शनिवार, 17 अगस्त 2013

मिटटी था मैं 

तुमने संभाला 

हथेली की थपकियाँ देकर

गढ़ दिया कच्चा घड़ा 

गढ़ा ..........तो अच्छा किया 

पर अपनी आंच की भट्टी में 

जो पकाया 

तो कुछ और न बन सका

उससे फिर दोबारा 

-----------------------संध्या
लो! मैंने भिजवा दीं हैं

प्रेम पर खुली बहस की

दावतें

(हो सके तो तुम भी आना)

-संध्या
मुझे ताजमहल से

कोफ़्त है

ऐसी क़ब्र बनाना

जहाँ इंसानों की

आवा-जाही न हो

 

-------------------संध्या   

शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

मेरी कुछ हायकू रचनायें


बंद कर दी
डिबिया रंगों की? जान
थी उसमें
-------------

पकड़ लाये
थे, जो तितली तुम
मैंने उड़ा दी
-----------------

आसमान ले
जाओ अपना लौटा दो
मेरी ज़मीन
---------------

जानते तो थे
अब बताओ कहाँ
रखूं उदासी
-------------

तुम गये तो
कमरा भर सांसें
उलझ गयीं
-------------

मिलन! क्षण
विदा से पहले के
आसान नहीं
------------

गुपचुप ना
आया करो, सोचेगी
क्या तन्हाई
-----------

आज ख़ुशी से
गले मिला, रीता जो
स्मृतिचिह्न
------------

सीमाएं देश
तो चलूँ? चौखट है
अपनी वहां
-------------

फड़फड़ाये
पंख, उड़ा जो, टोबा
टेक सिंह था
------------

लड़ मरेंगे
ज़िंदा है धर्म, मुल्क़
मरता रहा
--------------

क़िसान क़र्ज
श्रद्धांजलि में, मैंने
आज़ादी लिखी
------------
............................संध्या





















-























































































































































































































































































































मंगलवार, 13 अगस्त 2013

मजदूर




पहली बार मेरी कविता को किसी पत्रिका में स्थान प्राप्त हुआ है ………लखनऊ से प्रकाशित पत्रिका "ग्राम्य सन्देश" में मेरी कविता मजदूर छपी है 




सपने अधूरे ही छोड़ 
दिए होंगे 
तुमने आँखों में
सुबह की रोज़ी-रोटी के 
जुगाड़ में 
घरबार छोड़कर 
परदेशी से बन गए हो 
अपने ही देश में 
चाँद सिक्कों की तलाश में 
घर से संदेशा आया है 
खाट लग गयी है 
बूढी माँ
और तुम्हारी लाडली 
छुटकी बीमार है 
पिछले बरस खेत जो 
गिरवी रखा था 
क़र्ज़ के लिए 
साहूकार रोज़ दरवाजे पर 
गालियाँ देकर जाता है 
अबके बारिश में 
ढह गया है 
घरवाली ने मना 
कर दिया है
लाल चूड़ियाँ लाने को
घर औरों के बनाते-बनाते 
तुम्हारी अपनी गृहस्थी 
सिमट गयी है 
जूट के बोरों में 
जो सज जाया करती है 
कहीं भी सड़क किनारे 
ईंट के चूल्हे पर 
भूख को संकते हो 
ज़िन्दगी के तवे पर 
फिर मांजते हुए उसे 
हाथ रंग जाते हैं 
अभावों की कालिख से 
अपनी हाड़-तोड़ मेहनत से 
खड़े कर देना तुम 
ऊंची इमारतें
जगमगाते आलिशान मॉल्स 
और संसद में बैठकर 
चंद लोग तय कर देंगे
तुम्हारे पसीने की कीमत 
महज़ बत्तीस रुपये 
किसी हादसे में 
सांसे रूठ गयीं अगर 
तो आवाज़ नहीं  उठा पाउँगा   
 मुआवज़े के लिए 
जो मिलेगा सिर्फ़ 
कागज़ों पर 
इतना मजबूर हूँ मैं 
क्योंकि...
मजदूर हूँ मैं                                          -संध्या
इस कविता का कोई शीर्षक मैंने मैनें जानकर नहीं रखा है ......शीर्षक रखना कई बार मुझे कविता को एक परिधि में बांध देना लगता है.......जैसे कविता के साथ कोई तस्वीर साझा कर दी जाए तो कविता के मानी का पूर्वाभास लग जाता है.....और यहाँ मैं अपनी बात शून्य से शुरू करना चाहती हूँ ..........उसके बाद जो समझा या गढ़ा जाए वो विशुद्ध रूप से कविता की उपज हो......

