डायरियां
भर जायेंगी
पर मेरी भावनाएं
मेरा प्रेम तो
असीमित है
कैसे समेटती उसे
चंद हर्फों और पन्नों में
शायद एक वक़्त ऐसा भी
जब शब्द कम पड़ जायें
या पन्ने पलटते पलटते ]
तुम्हारी उँगलियाँ
जवाब दें जायें 
और उसे डाल दो किसी
पुरानी अलमारी में
ख़ाली वक़्त के लिए
या फ़िर किसी अनजाने डर
कि वजह बन जाए
तुम्हारे लिए
इसलिए मैंने तुम्हारे लिए
कभी कोई डायरी नहीं लिखी
इसलिए एक दिन
बिना बताये
मैंने पी लिया था
तुम्हारी धूप का टुकड़ा
और चुराया था एक अंश
और देखो एक
जीती जागती तुम्हारी
डायरी लिख रही हूँ
जो बिलकुल तुम्हारे जैसी है
बोलती और सांसे लेती हुई....................................संध्या 










गुरुवार, 22 नवंबर 2012

आखिरकार न्याय मिल गया-कसाब की गोपनीय मौत

                           -
  आज जब भारत के लोग सोकर उठे होंगे तो उन्हें इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि ऐसी खबर उनका स्वागत करेगी जिसका इंतज़ार उन्हें पिछले चार साल से था। चार सालों की लम्बी कानूनी प्रक्रिया से गुजरने के बाद 26/11 मुम्बई हमलों के आरोपी कसाब को आज सुबह पुणे की यरवदा जेल में अत्यंत गोपनीय तरीके से फांसी दे दी गयी। जैसे ही यह ख़बर लोगों में फैली पूरे देश में दीवाली जैसा माहौल हो गया। लोगों ने एक दूसरे को मिठाई बांटकर एक दूसरे को बधाई देने लगे। भारत की और से पाकिस्तान को लिखित सूचना इस बात की पहले ही दे दी गयी थी। जब पाकिस्तान ने उसे लेने से मना कर दिया तो फैक्स भी किया गया। कसाब की मां को भी उसकी मौत की सूचना दी गयी थी। उसने मरने से पहले कोई इच्छा नहीं जताई लेकिन आखिऱी शब्दों में अल्लाह से मुआफी ज़रूर मांगी थी। पाकिस्तान ने उसके शव में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और पुणे की कब्रिस्तान समिति ने भी उसकी कब्र को ज़मीन नहीं दी। उसे यरवदा जेल के भीतर ही दफऩ कर दिया गया। कसाब की मौत पर सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर भी प्रातक्रिया देने वालों का ताँता लग गया। उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में सुरक्षा कारणों से हाई अलर्ट लगा दिया गया है। उसे फांसी चढ़ाने की पूरी घटना को इतना गोपनीय रखा गया कि किसी को कानोंकान भनक तक नहीं लगी। आपरेशन एक्स के इस मिशन में सत्रह ऑफिसर्स की स्पेशल टीम बनायी गयी थी। जिनमें से पंद्रह मुम्बई पुलिस के थे। जिस वक़्त कसाब मौत की तरफ बढ़ रहा था, sसिर्फ दो को छोड़कर  पंद्रह ऑफिसर्स के फोन स्विच ऑफ़ थे।  ऐंटि-टेरर सेल के चीफ राकेश मारिया और जॉइंट कमिश्नर ऑफ पुलिस देवेन भारती को ही अपने अपने सेल फोन ऑन रखने की अनुमति थी।  