मंगलवार, 8 जनवरी 2013

अब तक देखी थी
चार हाथों और कई सिरों वाली
औरत
सिर्फ़  तस्वीरों और मूर्तियों
पर इस साल के आखिर में
देख ली दो हाथो और
ज़िन्दगी की हजारों उम्मीदों वाली
सिर्फ़ एक औरत
और जब वो जिंदा कर गयी
अपने जैसी कईयों को
तो मैनें पनीली आखों के साथ
मोड़कर रख दिए 'स्त्री उपेक्षिता' के कुछ पन्ने
और साथ में मोड़ दिया स्मृतियों का
एक वर्ष अपने जीवन का  
ताकि जब फिर कभी कोई
दामिनी जन्मे
तो वे खुद ब ख़ुद खुल जायें
और हम तैयार कर सकें
स्वयं को आने वाले
भविष्य के लिए
और एक नया सबक़
पढ़ सकें ज़िन्दगी का ............................................संध्या यादव

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