मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

कुछ दिन पहले देखा की एक दादा जी अपने डेढ़ साल के पोते को एकांत में एक नया खेल सिखा रहे थे और बेचारा बच्चा उसे खेल समझकर बड़ा खुश था. भगवान करे उसे बड़े होकर बचपन का ये खेल कभी याद न रहे.अब कुछ लोग कह सकते हैं कि मैं सिर्फ समाज कि नकारात्मकता ही देख पा रही हूँ बहुत कुछ सकारात्मक भी हो रहा है या फिर ये सब शेयर करके कम से कम अपना स्टैण्डर्ड तो न गिराओ .तो मेरा मानना यही है कि जब लोगों ओ ऐसी नंगई करते शर्म नहीं आती तो फिर मैं उसे संयत शब्दों में कहते हुए क्यों लजाऊँ. साले भाड़ में जाएँ तुम्हारे ऐसे संस्कार और भाड़ में जाये तुम्हारा ऐसा धर्म, जो तुम्हारा बुढ़ापा नहीं संभाल सकता हमारी जवानी ( सनद रहे कि जवानी सिर्फ जिस्म की नहीं होती) क्या संभालेगा. अध्यात्मिक होने से परहेज नहीं है मुझे...परहेज है मुझे तुम्हारे इस दोमुंहे और बजबजाते धर्म से..........................संध्या

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