गुरुवार, 24 जनवरी 2013

ईंटे महज़ पत्थर नहीँ होती
कई बार भावनाओं की अधिकता
उन्हें कठोर बना देती है
ये सोचकर बैठी रह जाती है
ईंटों के उस चार दीवारों वाले
बिना छत के कमरे में
जिसके एक कोने में
गमले की तुलसी ढूँढती है
अपनी ज़मीन...
ताकि पनत सकें उसक बीज
मुरझा जाने के बाद
अब अखरती नहीं पास की झोपड़ी में
खटखटाती सिलाई मशीन
जो गुनगुनाते हुए सिलती है
ज़िंदगी के झोल हर शाम
तुम वादी के पोशनूल होते
तो सुन लेती तुम्हारी आवाज़
चाहो तो आ सकते हो
सूरज बनकर
मैं सह लूंगी तुम्हारा हर ताप
मगर शर्त है
वापस मत मांगना
कोई कर्ण मुझसे
जिसे मैं लौटा न सकूँगी
-संध्या यादव
ख्वाब देखते हुए
मैंने तय किया था
उड़ान भरकर जिंदा रहेंगे
बेजान पर
और निर्जीव बना लूंगी इन
जिंदा पैरों को
ताकि बैठ सकूँ मैं
बिजली के तारों पर
महसूस करूँ उन
दरख्तों का खुरदुरापन
जो साक्षी हैं सृजन के
और जब आकाश की
गहराइयों में गोते लगाते-लगाते
यदि थक जाऊं
तो उतर सकूँ
यथार्थ के पथरीले धरातल पर
साथी! आसान नहीं
मगर फिर भी
प्रण किया था
अपने ही जिस्म के एक
हिस्से को निर्जीव बनाने का
ताकि बचा ले जाऊं
बाकि को ज़ख़्मी होने से
पर देखो
घृणा न करना
परख नहीं गर इनको
कोमल एहसासों की
क्योंकि जब पंख उड़ान भरेंगे
फिर से सपनों की
तिनका ये निर्जीव ही थामेंगे
-संध्या
ए दिल मेरे!बेवजह ही सही तू ज़िद तो कर
हम भी देखेंगे खील नसीब के कैसे होते हैं

जिन परिंदों ने खो दिए पंख उड़ान से पहले ही
खुले आसमान में उनके हौसले बड़े हसीन होते हैं

चुभन है कब्र में सोये उस बच्चे की आँखों में
बरसी साल दर साल जो नाकामी की मनाते हैं

सुना है काफी चल पड़े हैं मंजिल की तरफ़
ज़रा संभलकर सफ़र के हारे हुए रास्ता दिखाते हैं

हैरान क्यूँ है ये नए ज़माने का इश्क़ भला
किस्से मोहब्बत के कब दुनिया की नज़र में ज़हीन होते हैं

उनसे मिलना तो अच्छा है मगर ये भी हकीक़त है
जब फासले मीलों के हुए हम करीब उतने होते हैं
.............................संध्या यादव
ए दिल मेरे!बेवजह ही सही तू ज़िद तो कर
हम भी देखेंगे खील नसीब के कैसे होते हैं

जिन परिंदों ने खो दिए पंख उड़ान से पहले ही
खुले आसमान में उनके हौसले बड़े हसीन होते हैं

चुभन है कब्र में सोये उस बच्चे की आँखों में
बरसी साल दर साल जो नाकामी की मनाते हैं

सुना है काफी चल पड़े हैं मंजिल की तरफ़
ज़रा संभलकर सफ़र के हारे हुए रास्ता दिखाते हैं

हैरान क्यूँ है ये नए ज़माने का इश्क़ भला
किस्से मोहब्बत के कब दुनिया की नज़र में ज़हीन होते हैं

उनसे मिलना तो अच्छा है मगर ये भी हकीक़त है
जब फासले मीलों के हुए हम करीब उतने होते हैं
.............................संध्या यादव
तूफ़ान थम चुका है
ये सोचकर
वे लौट आये थे
किनारों की ओर
मगर चंद धारावाहिक भी
नहीं बचा सके
जिंदा उन दोनों के
जिस्म को
जिनके दिल साथ
धड़कते थे
ये सुनकर
लोगों से भरे घर में
बिना कुछ कहे
सर झुकाए
उसने दिल बचाए रखा
और अनामिका
किसी के नाम कर दी ..................संध्या यादव
तमाम उम्र से भला है या मौला
नवाज़ दे जी मुझे थोड़ी सी मोहब्बत से