सेलफोन ऑन थे। शायद इस डर से की इस बात की ख़बर बाहर तक न पहुंचे। कसाब की औचक फांसी से कुछ सवाल ज़रूर उठने लगे हैं कि आखिऱ इतने बहुचर्चित मामले को अंजाम देने में इतनी गोपनीयता क्यों बरती गयी। हालाँकि सरकार की तरफ से मीडिया को दी गयी जानकारी में बताया गया है कि  गृह मंत्रालय ने 16 अक्टूबर को राष्ट्रपति से कसाब की दया याचिका ख़ारिज करने की अपील की थी। 5 नवम्बर को राष्ट्रपति ने दया याचिका ख़ारिज कर गृह मंत्रालय को लौटा दी और 7 नवंबर को गृहमंत्री सुशील शिंदे कागजात पर हस्ताक्षर करने के बाद उन्होंने 8 नवंबर को महाराष्ट्र सरकार के पास भेज दिए थे। गृहमंत्री के अनुसार 8 तारीख को ही इस बात का फैसला ले लिया गया था कि 21 नवंबर को पुणे की यरवडा जेल में कसाब को फांसी दी जाएगी। अभी कुछ दिन पहले ही मीडिया में कसाब को डेंगू होने की ख़बर आई थी। इस बात पर मीडिया और सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर जमकर खिल्ली उड़ी थी। सवाल यह भी उठ रहे हैं कि कसाब की मौत फांसी से ही हुई है या किसी दूसरी वजह से। अभी एक दिन पहले संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा में भारत ने उस याचिका का प्रतिरोध किया था जिसमें फांसी की सजा को ख़त्म करने की मांग की गयी थी। शायद इसकी वजह भी यही थी। जिसे दो साल पहले ही कानून ने दोषी करार दे दिया था उसे अब तक जिंदा रखने का कोई तुक नजऱ नहीं आता था। पिछले चार सालों में सरकार ने उसपर पचास करोड़ खर्च करे। कसाब जब तक जिंदा था उसपर सियासत का खेल खेला गया और उसकी फांसी के बाद भी यह जारी है। सरकार इसे अपनी उपलब्धि बता रही है। कहीं वह भी तो अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा की राह पर नहीं चल रही जिन्होंने ओसामा बिन लादेन की मौत को चुनावी हथकंडा बनाया था। कहीं ये जल्दबाजी लोकसभा चुनाव के मद्देनजऱ तो नहीं थी। अगर वास्तव में ऐसा है तो उसे अब तक की नाकामी का ठीकरा अपने सिर लेना चाहिए।
कसाब की फांसी के बाद संसद हमले के आरोपी अजमल सईद को भी फांसी देने की मांग हर तरफ से उठने लगी है और उसकी दया याचिका को आगे भी बढ़ा दिया गया है जिससे उसके भाग्य का फैसला जल्द हो सके। पाकिस्तान ने बड़ी देर से इसपर बयान देते हुए कहा की वह हर तरह के आतंकवाद की निंदा करता है और सहयोग के लिए प्रतिबद्ध है। कसाब की फांसी से पाकिस्तान की जेल में बंद भारतीय नागरिक सरबजीत की मुश्किलें बढ़त गयी है। आशंका जताई जा रही है कि वह इसका बदला सरबजीत को फांसी देकर ले सकता है। मामला कुछ भी हो भारत कि न्याय प्रणाली ने पूरे विश्व में एक सन्देश दिया है।देर से ही सही  कसाब आखिऱकार अपनी नियति को प्राप्त हुआ।    
   