प्रारंभ से शुरुआत करेंगे हम 
हाँ ...एकदम शून्य से 
हमारा अपना कोई नाम नहीं होगा 
जहाँ अंतिम बिंदु होगा 
मानव सभ्यता का 
कर दी जायेगी भाषा की अंत्येष्टि
दूर चिनार के जंगलों में बोलते 
किसी पोशनूल की कूक से 
झरेंगे शब्द 
बेडौल औज़ार गढ़ते हुए 
मिल जायेगी जीवन दायिनी आग 
नदी बहाकर लाएगी जो पत्थर तराशकर 
साथ बैठ सुस्तायेंगे 
मैं तय करूंगा अपने खेतों की बाड़
मिलकर हल जोतेंगे
इस मिटटी और पसीने के घोल से  
अपनी गुफ़ा की दीवारों पर उकेर देंगे 
प्रेम-क्षणों के भित्ति चित्र
इसी बीच मैं बो दूंगा धरती का पहला बीज
हमारा बीज ......
मिटटी की हांडी में पकते चावल की 
बुदबुदाहट संग 
तुम गुनगुनाया करना बिना सरगम का 
कोई अजनबी संगीत 
भट्ठी की रौशनी में तुम्हें देखते हुए मैं 
लिखा करूंगा अपठनीय लिपि में कविता
हम यूं ही असभ्य बने रहेंगे 
और इनकार कर देंगे सभ्यता के क्रम में 
मंगल ग्राह पर कृत्रिम ऑक्सीजन से लैस 
विकास की बस्तियां बसाने से 


(और भूल जायेंगे कि हमसे पहले भी थे कोई श्रद्धा- मनु ................इससे पहले लिखी थी जयशंकर ने लिखी थी कोई कामायनी)  


------------------------------संध्या     







सोमवार, 12 अगस्त 2013

दिन उमस भरे हैं...बोझिल बादलों ने इंकार कर दिया है...दूसरों का हिस्सा ले जाने से...हवाओं में सख़्त नमी है...इतनी की सांस लेने भर से घूँट भर जाये...क्या कहते हो अब तो आँखों ने भी...इसकी हामीभर दी है.

(उमस वाले बादलों ने धोखा किया...आपस में झगड़े और जमकर बरस गये...मैं नम आँखों से उन्हें बरसता देखा किया)

-संध्या
मैंने आसमान को ज़मीन कहा..... और जमीन को हौसला मेरा......ऊपर बढ़ना मेरी फ़ितरत न थी...जितना ऊपर बढ़ा .......उसके दोगुना जमीन में ......किसी की ज़िद है मुझे कतरते रहने की...और मेरी सनक जमीन में ऊंचा उठते रहना 

(शायद नयी उमर का जोश था ) 



-संध्या
कोई नयी बात तो नहीं थी...बस आधे -पूरे का खेल था...ज्यादा कुछ नहीं....आधा चाँद ...पूरा सूरज.....आधी प्यास का समंदर....पूरी तृप्त नदी .....मकान बनाने का सामान ......मौरंग से बीने गए कुछ पत्थर और शंख.....शंख ही थे बिना आवाज़ वाले...पूरी पाजेब और आधी टूटी चूड़ियाँ....आधी जली सिगरेट के टुकड़े और पूरी रातें...पता नहीं मुझे आधे से लगाव था या तुम्हारे पूरेपन से प्यार..... तुम्हारे पूरे होने की चाहत में.....अधूरी होती मैं..


(तुम गर्व करो अपने पूरा होने में ......और मैं अपने अधूरेपन पर)


-संध्या

भूत के पांव सी 

एकदम खड़ी दोपहरी 

सूरज पीठ पर उठाये 

एक रिक्शे वाला
 
मैं पसीने से तरबतर

सलीके से पोछती हूँ 

चेहरा अपना 

बस अगले मोड़ तक कहकर 

धप्प से बैठ जाती हूँ

गर्दन से ऊंची इमारतें 

पुच्छल तारे सी चमक वाले 

दुनिया बदलने का दावा करते 

चमकीले विज्ञापन

लाल बत्ती की गाड़ी 

बनी ठनी एक औरत 

हाथ में पिघलती वनीला आइसक्रीम 

और भीख मांगता बच्चा

सन क्रीम की परत चढ़ाए एक लड़की 

घर पहुँचने की जल्दी
 
मैं टोकती हूँ 

रिक्शा थोडा तेज चलाओ 

इतने में बदन झुलसाती 

तेज़ लू का झोंका 

और हवा में उड़ती 

उसकी बिना हाथ की खाली आस्तीन 

रिक्शे वाले 'प्रमोद'

सचमुच रिक्शा पाँव से नहीं चलता 

...न तो हाथों से 

पेट तय करता है रफ़्तार इसकी 

अखबार के तीसरे पन्ने पर

बेबसी की कीमत डेढ़ सौ रुपये

मैंने कुंठा में खबर का गला घोंटा

और कविता लिख दी


(गरीबी की ठीक ठाक कहीं कीमत लगे तो बताना .....मैं बेंचूगी कविता )

-संध्या

हिचकियाँ


हिचकियाँ

पता नहीं तुम याद कर रहे थे

या जब कर रहे थे भूलने की कोशिश

तब आई थी मुझे हिचकियाँ

कहावतें कहती हैं कि चुराकर खायी गयी

चीज़ से भी आती हैं हिचकियाँ

मैं स्वीकार करता हूँ 

उन सब बातों का चुराना.... 

जो तुमसे चाहकर भी

कह नहीं सका कभी

घुट गयी थी मेरी सब हिचकियाँ

जबकि हिचकियों का विज्ञान

कुछ और ही कहता है

मेरी सांस में अटक गया था

जब तुम्हारी याद का एक निवाला

हिचकी तब भी आई थी

तुमने ध्यान नहीं दिया होगा

तुम्हारी आदत भी कहाँ है

सब कुछ ध्यान रखने की

गले लगना और गीला कंधा

तब बंध गयी थीं गला भर भरकर 

हिचकियाँ..............

जिस दिन मैंने तुम्हारा एकलौता ख़त 

नदी में में बहा दिया था 

पत्थर बांधकर

शायद वो मेरी आख़िरी हिचकी थी 

(मैं मर तो उसी दिन गया था......हिचकियाँ मेरे जिंदा होने का सुबूत थीं)

-संध्या

प्रेम में दूसरा क़दम 

नहीं उठाया गया मुझसे 

पहला ही भरपूर कहाँ

जी पाया कोई एक जनम में 

....................संध्या

  1. मत भूलो तमाम उड़ानें हैं आसमान के उस पार 
  तुम ले जा सकते हो अपना डिब्बाबंद प्रेम



2

हमने उसे सफेद संगमरमर कहा
बच्चे कैसे समझते ताजमहल का मर्म भला
जातक कथाओं में शहंशाह कहां?


3



और अंतिम उपहारस्वरूप उसने भिजवाई
एक जोड़ा कठपुतलियां,आम प्रेम कहानी में
पढ़ा दो मौतों का मर्सिया

4

तुम्हारे नाम की एक उबासी 
पुराने संदूक में रखकर भूला और इसतरह
प्रेम में नया औज़ार जुड़ा
-संध्या
· 



5
तुम मनाओ अपनी अपनी ईद

मेरे घर से चाँद का जनाज़ा निकला

सिर से छत भी गयी


6



ज्यादा नहीं मांगती 

बस लौटा देना 

विदा से पहले के 

कुछ क्षण मुझे 

( जो तुम लौटा न सके )


7


अक्सर कविताओं में मैं


'ती' को 'ता' कर देती हूँ

जानती हूँ कि कुछ 

कलम वाले लोग कह उठेंगे 

स्त्री है बस लिख सकती है 

'बिस्तर के अनुभव अच्छे'

जीने मरने की कसमें

इस कड़ी में सबसे पहले संवाद मरा

फिर वो सब बातें

घर पहुँचने का लम्बा वाला रास्ता

चूड़ी के बदले लिया गया कड़ा मरा

दुपट्टे के छोर से उलझ गया वक़्त और

टांकने के बहाने लिया था जो

कुरते का बटन भी मर गया

दीवार परकैलेण्डर की पीठ का निशान

पुरानी तारीख़ पर लगा नया गोला

मनौती के पेड़ पर खुरचा

बिना हाशिये का नाम

चोरी से रखे गए सलामती के

व्रत-उपवास मरे

फिर एक दिन तुमने कहला भेजा

भिजवा दो मेरा वो एकलौता ख़त

जिसमें लिखा था छुपाकर

मेरे नाम का सिर्फ़ पहला अक्षर

अनचीन्हा सा डर रहा होगा

तभी तो तुमने बढ़ा दी थी

मेरे नाम के पीछे ई की स्त्रीसूचक मात्रा

इस तरह मेरा नाम भी

मरता रहा शनैः शनैः

मान्य सूरज जब ढूँढा गया

जब तुम्हारे निष्कलंक माथे का

इस कड़ी का अंतिम गवाह

चाँद भी मर गया
.............................................

(मरना इतना आसान कब था.....लो मैनें जातक कथाओं में ज़िंदा रखी है मरी हुई हर चीज़.......जिसे बच्चे सीखेंगे संस्कार की तरह)

---------------------संध्या

मंगलवार, 30 जुलाई 2013

संभवतः मेरी अब तक की सबसे लम्बी कविता )




चलो एक और खेल खेलते हैं

नहीं शतरंज नहीं

चालें मुझसे चली न जाएँगी

कैसी भी हों

छुपन-छुपायी या किरन परी

जैसा भी कुछ नहीं

अँधेरे के रिश्तों में

वो बात नहीं आती

विष अमृत अच्छा है पर

मैं किसी सिंड्रेला जैसे

बंद कांच के बक्से में

सदियों तक सोना नहीं चाहती

सिकड़ी और ऐट-मैट खेलने में तो

मैं पक्की हूँ

लेकिन फिर वही

मेरी आदत है जानबूझ कर

हार जाने की और

सबसे ज्यादा घर तुम बसा ले जाओगे

स्टेच्यू को जाने ही दो

मैं यादों के साथ ठहर जाऊँगी

और तुम सफ़र में निकल जाओगे

इतनी दूर जहाँ से

नहीं दिखेगी परछाईं भी

सुनो! कोई ऐसा खेल सुझाओ न

जिसमें बात बराबरी पर छूटे

चलो ऐसा करते हैं कि..