उसको संभाले रखना कोई कुफ़्र तो नहीं
क्या हुआ जो मेरी सांसें फिसल गयी हाथ से

जिंदा रहने का हौसला उसे क्या बंधाना
मौतें देखी है जिसने बेहद करीब से

तेरे दर्द से वास्ता है मेरे दिल का
गोया इश्क़ रखता हूँ मैं अपने रकीब से - संध्या यादव
बहुत बड़ी चीज़ मांग रही हूँ तुमसे
वचन दो कि तुम
हिम्मत रखोगी
बाकियों की तरह
कमज़ोर नहीं पड़ोगी
आत्महत्या कर दोगी
अपनी उस सोच का
जो कहती है कि
स्त्री की शुचिता उसकी देह से
जुड़ी है
बहुत मुश्किल है लेकिन फिर भी
उम्मीद है करती हूँ कि
तुम दोगुनी इच्छाशक्ति के साथ जियोगी
क्योंकि जी रही है
अरुणा शानबाग भी
तुम अपनी, उसकी और हम सबकी
लड़ाई लड़ोगी और पूछोगी
एक सवाल
कि आख़िर क्यों दिलवालों के शहर में
घूमते हैं कुछ लोग
पैरों में दिलों के जूते पहनकर
(दिल्ली मेँ गैंगरेप की शिकार उस लड़की के लिए)
-संध्या यादव
जब चेहरे शहरों के सलोने हो गये
क़द इंसानियत के बौने हो गये
-संध्या





कोई तकता होगा राह मेरी भी
आरज़ू लिए उम्र भर चलते रहे
-संध्या यादव
उफ़ान पर है लहू इस क़दर

चढ़ाकर देख लो अपनी कोई भी हाँडी

तुम्हारे कानों का ठंडा शीशा

न पिघला दे तो कहना

-संध्या यादव
मौत फिर किसी से हारी है
और आईने मेँ हैरान
ज़िंदगी का चेहरा
झक सफेद है
-संध्या यादव(दामिनी की याद में)
नपुंसक हो चुकी हैं अगर

ये सरकारें

तो लगा लें धाराएँ

अपने अपने सेहन में

फ़िलहाल हमारे दिलों में

अभी खिड़कियाँ बाक़ी हैं

अगर मर चुका है

तुम्हारी आँखों का पानी

और उतर गया है सीधे नसों में

तो मत भोगो सत्ता के अधिकार

लहू में हमारे अभी बहुत

लोहा बाक़ी है

-संध्या यादव
ज़बान वाले गूँगे हैं हम

कपड़े पहनकर नँगे है हम

लोकतंत्र की बैसाखी वाले

लंगड़े है हम

काले मुँह वालों की

जनता हैं हम

सुनो आज़ाद हैं हम

-संध्या यादव
चलो अब बहुत हुआ ये
दूसरों को जगाने से
बेहतर है
ढूंढ लिए जायें
अपने जीवन के
हर दायरे के कर्त्तव्य
और जी जान से जुट जायें
उन्हें अंजाम तक पहुँचाने में
ताकि कल को कोई
छींट अगर उठे तुम्हारी तरफ़
तो उसे साफ़ कर सको
बिना किसी से आँखें चुराए
-संध्या यादव
सुनहरे से गुलाबी हो जाता है

हरसिंगार की सबसे ऊँची फुनगी पर

नयी कोंपल सहमी हुई बाहर आती है

छोटी बहना हठ करके जब

सरसों के पीले खेत दिखाती है

जाड़े की बारिश में भीगते हुए जब

तुम्हारे शहर की चाय याद आती है

और हर बूँद तस्वीर तुम्हारी लाती है

लम्बा इँतज़ार और कुछ पल की मुलाक़ात के बाद

जब स्टेशन की भीड़ छँट जाती है

अहाते में फिर से बुलबुल की

आवाजाही बढ़ जाती है

नोटबुक की एक नज़्म जब

पतझड़ों से न डरने की हिदायत दे जाती है

तुम्हारी यादों के हस्ताक्षर से साथी

बसंत की ख़ुशबू आती है
-संध्या
मैंने कई बार सपनों की गहराई में

चुपके से गोते लगाये हैं

हर बार हाथ आता है

तुम्हारी यादों का मोती
जिसे रख लेती हूँ

मन की पोटली में छिपाकर

सांस रोके खोजती हूँ

निपट अँधेरों में...

