गुरुवार, 24 जनवरी 2013

ईंटे महज़ पत्थर नहीँ होती
कई बार भावनाओं की अधिकता
उन्हें कठोर बना देती है
ये सोचकर बैठी रह जाती है
ईंटों के उस चार दीवारों वाले
बिना छत के कमरे में
जिसके एक कोने में
गमले की तुलसी ढूँढती है
अपनी ज़मीन...
ताकि पनत सकें उसक बीज
मुरझा जाने के बाद
अब अखरती नहीं पास की झोपड़ी में
खटखटाती सिलाई मशीन
जो गुनगुनाते हुए सिलती है
ज़िंदगी के झोल हर शाम
तुम वादी के पोशनूल होते
तो सुन लेती तुम्हारी आवाज़
चाहो तो आ सकते हो
सूरज बनकर
मैं सह लूंगी तुम्हारा हर ताप
मगर शर्त है
वापस मत मांगना
कोई कर्ण मुझसे
जिसे मैं लौटा न सकूँगी
-संध्या यादव

1 टिप्पणी: