गुरुवार, 22 नवंबर 2012

वो मरना नहीं चाहती थी

   वो मरना नहीं चाहती थी. वह पढ़ी-लिखी और पेशे से दन्त चिकित्सक थी. हर मां की तरह वह भी आने वाले मेहमान को लेकर खुश थी. उसे आपने बच्चे से प्यार नहीं था ऐसा नहीं कह सकते. डाक्टर्स ने उसे बताया था की बच्चे के बचने की कोई उम्मीद नहीं. फिर भी उसे मरना होगा क्योंकि धर्म या कानून के लिए इंसान की जि़ंदगी के कोई मायने नहीं.आयरलैंड में भारतीय मूल की दन्त चिकित्सक सविता हलप्पनवार की मौत ने धर्म को कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया है. क्या धर्म की दखलंदाज़ी जीवन में इतनी होनी चाहिए की  किसी की जान पर बन आये. सविता को गर्भपात की की अनुमति नहीं मिली क्योंकि उनके गर्भ में पल रहा सत्रह सप्ताह का का भ्रूण जिंदा था और कैथोलिक देश आयरलैंड में कानून के मुताबिक यह गैरकानूनी है. सविता के पति प्रवीण के मुताबिक वो लगातार गर्भपात के लिए कहती रहीं पर डाक्टर्स ने धर्म का हवाला देकर उन्हें मना कर दिया. सविता कि मौत का कारण सेप्टीसीमिया था. हालाँकि सविता ने इस बात की भी दलील दी थी कि वह भारतीय मूल की हैं और हिन्दू धर्म से हैं. आखिरकार 28 अक्टूबर को सविता ने दुनिया को अलविदा कह दिया. सविता की मौत से समूचे आयरलैंड में गर्भपात कानून पर नए सिरे से बहस शुरू हो गयी है और इसे बदलने आवाजें उठने लगी हैं. ये विडंबना है की एक मां को अपनी कोख पर कोई अधिकार नहीं है. उसे अपने बच्चे को जन्म देना है या नहीं ये धर्म तय करेगा. जब जन्म देने की पीड़ा जन्मदात्री की होती है तो यह अधिकार उसे ही होना चाहिए की उसे आपने बच्चे को जन्म देना है या नहीं. दूसरी बात यह की जो हमसे ज्यादा सभ्य होने का दंभ भरते हैं, जो विकास के खांचे में सहूलियत से फिट बैठते हैं, जिनके पेट हमसे ज्यादा भरे हुए है और जिन्होंने दुनिया के पिछड़ों को सिखाने का ठेका ले रखा है . उनकी नजऱ में हम साँपों के देश से हैं. फिर उनके देश में ऐसी घटना कैसे घटी. शायद ये पाखंडी देशों के चोंचले हैं जिनकी वजह से सविता को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा. सविता कि मौत का कारण सेप्टीसीमिया था. या ये उदारवादी देश होने का दिखावा है. ये वाही देश हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि  महिलाएं यहाँ ज़्यादा स्वतंत्र हैं.  गौरतलब है कि आयरलैंड से कई दंपत्ति अबोर्शन के लिए भारत आते हैं. इसका मतलब साफ़ है कि वहां के नागरिक भी इन कानूनों बदलाव चाहते हैं. भारत सरकार की तरफ से बस इतनी प्रतिकिया सामने आई है कि वह पूरे मामले पर नजऱ रखे हुए है. एक तरह से इस मामले में आयरलैंड के भारतीय उच्चायोग को तत्परता दिखानी चाहिए थी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.सभी को अपने अपने धर्म को मानने की आज़ादी होनी चाहिए लेकिन समस्या तब खडी होती है जब धर्म दूसरों की आज़ादी के आड़े आता है. किसी भी धर्म की सीमाएं इतनी लम्बी नहीं होनी चाहिए कि इंसान की जि़ंदगी ही उसके आगे बौनी साबित हो जाये. सविता के मामले ने इतना तो साबित कर दिया है कि भले ही यह मामला कानून या किसी धर्म से जुड़ा हो लेकिन किसी महिला के लिए हालात अब भी आदम ज़माने जैसे हैं. चाहे वह धर्म हो या समाज, महिलाओं को हमेशा दोयम दर्जे का माना गया है. महिला सशक्तिकरण के सारे प्रयास यहीं आकर दम तोड़ देते हैं. सविता की मौत से आयरलैंड में महिला अधिकारों पर नयी बहस शुरू हो गयी है. और इसे बदलने की बात की जा रही है.

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