वो मरना नहीं चाहती थी

   वो मरना नहीं चाहती थी. वह पढ़ी-लिखी और पेशे से दन्त चिकित्सक थी. हर मां की तरह वह भी आने वाले मेहमान को लेकर खुश थी. उसे आपने बच्चे से प्यार नहीं था ऐसा नहीं कह सकते. डाक्टर्स ने उसे बताया था की बच्चे के बचने की कोई उम्मीद नहीं. फिर भी उसे मरना होगा क्योंकि धर्म या कानून के लिए इंसान की जि़ंदगी के कोई मायने नहीं.आयरलैंड में भारतीय मूल की दन्त चिकित्सक सविता हलप्पनवार की मौत ने धर्म को कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया है. क्या धर्म की दखलंदाज़ी जीवन में इतनी होनी चाहिए की  किसी की जान पर बन आये. सविता को गर्भपात की की अनुमति नहीं मिली क्योंकि उनके गर्भ में पल रहा सत्रह सप्ताह का का भ्रूण जिंदा था और कैथोलिक देश आयरलैंड में कानून के मुताबिक यह गैरकानूनी है. सविता के पति प्रवीण के मुताबिक वो लगातार गर्भपात के लिए कहती रहीं पर डाक्टर्स ने धर्म का हवाला देकर उन्हें मना कर दिया. सविता कि मौत का कारण सेप्टीसीमिया था. हालाँकि सविता ने इस बात की भी दलील दी थी कि वह भारतीय मूल की हैं और हिन्दू धर्म से हैं. आखिरकार 28 अक्टूबर को सविता ने दुनिया को अलविदा कह दिया. सविता की मौत से समूचे आयरलैंड में गर्भपात कानून पर नए सिरे से बहस शुरू हो गयी है और इसे बदलने आवाजें उठने लगी हैं. ये विडंबना है की एक मां को अपनी कोख पर कोई अधिकार नहीं है. उसे अपने बच्चे को जन्म देना है या नहीं ये धर्म तय करेगा. जब जन्म देने की पीड़ा जन्मदात्री की होती है तो यह अधिकार उसे ही होना चाहिए की उसे आपने बच्चे को जन्म देना है या नहीं. दूसरी बात यह की जो हमसे ज्यादा सभ्य होने का दंभ भरते हैं, जो विकास के खांचे में सहूलियत से फिट बैठते हैं, जिनके पेट हमसे ज्यादा भरे हुए है और जिन्होंने दुनिया के पिछड़ों को सिखाने का ठेका ले रखा है . उनकी नजऱ में हम साँपों के देश से हैं. फिर उनके देश में ऐसी घटना कैसे घटी. शायद ये पाखंडी देशों के चोंचले हैं जिनकी वजह से सविता को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा. सविता कि मौत का कारण सेप्टीसीमिया था. या ये उदारवादी देश होने का दिखावा है. ये वाही देश हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि  महिलाएं यहाँ ज़्यादा स्वतंत्र हैं.  गौरतलब है कि आयरलैंड से कई दंपत्ति अबोर्शन के लिए भारत आते हैं. इसका मतलब साफ़ है कि वहां के नागरिक भी इन कानूनों बदलाव चाहते हैं. भारत सरकार की तरफ से बस इतनी प्रतिकिया सामने आई है कि वह पूरे मामले पर नजऱ रखे हुए है. एक तरह से इस मामले में आयरलैंड के भारतीय उच्चायोग को तत्परता दिखानी चाहिए थी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.सभी को अपने अपने धर्म को मानने की आज़ादी होनी चाहिए लेकिन समस्या तब खडी होती है जब धर्म दूसरों की आज़ादी के आड़े आता है. किसी भी धर्म की सीमाएं इतनी लम्बी नहीं होनी चाहिए कि इंसान की जि़ंदगी ही उसके आगे बौनी साबित हो जाये. सविता के मामले ने इतना तो साबित कर दिया है कि भले ही यह मामला कानून या किसी धर्म से जुड़ा हो लेकिन किसी महिला के लिए हालात अब भी आदम ज़माने जैसे हैं. चाहे वह धर्म हो या समाज, महिलाओं को हमेशा दोयम दर्जे का माना गया है. महिला सशक्तिकरण के सारे प्रयास यहीं आकर दम तोड़ देते हैं. सविता की मौत से आयरलैंड में महिला अधिकारों पर नयी बहस शुरू हो गयी है. और इसे बदलने की बात की जा रही है.

सोमवार, 19 नवंबर 2012

अब्बा अपने सच कहा था कि अगर ज़िन्दगी के ज़ में नुक्ता न हो तो वो बेमतलब हो जाती है...



साल २०१० की गर्मियां, और उर्दू की कक्षा में मेरा पहला दिन. बस शौकिया तौर पर पहुंचा गयी थी उर्दू पढने लेकिन मेरे अध्यापक जिन्हें हम अब्बा कहते थे के व्यक्तित्व ने ऐसा प्रभावित किया की उर्दू से मेरा मोह बढ़ता गया. ये आपकी ही मेहनत का नतीजा था कि महज़ छह महीनों में पढ़ने के साथ साथ लिखना भी आ गया. कैसे भूल सकती हूँ कि मेरी उर्दू की लेखनी हुबहू किताबों की छपाई जैसी बनाने के लिए आपने कितने जतन किये थे. जब पांचों हिस्से पूरे कर लिए थे तो मैं थोड़ी लापरवाह हो गयी थी और आगे की किताबें लेने के लिए आप अपने  ख़राब स्वास्थ्य के बावजूद ९० की उमर में खुद ही नदवा लाइब्रेरी चले आये थे. पिछले दो साल में सारे त्यौहार हम सबने  साथ मनाये चाहे वह दीवाली हो या होली, ईद हो या बकरीद. जब मैं पिछले साल बीमार पडी थी तो हॉस्पिटल में दुआ का ताबीज़ सबसे पहले आपने ही भेजा था. आज सुबह जब आपके इंतकाल की ख़बर सुनी तो आंसुओं को बहने से रोक नहीं पायी. आपके पार्थिव शरीर के सामने खड़े खड़े वो सारे दृश्य किसी फिल्म की तरह आँखों के सामने से गुज़र रहे थे. मेरे धर्म के बारे में जितना ज्ञान है वो सब आपकी ही बदौलत है. ज़िन्दगी के सफ़र के ऐसे कई तजुर्बे जाते जाते सिखा गए जो शायद ताउम्र न सीख पाते. अब आप नहीं होंगे पर आपका दिया हुआ ताबीज़ अब भी मेरी अलमारी में रखा है...................        