पर अफ़सोस कोई रास्ता

तुम तक नहीं जाता

कोई साँकल ढीली नहीं पड़ती

और न ही कोई कुँडी सरकती है

मौन साधे बस कुछ गलियाँ हैं

जिन पर चला जा सकता है

ताउम्र अकेले फ़ासले बनाकर

-संध्या यादव
ज़रा हौले से

हल्के हाथों से

आहिस्ता आहिस्ता हटाना

सपनों का ये ट्रेसिंग पेपर

जो अब मेरे भी हैं

जिन्हें सजाते हुए

मैंनें सदियाँ जी हैं

जिनमें हमारी साँसे हैं

धड़कनों का अनहद शोर है

जहाँ नरकुल की तरह

वक़्त खड़ा है

सिवार की तरह

ज़िंदगी उतराती है

जहाँ पीठ दिखाकर

अँधियारा पाख बैठता है

जहां तुम फैले हो

कच्ची धूप की तरह

और मुझमें समा जाते हो

कुनकुनाहट के साथ

-संध्या यादव
हम क्यूँ कहें कि बिन तेरे मर जायेंगे
जिंदा रहकर उनकी ख़बर तो पायेंगे

बसंत की ख़ातिर पतझड़ों से ये कोफ़्त कैसी
शाख़ से टूटकर पत्ते किधर जायेंगे

सुना है रातें बड़े शहरों की सोती नहीं
कुछ सपने बिकने अँधेरों में आँयेंगे

औरों से इश्क़ की ये बात अच्छी है
हमसे भी बनाये रखो,सँभल जायेंगे

अब नाकें हो गयीं हिंदू मुसलमान आदमी की
साँस लेने किस हवा में जायेंगे

-संध्या यादव
आज जब मां ने फिर परबतिया की बात छेड़ी तो साधना असहज हो उठी। तेजी से अपने स्टडी रुम मेँ उठकर चली गयी। और उसकी उँगलियोँ की पोरें किताबों पर वैसे ही थिरकने लगी जैसे कोई गिटारिस्ट गिटार बजाता है। ये कोई नयी बात नहीं थी ऐसा वो अक्सर करती है। पर आज उसके मन में भावनाओँ का कुम्भ था जिसमें डुबकी लगाकर मोक्ष प्राप्त कर लेना चाहती थी।

-संभवतः लिखी जा रही कहानी से

तुम

मेरे हर मौन में तुम
धड़कनों के नाद मेँ तुम
उनींदी रात में तुम
अनकही हर बात मेँ तुम
भाव में तुम
मेरे हठ में तुम
श्रृँगार में तुम
गालों के सुर्ख़ लाल में
तुम
साँसो के क़दमताल में तुम
पतझड़ की शाख़ मेँ तुम
वसंत के मेरे हर साल में तुम
अकेली याद में तुम
आँखों के इंतज़ार में तुम
सूनी सी भीड़ में तुम
चल पड़ूँ जिधर
उस राह में तुम
सपनों की तस्वीर में तुम
अनछुए स्पर्श में तुम
मेरे हिस्से की सुनहरी
धूप में तुम
पैरहन के मेरे हर
शोख़ रंग में तुम
कोरे क़ागज के शब्द में तुम
नज़रों के दूर क्षितिज में तुम
संन्यासी से मेरे मन मेँ तुम
मरघट के विलाप में तुम
सिर्फ तुम
सिर्फ तुम और
सिर्फ तुम
-संध्या (rashmi sharma जी की एक ख़ूबसूरत कविता को पढ़ते हुए)

