मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

वह दीवाना था

मछलियों की रंगीन पीठ का

और पानी मछलियों का ऑक्सीजन

उसने नाख़ूनों से शल्क खुरचकर

बख़्श दी उनकी जान

-संध्या
खोट ना मुझमें थी ना तुममें,ये वक़्त था जो घूम रहा था घड़ी की सुईयों मे,कुछ समझौते बुनियाद थे हमारी आपसी समझ के,हम हमेशा त्रिभुज के अलग कोने होंगे अगर दुनिया को तिकोना मान लिया जाये,तारीख़ें वही रहेगी बस कैलेण्डर और साल बदल जायेगें
-सत्य के नितांत अपने प्रयोग
सपनों से कह दिया है

सो जाना तुम सब

आज आँखे उनींदी रहेंगी

-संध्या
सुबह आदतन थी
आसमान का सूरज भी
वही सदियों पुराना
आग जिसे खोजा था
दो बेडौल पत्थरों की रगड़ से
आदिमानव ने स्वार्थ हेतु
उसे दरकिनार कर उत्तल लेंस से
सूरज की किरणों को साधकर
वो तमाम ख़त जिनमें
श्रद्धा मनु,आदम हव्वा साथ थे
जला दिया गया है
किसी एक मैं को
-संध्या
प्रेमी... तुम मत दिखलाओ

सपने चाँद सितारों के

कुहनियों तक का रिवाज़ छोड़कर

हाथो में पहनी जाने लगी हैं अब

तय अवसरों पर काँच की दो चूड़ियाँ

-संध्या
सुना... घुंघरू नहीं

तुम झनकते थे

मेरी पाजेब में

-संध्या

amit anand pandey ji की एक कविता से प्रेरित:
ओह... ख़ून की बात छिड़ी है

चलो बता ही दूं

प्रेम में तुम हमेशा

'ग्राही' थे

और 'O ब्लडग्रुप' सरीख़ा

मैंने स्वीकारा था

हमेशा 'दाता' बनना

-संध्या (लिखी जा रही कविता से)

तुम माहिर थे...

शब्दों की गोटियाँ बिछाने में

शतरंज के किसी खिलाड़ी जैसे

लिख डाला एक एक लम्हें का हिसाब

प्रेम उपन्यासों और कविताओं में

जवाब में मैंने लिखा
महाकाव्य

जिसमें लिखे थे सिर्फ़

ढाई आख़र के हर संभव पर्यायवाची

-संध्या
नाह कोई मुखौटा नहीं पहना गया

तुम्हारे आने से हेकड़ी दिखाते पहाड़

दहक उठते हैं भट्ठी की तरह

कुछ दिन के लिए ही सही

पिघल उठता है मानो सब

लेकिन नहीं जानते ये

बुरांश के फूलों जैसे

ऊँचाई बढ़ने के साथ साथ

बदलती जायेगी रंगत तुम्हारी

-संध्या