मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

प्रगाश की रौशनी

प्रगाश की रौशनी कुछ कँपाकँपाई और आख़िरकार बुझ गयी। दामिनी की इच्छाशक्ति से लगा था कि वो अपना कुछ हिस्सा हम सब में छोड़ गयी है। पर अफ़सोस उसके साथ साथ हमने अपने हौसलों के पँख भी ख़ुद ही कतर डाले हैं। दामिनी जख़्मी, बुरी तरह से नोचे गये पंखों के साथ भी उड़ने को आसमान में डटी हुई थी तो फिर हम कैसे धर्म की केंचुल चढ़ाये कठमुल्लों की गीदड़ भभकी से डर सकते हैं। आज ये गाने से मना कर रहे, हमारे कपड़ों की लम्बाई अपने फतवों से तय करते हैं, कल को साँस लेने से भी मना कर देंगे।ज़बानी मत भिड़ो इनसे, वो सब करो जिससे इनकी ......ती है।

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