गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

मैं अक्सर तुम्हें

बहने नहीं देता अपनी आँखों से

कुछ तैरते हुए जो ख़्वाब बुने थे

उन दिनों जब हमारे क़स्बों की

हवाएँ एक हुआ करती थीं

हम दूर से पहचान लिया करते थे

एक दूसरे की ख़ुशबू

शब्द मौन साथी होते थे

हाथ थामें तय करते थे 


मीलों के फ़ासले बिना बोले

मैं तुम्हारा स्पर्श लेकर उसे

बंद कर दिया करता था सीपियों में

अब भी पहुँच जाया करता हूँ

आदतन उन मोतियों की तलाश में

डाल दिया करता हूँ कुछ सिक्के

तुम्हारे नाम के

हर पोखर और तालाब में

तुम्हारे गालों का सुर्ख़ लाल

उस रोज़ बह गया था

सुना है ढूँढा करते हैं लाल मूँगे

परले गाँव की नदी में मछुआरे आजकल

-संध्या

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