साहब अब क्या करुँ आपका

शिंदे साहब अब क्या करुँ आपका...इस उमर में दिल बच्चा होता तो चलता पर इस पद पर रहते हुए काहे को रेशमी डोर काटते हैं. सिर्फ़ काट रहे होते तो भी चलता पर आप तो जूझे पड़े हैं। आप ही बताओ कौन से वाले ख़ानदानी हक़ीम से ईलाज करवाऊँ।तौबा कैसी लपलपाती ज़बान की नेमत से नवाज़ा है आपको ख़ुदा ने। कल को आपके बेटियाँ थीं और आज साहब(सईद जो चाचा भी हैं) हैं।लफ़्फाजी के कौन से कैम्प के शार्गिद हैं बताएँ तो ज़रा। कहीं बुड़बक राहुल को बचाने की ख़ातिर तो नहीँ ऐँठे ऐंठे से घूम रहे है।या फिर सोनिया मां के आँसुओं में ऐसा बहे कि भाजपा वाया पाकिस्तान पहुँक गये।चलो कोई ना इस उमर और पेशे में सभी रपटते हैं। फिर आप रपटे तो तान के रपटे।चलो अब उठो और कैमरे के आगे जो कुछ झाड़ना झूड़ना है झाड़ लो।
-संध्या यादव
तुम्हारा भरम है कि
वक़्त हर याद भुला देता है
दीवार की पीठ पर
कैलेंडर का निशान
हाल बता देता है
-संध्या
सर्दियों में नानी बीमार पड़ीं तो उनके घर सालों बाद जाना हुआ। मन तो नहीं कर रहा था पर जब वहां ;पहुंची तो लगा जैसे वहां की हर चीज़ बाहें फैलाये मेरा स्वागत  कर रही थी। सचमुच नानी का गाँव अब भी वैसा है...........पूजाघर की वो कुंडी आवाज़ वैसे ही करती है..........डरा करते थे हम जिसको सुन कर .....बेरी (बेर का पेड़ ) वहीँ  पर लगा है......बस एक नयी बेल उसके सहारे चढ़ गयी है.........मेहंदी का पौधा भी द्वारे पर है .....और कुछ खाली शीशियाँ उसके  नीचे नयी पडी हैं........निकलना होता था जब तेज़ी से .......वो गलियारा भी वही है..............सीढ़ियों के पास वाला कमरा आज तक खाली  पड़ा है........जैसे वक़्त वहां तब से ठहरा हो......जब मौत ने मामा को हमसे छीना था..........किस्सा भी पुराना है ..........ऊंचाई पर खड़े उस खंडहर का.............नानी ने फिर वही कहानी सुनाई है ........मुझे सुलाने को..............कुछ साल पहले जहाँ से छूटी थी.......और हाँ छतें भी घर की दीवारों पर टिकी हुयी हैं....बस धन्नियों की जगह.......ईंट सीमेंट ने ले ली है.....बारिश में जिस आँगन की ............सोंधी मिटटी की महक आती थी......उसकी जगह अब फर्श पड़ गयी है....... सूरज रोज आकर हमें खाट पर जगाया करता था.......पर अब तो धूप भी छन कर आती है.....और बया अब छप्पर में अपने घोंसले भी नहीं बनती.......घर के पिछवाड़े लगा पकड़ का पेड़ तो है.......बस वो नीम कट गयी है.......जिसके नीचे बड़के मामा ने ..................मां से छुपाकर मिर्ची मुझे खिलाई थी........मेहंदी हाथों में रचाने की बात पर...........नानी पहले तो सकुचाई थीं.............फिर नाना को देखकर शरमायीं थी..... वक़्त के साथ सब बदला है......पर नानी के हाथों के .............अचार का स्वाद अब भी नहीं बदला.......यहाँ बिजली चंद रोज़ पहले ही आई है........पर चोरी भोले दिलों को इसने सिखाई है...............सजदे में झुकते एकसाथ सर ................तो मोरों का यूं  बोलना ............जैसे साथ दे रहे हों नमाज़ियों का...........सच मुच नानी का गाँव अब भी वैसा है......................................................संध्या यादव 
 

नानी का गाँव अब भी वैसा है

सर्दियों में नानी बीमार पड़ीं तो उनके घर सालों बाद जाना हुआ। मन तो नहीं कर रहा था पर जब वहां ;पहुंची तो लगा जैसे वहां की हर चीज़ बाहें फैलाये मेरा स्वागत  कर रही थी। सचमुच नानी का गाँव अब भी वैसा है...........पूजाघर की वो कुंडी आवाज़ वैसे ही करती है..........डरा करते थे हम जिसको सुन कर .....बेरी (बेर का पेड़ ) वहीँ  पर लगा है......बस एक नयी बेल उसके सहारे चढ़ गयी है.........मेहंदी का पौधा भी द्वारे पर है .....और कुछ खाली शीशियाँ उसके  नीचे नयी पडी हैं........निकलना होता था जब तेज़ी से .......वो गलियारा भी वही है..............सीढ़ियों के पास वाला कमरा आज तक खाली  पड़ा है........जैसे वक़्त वहां तब से ठहरा हो......जब मौत ने मामा को हमसे छीना था..........किस्सा भी पुराना है ..........ऊंचाई पर खड़े उस खंडहर का.............नानी ने फिर वही कहानी सुनाई है ........मुझे सुलाने को..............कुछ साल पहले जहाँ से छूटी थी.......और हाँ छतें भी घर की दीवारों पर टिकी हुयी हैं....बस धन्नियों की जगह.......ईंट सीमेंट ने ले ली है.....बारिश में जिस आँगन की ............सोंधी मिटटी की महक आती थी......उसकी जगह अब फर्श पड़ गयी है....... सूरज रोज आकर हमें खाट पर जगाया करता था.......पर अब तो धूप भी छन कर आती है.....और बया अब छप्पर में अपने घोंसले भी नहीं बनती.......घर के पिछवाड़े लगा पकड़ का पेड़ तो है.......बस वो नीम कट गयी है.......जिसके नीचे बड़के मामा ने ..................मां से छुपाकर मिर्ची मुझे खिलाई थी........मेहंदी हाथों में रचाने की बात पर...........नानी पहले तो सकुचाई थीं.............फिर नाना को देखकर शरमायीं थी..... वक़्त के साथ सब बदला है......पर नानी के हाथों के .............अचार का स्वाद अब भी नहीं बदला.......यहाँ बिजली चंद रोज़ पहले ही आई है........पर चोरी भोले दिलों को इसने सिखाई है...............सजदे में झुकते एकसाथ सर ................तो मोरों का यूं  बोलना ............जैसे साथ दे रहे हों नमाज़ियों का...........सचमुच नानी का गाँव अब भी वैसा है......................................................संध्या यादव 
 

शनिवार, 12 जनवरी 2013

रजाइयों और बलोअरों से
गर्म कमरों में
बैठे जब हम
कॉफ़ी से भरे डिजायनर प्यालों में
शुगर का संतुलन की
चुस्कियां भरते हैं
ठीक उसी वक़्त
किसी रैन बसेरे के कम्बल में
ज़िन्दगी छोटी पड़ जाती है
फुटपाथ के चूल्हे पर
बिना अनाज के
चढ़ी पतीली ठण्ड से
अकड़ जाती है
जब रात सन्नाटे की चादर
बुनती है
गर्म लहू आवाजें करता है
कल ....
जिंदा रहने की चाहत में ..............................संध्या यादव

मंगलवार, 8 जनवरी 2013

अब तक देखी थी
चार हाथों और कई सिरों वाली
औरत
सिर्फ़  तस्वीरों और मूर्तियों
पर इस साल के आखिर में
देख ली दो हाथो और
ज़िन्दगी की हजारों उम्मीदों वाली
सिर्फ़ एक औरत
और जब वो जिंदा कर गयी
अपने जैसी कईयों को
तो मैनें पनीली आखों के साथ
मोड़कर रख दिए 'स्त्री उपेक्षिता' के कुछ पन्ने
और साथ में मोड़ दिया स्मृतियों का
एक वर्ष अपने जीवन का  
ताकि जब फिर कभी कोई
दामिनी जन्मे
तो वे खुद ब ख़ुद खुल जायें
और हम तैयार कर सकें
स्वयं को आने वाले
भविष्य के लिए
और एक नया सबक़
पढ़ सकें ज़िन्दगी का ............................................संध्या यादव