मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

वो कमरा

वो कमरा कुछ भी नहीं लगता मेरा

पर जैसे वहाँ सबकुछ है मेरा

वो चुप साधे ख़ामोश खड़ा रहता है

पर अकेले में सजता सँवरता है

उसका लकड़ी का दरवाज़ा

कुछ आवाज़ यूँ करता है

जाऊँ जब भी मिलने उससे

जैसे लिपटकर मुझसे रोता है

उसकी खिड़कियों की साँकल ढीली है

एक धूप का टुकड़ा वहाँ

जो अटका रहता है

वो कमरा कुछ भी नहीं लगता मेरा

पर जैसे वहाँ सबकुछ है मेरा

रोटी बाँटकर हमने उसमें

सँग एक दूजे के खायी है

बर्तनों का रंग इसके अजीब सा है

सपने जो इनमें पकाये हैं

ज़िंदगी के स्पर्श में

वहाँ अब भी नमीं है

सुईयाँ दीवार घड़ी की

वैसे ठहरी हुई हैं

किसी के आने के जैसे इंतज़ार में है

वो कमरा कुछ भी नहीं लगता मेरा

पर जैसे वहाँ सबकुछ है मेरा

-संध्या यादव

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