चुनावी तैयारियों के मायने

          
उत्तर प्रदेश के पिछले  चुनावों में रिकार्ड मतों से विजयी होकर सरकार बनाने वाली सपा सरकार आत्मविश्वास से लबरेज नजऱ आ रही है। यह आत्मविश्वास इसी से पता चलता है कि उसने बाकी पार्टियों से एक कदम आगे रहते हुए २०१४ के लोकसभा चुनावों के लिए अपने प्रत्याशियों की पहली सूची जारी कर दी है।  कुल ८० में से ५५ सीटों के प्रत्याशियों के नामों की घोषणा कर दी गयी है।  जिनमें से वर्तमान २२ सांसदों में से १८ को फिर से उम्मीदवार बनाया गया है।  इन प्रत्याशियों में से अधिकतर पूर्व सांसद,पूर्व विधायक और कुछ वर्तमान मंत्री और विधान सभा अध्यक्ष माता प्रसाद पाण्डेय भी सम्मिलित हैं जिन्हें डुमरियागंज से प्रत्याशी घोषित किया गया है।  सपा मुखिया की बहू डिम्पल यादव कन्नौज से, भतीजे धर्मेन्द्र यादव बदायूं सीट से और स्वयं सपा प्रमुख मुलायम मैनपुरी सीट से उम्मीदवार हैं।  जबकि परिवार के नए सदस्य रामगोपाल यादव के बेटे अक्षय यादव फिरोजाबाद सीट से राजनीति  में अपना भाग्य चमकाने की तैयारी में हैं।  गौरतलब है कि फिरोजाबाद को देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पंचायत कहा जाता है।  इससे पहले डिम्पल यादव ने भी फिरोजाबाद की सीट से ही चुनाव लड़ा था पर वह कॉंग्रेस प्रत्याशी राज बब्बर से चुनाव हार गयी थीं।  अभी भी २५ प्रत्याशियों के भाग्य का फैसला होना बाकी है।  सपा की और से इसे भले ही सामान्य घोषणा बताया जा रहा हो।  लेकिन राजनीतिक रूप से इसके गहरे निहितार्थ हैं।  कांग्रेस की समन्वय समिति की बैठक के ठीक दूसरे दिन यह घोषणा की गयी है।  यह भी कहा  जा रहा है कि सपा यह मानकर चल रही है कि लोकसभा चुनाव समय से पहले होने की उम्मीद है। जिसे ध्यान में रखकर वह कोई कोर कसर बाकी नहीं रखना चाहती।  कांग्रेस का गढ़ माने जाने वाले रायबरेली और अमेठी से अभी तक किसी उम्मीदवार की घोषणा नहीं की गयी है।  उधर मुलायम  सिंह यादव भी बार बार कार्यकर्ताओं को लोकसभा चुनाव की तैयारियों में अभी से जी जान से जुट जाने का आह्वान कर रहे हैं।  बसपा जिस तरह से चुनावी तैयारियों में लगी हुई है सपा के लिए यह जरूरी हो गया था और यह भी साबित करने की कोशिश में है कि सपा लोकसभा चुनावों को हलके में बिलकुल नहीं ले रही है।  अपनी राजनीतिक ताक़त को दिखने के लिए दोनों तरफ से रैलियां भी पिछले दिनों आयोजित की जा चुकी हैं।  २००९ के लोकसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी २२ सीटों पर जीत हासिल करने  में कामयाब हुई थी।  