अपने तलुवे सूरज की ओर करें

क्यूंकि इन्हें जरूरत नहीं होती

किस्मत वाली रेखाओं की

चेहरे और चाँद का किस्सा पुराना ठहरा

अब बंद करके आखें

महसूसना उजाले अपने अपने

कोशिश करना खोज सको

कोई नयी रौशनी उफ़ुक़ के उस पार ..................................................संध्या








-चित्र गूगल से साभार

Photo: (संभवतः मेरी अब तक की सबसे लम्बी कविता )

चलो एक और खेल खेलते हैं 

नहीं शतरंज नहीं 

चालें मुझसे चली न जाएँगी 

कैसी भी हों 

छुपन-छुपायी या किरन परी 

जैसा भी कुछ नहीं  

अँधेरे के  रिश्तों में 

वो बात नहीं आती 

विष अमृत अच्छा है पर 

मैं किसी सिंड्रेला जैसे 

बंद कांच के बक्से में 

सदियों तक सोना नहीं चाहती 

सिकड़ी और ऐट-मैट खेलने में तो 

मैं पक्की हूँ 

लेकिन फिर वही 

मेरी आदत है जानबूझ कर 

हार जाने की और 

सबसे ज्यादा घर तुम बसा ले जाओगे 

स्टेच्यू को जाने ही दो 

मैं यादों के साथ ठहर जाऊँगी

और तुम सफ़र में निकल जाओगे 

इतनी दूर जहाँ से 

नहीं दिखेगी परछाईं भी 

सुनो! कोई ऐसा खेल सुझाओ न 

जिसमें बात बराबरी पर छूटे 

चलो ऐसा करते हैं कि..

अपने तलुवे सूरज की ओर करें  

क्यूंकि इन्हें जरूरत नहीं होती 

किस्मत वाली रेखाओं की 

चेहरे और चाँद का किस्सा पुराना ठहरा 

अब बंद करके आखें 

महसूसना उजाले अपने अपने 

कोशिश करना खोज सको 

कोई नयी रौशनी उफ़ुक़ के उस पार   ..................................................संध्या 



 




-चित्र गूगल से साभार

सोमवार, 29 जुलाई 2013

िप्रय को भेजे ख़त में

तुमने िलख दी है 

िजन बादलों की रंगत 

गुलाबी है

देखो शायद िछल गया है िज़स्म

आसमान की उम्मीदों का

-संध्या


तुम्हारे लगाये मोगरे 

ख़ूब महकते हैं आजकल

दालान में 

हाँ अच्छे से याद है

बीज ही रोपकर गये थे

मैंने बस सींचा भर है

और मेरे बबूल में भी फूल आए हैं
(मेरे िलए मौसम कभी आने जाने की चीज़ नहीं थे। मैंने अपने मौसम ख़ुद कमाये हैं)

-संंध्या

बिहार के मिड डे मील पीड़ित बच्चों के लिए

मरना आम बात है

इतिहास  की गर्दन मरोड़कर 

देख लें

लेकिन मासूम भूख का 

खाने की मौत मर जाना 
सदियों की त्रासदी है

(आज ज़िंदगी  सपनों की दहलीज़ पर दफ़ना दी गई। आज मौत सचमुच बहुत मासूम थी)

-संध्या


एक और बिटिया के लिए

बदन पर साठ घाव

उफ़्फ़्फ़्फ़.........

नज़र से बचने को

नन्हें हाथों ने 

काली चूिड़याँ पहनी थीं

-संध्या


टुकड़ा टुकड़ा जीता हूँ तुम्हें

जैसे दीवार पर चस्पा

क़ाग़ज़ की क़तरनों का

कोई कोलाज हो तुम

-संध्या

गूलर के फूल

आज दरवाज़े पर दस्तक देकर 

एक और ख़त वापिस आया

शाम की केंचुल उतार 

आसमान रात हो गया 

जब नदी ब्रह्मकमल की तलाश में 

पहाड़- पहाड़ चढ़ी 

जब आसमान चमकीला और 

चाँद काला था 

जब मैनें तुम्हारी आँखों का 

नमक चखा 

उस दिन सच पूछो ........

मैंने गूलर के फूल चखे 

---------------------------------------संध्या