एस पी सुप्रीमों यह भंली भांति जानते हैं अगर केंद्र पर अपनी पकड़ और मजबूत करनी है तो कम से कम सीटों की संख्या और बढ़ानी होगी।  वैसे भी सपा कॉंग्रेस के लिए केंद्र में संकट मोचक की भूमिका लगातार निभाती आ रही है।  कॉंग्रेस की तरफ से जहाँ राहुल को अगुवा बनाकर लोकसभा चुनाव लडऩे की तैयारियां चल रही है।  वहीं सपा को यह ध्यान रखना होगा कि सिफऱ् उम्मीदवारों कि घोषणा कर देने भर से वह सफल नहीं हो सकती।  चूँकि उत्तर प्रदेश पूरे देश की राजनीति का केंद्र है।  केंद्र तक का पहुँचाने का रास्ता भी यहीं से होकर जाता है।  सपा उत्तर प्रदेश की सत्ता रूढ़ पार्टी है इसका फायदा उसे उठाना होगा और यह सब तभी संभव अहै जब अखिलेश सरकार अपने किये गए वादों पर पूरी तरह से अमल करे।  जिन दावों के दम पर अखिलेश मुख्यमंत्री की सीट तक पहुँचने में सफल हुए हैं उन्हें पूरा करने में विलम्ब न किया जाये।  हालाँकि कुछ महत्त्वपूर्ण और सराहनीय फैसलों के लिए इस युवा मुख्यमंत्री की चौतरफा तारीफ भी हुई है।  हाल ही में महिलाओं के लिए शुरू की गयी हेल्प लाईन उसी का एक हिस्सा है।  लेकिन ऐसे कई कार्य अधूरे पड़े हैं जिनका संज्ञान अभी तक नहीं लिया गया है।  मसलन किसानों की समस्या।  उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी समस्या यहाँ की खऱाब कानून व्यवस्था है।  यूपी की कानून व्यवस्था दिन-ब-दिन बदतर होती जा रही है।  लोगों को न्याय के लिए इधर उधर भटकना पड़ता है।  सरकार के कुछ मंत्रियों पर कानून हाथ में  लेने के गंभीर आरोप लगते रहे हैं।  मंत्रियों की खऱाब छवि सपा को चनावों में सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा सकती है।  अगर इस पर कोई निर्णय जल्द न लिया गया तो लोकसभा चुनावों में गंभी परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।  इन सब समस्याओं को जब तक नहीं सुलझाया जायेगा, आशातीत सफलता नहीं प्राप्त हो सकती।  यूपी के मतदाताओं का दिल जीतने के लिए ज़रूरी है कि उनके लिए राहतकारी फैसले लिए जायें साथ ही साथ उन्हें पूरा करने के लिए युद्ध स्तर  पर काम किया जाये।  दूसरी बात जिस तरह से अखिलेश की ब्रांडिंग एक युवा मुख्यमंत्री के रूप में बड़े जोर शोर से की गयी थी उसके अनुरूप उनकी सरकार ऐसा कोई प्रदर्शन नहीं कर पायी है।  मुख्यमंत्री को अपने निर्णयों में भी वही तेजी और ईमानदारी लानी होगी जिससे आम जनता का विश्वास उनपर बना रहे।
                                                                           - संध्या यादव

शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

दीवाली धमाका विशेष ऑफर

                                                  
त्यौहार का सीजऩ है. दीवाली ग्लोबल त्यौहार हो चुका है. सो ऑफर भी कुछ ग्लोबल टाईप के हैं. सैंडी और नीलम के बाद एक नया तूफान एथेना लाईन में खड़ा है. तूफानी लोगों की तूफानी पसंद के लिए इस पर बम्पर छूट है. व्हाईट हॉउस की बेटियों को बॉय फ्रैंड बनाने की छूट ओबामा ने दे दी है. इस अवसर पर ग्लोबल बॉयफ्रेंड्स के लिए ये बम्पर धमाका है. पर जो लोग फेसबुक पर सक्रिय हैं उनसे ये ऑफर दूर रखा गया है. कुछ बयान बाजू नेता भी लाईन में हैं. इसलिए नहीं कि उनकी डिमांड है बल्कि इसलिए कि ये सारे अब डिफेक्टेड माल हो चुके हैं. डिफेक्टेड माल के साथ काम्बो ऑफर लेना न भूलें. कोम्बो ऑफर कि कई वैरायटी हैं. राम एक बेकार पति के रूप में, विवेकानंद के आई क्यू वाला दाउद, खुलासों वाला केजरीवाल, अरबपति वाला माल्या कंगाल और भी बहत कुछ. पर बाज़ार का रेसपांस देखकर ये लगता है कि खुलासों वाला केजरीवाल बाज़ी मार ले जायेगा.वैसे विवेकानंद के आई क्यू वाले केजरीवाल की भी खासी डिमांड है.ग्राहक इसे दीवाली के पवन अवसर पर सजावटी कंदील के रूप में खूब पसंद कर रहे. केजरीवाल स्पेशल ऑफर दीवाली के आखिरी दिन धमाल मचने पर तुला है. ग्राहकों को रिझाने के लिए जब तक है जान जैसे स्लोगन्स का सहारा लिया जा रहा है. आखिरी घंटों में खरीदारी करें और पाएं स्विस बैंक में अकाउंट बनाए का मौका बिलकुल मुफ़्त. अंबानी भाईयों के साथ अनु टंडन जी ने लपक कर इस अवसर को झटक लिया है. उधर नीतीश जी बिहार के लिए दीवाली गिफ्ट लेने के पड़ोसी देश पाकिस्तान कट लिए हैं. वहां से क्या स्पेशल लाने वाले हैं इस बात पर मोदी जी की आखें लगातार टिकी हुई हैं. उधर भारत सर्कार ने भी मैत्री भाव दिखाते हुए कहा है कि कसाब की बेहतर खातिरदारी के लिए हम प्रतिबद्ध है और इसका प्रमाण देने के लिए सारे काम धाम छोडक़र पाकिस्तानी नागरिकों की सिक्योरिटी में जी जान से जुट गयी है. ब्रिटेन की दीवाली तो इस बार एकदम चौकस मनने वाली है. उसने गिफ्ट के तौर पर भारत के आर्थिक विकास को दी जाने वाली मदद वापस ले ली है. बिग बॉस ने पारिवारिक गिफ्ट के रूप में एक नयी पोर्न स्टार को एंट्री देकर अपना दीवाली प्रॉमिस पर मुहर लगा दी है. यू पी भर की सुन्दर महिलाओं के लिए सपा प्रमुख जरा और मुलायम हो गए हैं. सुन्दर महिलाओं के लिए खास गिफ्ट तैयार किया गया है. अगले चुनाव में सभी सुन्दर टाईप की महिलाएं सपा की तरफ से चुनाव लड़ सकेंगी.पर सौंदर्य  विशेषज्ञ मान रहे हैं कि इससे सपा और मुश्किलें और भी बढ़ सक्तेद हैं. क्यूंकि बेरोजगारी भत्ते कि तरह इसमें सुन्दर महिलाओं को गच्चा नहीं दिया जा सकता. इस घोषणा के बाद अचानक से ब्यूटी पार्लर्स में भीड़ बढ़ गयी है, सुन्दरता के नए पैमाने उफना रहे है. समाजशास्त्री हैरान है. ऐसा परिवर्तन पिच्च्ले कई दशकों में नहीं देखा गया है. युवा मुख्यमंत्री ने अपने युवा कार्यकाल कि इसे सबसे बड़ी उपलब्धि घोषित कर दिया है. पर राम जेठमलानी साहब जी ने  दीवाली की सारी तैयारियों पर पानी फेरते हुए राम के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर दिया है. लोगों के सामने राष्ट्रीय संकट उत्पन्न हो गया है की आखिर किसके लौटने की खुशियों में अबके दीप जलाये जाएँ. केंद्रीय सरकार ने विशेष सतर्कता दिखाते हुए कमेटी गठित कर दी है और राष्ट्रीय युवराज लोगों की भावनाएं जानने के लिए अपने क्षेत्र के दौरे पर निकल चुके हैं.

वैधानिक चेतावनी- सभी ऑफर्स पर नियम व शर्तें लागू. बिका हुआ माल वापस लेने की स्थिति में कोई नहीं है.







 

बुधवार, 7 नवंबर 2012

इरोम की अनदेखी क्यों

भारत के सेवन सिस्टर्स कहे जाने वाले राज्यों में से एक मणिपुर की बेटी हैं इरोम शर्मिला. १४ मार्च १९७२ को जन्मी इरोम को आम लड़कियों की तरह ही थीं. लेकिन उनकी ज़िन्दगी के मायने २ नवम्बर २००२ को मालोम के बस स्टैंड पर घटी एक घटना ने बदल दिए. उस वक़्त एक सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता इरोम एक शांति रैली की तैयारी में थीं. उस दिन सेना के सशस्त्र बलों ने दस बेगुनाह लोगों की गोलियों से भूनकर हत्या कर दी. कई सारे लोगों की तरह इरोम भी उस घटना की प्रत्यक्षदर्शी थीं. लेकिन इस घटना ने इरोम इतना आहात किया की उसके अगले ही दिन ३ नवम्बर से वो सशस्त्र बल विशेसधिकार कानून के विरोध में अनशन शुरू कर दिया. ठीक उसके तीन दिनों बाद इरोम को आत्महत्या के प्रयास के जुर्म में सरकार ने गिरफ्तार कर लिया. तब से आज तक इरोम साल भर में सिर्फ तीन चार दिनों के लिए बाहर आती हैं और फिर से जेल में डाल दी जाती हैं. इरोम चानू शर्मिला की व्यथा भले ही दिल्ली में बैठी सरकारें या देशवासी न समझते हों पर जवाहर लाल नेहरु अस्पताल में  टेंट से बना वो वार्ड बारह सालों से इरोम की दृढ़ इक्छाशक्ति का गवाह रहा रहा है जहाँ उन्हें पिछले बारह सालों से नाक से जबरन तरल पदार्थ ठूंसा जा रहे हैं जिससे वे मर न सकें. इरोम के का ये अनशन दुनिया का सबसे लम्बे समय तक चलने वाला अनशन है लेकिन उनका नाम कहीं नहीं दर्ज है. कुछ ऑनलाइन वेब साईट्स को छोड़ कर मुख्यधारा के किसी भी मीडिया संस्थान को इरोम के इस संघर्ष में कोई दिलचस्पी नहीं है.  बात ये नहीं कि हम किस तरह के भविष्य कि और अग्रसर होंगे ऐसे अनशनों से. यहाँ मसला ये है कि क्या हम इतने संवेदनहीन समाज में रहते हैं कि यहाँ किसी कि नहीं सुनी जाती. यह सच है कि इरोम कि जो मांगे हैं अगर उन्हें मांग लिया जाये तो भारत की अखंडता खतरे में पड़ जाएगी. बारह सालों से चले आ रहे इस अनशन की अनदेखी कर के हम किस भविष्य की और बढ़ रहे है? क्या इससे अशांति नहीं बढ़ रही..क्या सरकारों को नहीं जैसे ही यह मुद्दा उठा था संज्ञान में नहीं लेना चाहिए था... अगर ऐसा करती तो ये बात इतनी संवेदनशील न होने पाती...ये सच है की अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता लेकिन सनद रहे इरोम भी अकेली है और बारह साल से अकेली जिसने भारत सरकार सहित सेना की साख पर भी बट्टा लगा दिया है.. कुछ लोगों के ये तर्क हो सकते हैं की सेना की वजह से देश सुरक्षित है....बोर्डर पर शहीद जवानों की सुध कोई नहीं लेता...वगैरह वगैरह...मैं सेना की कर्तव्यनिष्ठ पर कोई प्रश्नचिंह नहीं लगा रही लेकिन सिर्फ कुछ घटनाएं सरे किये कराये पर पानी फेर देती हैं.जैसा की पूर्वोत्तर में हुआ...मैं सिर्फ इतना कहना चाहती की हम ऐसे किसी भी मुद्दे खासकर सेना की ज्यादती से जुड़े मुद्दों की अनदेखी बिलकुल न करें. सेना को देश की सुरक्षा के लिए तैनात किया गया है महिलाओं और बेकसूरों के साथ बदसलूकी के लिए नहीं...आपसी बात से हमने बड़े बड़े मुद्दे हल किये हैं...और एक बात मुम्बई हमलों में पकिस्तान की भूमिका पता होने के बाद भी हम उनसे गलबहियां करने को उताव्लें हैं तो फिर क्यों अपने ही देश की एक नागरिक के साथ ऐसा सुलूक किया जा रहा है..कम से कम उसे सुना तो जाये. इरोम की मांग नाजायज़ हो सकती पर एक महिला और इंसान होने के नाते उसे सुनना होगा.......................