गुरुवार, 30 मई 2013

सच है कि रिश्ते कभी खेल नहीं होते.....इसीलिए कभी कोशिश नहीं की उन्हें बाँधने की.....मुट्ठी में बंद रखता तो पसीज उठती हथेली मेरी.....इसलिए उँगलियों की पोरों पर रखकर................ उड़ा दिया था उन्हें हौले से हवा में तैरने वाले बीज की तरह......जानते हुए कि अगर इनमें बीज जैसा कुछ बचा होगा तो सूंघेंगे बंज़र धरती में नमीं और दूंढ ही लेंगे अपने उगने की नयी जमीन.....
.......................संध्या (सत्य के नितांत अपने प्रयोगों से)
एक घर कच्ची दीवारों का .......न न कच्ची मिटटी का.....घास फूस का दरवाज़ा... ..दीवारें घेर दी गयीं गोबर, गेरू और चौलीठे से........... चूल्हे की आग, खाली पतीली से उफनाई दाल की महक....दिन भर धुप में खटते मुखिया के .......पसीने का नमक ...... ताख में सजा घरैतिन के सुहाग का सामान............... बेश क़ीमती साजो-सामान था उसमें................................. आज सूर्य ग्रहण था.

-संध्या

(चित्र गूगल गुरु से साभार)
ये सिर्फ़ क़िस्सा था

सदियों के बीच

जो निबाहता है आज भी

हिस्सा अपना अपना

वरना चाँद आसमाँ में कभी

उगा नहीं और

सूरज मर गया होता

कब का

समंदर के पानियों में

डूबकर

-संध्या
चोर सिपाही के खेल में

तुम हमेशा बादशाह की भूमिका में थे

वक़्त वजीर था

इसमेँ कोई संदेह नहीं

जो लरजां कर लेता था

तुम्हारी हर अदा

वो चोर मन ही था

ज़रा एक बात बताओ

पहरेदारी पर किसे बिठाया था

-संध्या
मेरी उड़ान बस वहीं तक है

ज़मीन दिखे जहां से

नीचे छोड़ आयी हूं

वहां उसे मांझा सँभाले

-संध्या
सिकड़ी और ऐट मैट खेलते हुए

सबसे ज़्यादा घर तुमने बसाये

मैंने तो साथी बनकर

बस मदद भर की

-संध्या
तुम्हारे शहर में

हवाओं की गति

भावनाओं का गुरुत्वाकर्षण

बंधन के समीकरण

समय का दाब और

प्रेम की गतिज ऊर्जा

लम्बरदार...

बरनौली की प्रमेय से

हवाई जहाज उड़ा करते हैं

प्रेम की पतंगें नहीं

-संध्या
मेरी पसंदीदा लेखिका की

क़िताबें

ताँबे की एक मूरत

रुपये का एक सिक्का

क़ागज़ पर लिक्खा एक शेर

बस इतना सा मेरा सामान है

-संध्या
छंटाक भर की छोकरी

बड़ा ग़ुरूर है उसे

जाने किस बात पर

ठोकर मारती

उस हर चीज़ को

जो लिपटी है

सहानुभूतियों की चाशनी में

अव्वल सनकी

महीना भर होने को आया

आईना नहीं देखा

उसकी जगह कमरें में

एक तस्वीर सजा रखी है

-संध्या

मंगलवार, 21 मई 2013


(......इस कविता का मैंने कोई नाम नहीं रखा है बस भिन्न भीं परिस्थितियों वाले घरों के संवाद को कविता के रूप में प्रस्तुत करने का छोटा सा प्रयास भर  है....)

अच्छा किया जो नहीं आए तुम

मैं यहाँ सब संभाल लूंगी

मां बीमार है

गुड़िया के कॉन्वेंट स्कूल में

एक्स्ट्रा को कैरिकुलर एक्टिविटीज़ की

फीस अलग से लगेगी इस बार

थाली रोज़ अगती हूँ तुम्हारी

खाने की मेज पर

मुझे पसंद नहीं फिर जाने क्यूँ

बिना नागा किये चखती हूँ

तुम्हारा पसंदीदा खीरे का रायता

मैंने नौकरी छोड़ दी है

बॉस तलाशने लगा था आजकल

दूसरी संभावनाएं

पैसे थोड़े ज्यादा डाल देना

अकाउंट में

बाक़ी मैं ठीक हूँ

ये मुआ कौव्वा रोज़ आकर

बैठ जाता है मुंडेर पर

सवेरे ही अख़बार वाला

फेंक गया है ये खबर दरवाज़े पर

इस साल देर से दस्तक देगा

मॉनसून

-संध्या






शनिवार, 18 मई 2013

कई मैं और कई तुम ..........




तुमने मान लिया था

अलग नही है हम

तभी एक दिन

ट्रुथ एंड डेयर के खेल में

हमने पहने एक दूसरे के मन

जब तुम तर्जनी मे पड़ा लोहे का छल्ला

घुमाते हुए लगाते थे हिसाब

पहली डेट से लेकर हर चीज़ का

और मैं मज़े से पढ़ा करती थी

दास कैपिटल.........

तुम ईद के चाँद में भी

देख लिया करते थे

मेरा पूरा चेहरा जाने कैसे

तारे कातती चरखे वाली बुढ़िया

मुँह चिढ़ाती

सबकी नज़रों से बचाकर तुम चाँद

नज़रभर के देखते

और ठीक उसी समय मैं चाँद बेचकर

परदेस चली जाया करती थी

आसमान कमाने....

अलग होना जुड़ने की पहली शर्त

तुम गवाह बनाते हवा, पानी,

बादल,इंतज़ार शाम,सहर

और घड़ी के पेंडुलम को

सकुचाकर इशारे से जताते कि बहुत

पक्की होती है काँच की फ़िरोज़ाबादी चूड़ियाँ

.और मैं रुखाई से थमाकर मुख़्तारनामा

याद दिलाती नाज़ुक बेड़ियां मुझे पसंद नही

प्रेम उभयनिष्ट था दोनों के बीच

तुम नाम पूछते तो

मेरा जवाब प्रेम

साथ चलते नदी के दो किनारे

बीच में बहता पानी प्रेम था

संतुलन साधे एक एक बूँद सहेजे

किनारे रूठ जाते

तुम पुल बुनते संवादों का

और मैं 'भाड में जाओ कहकर'

सो जाया करती तुम्हारा

चुराया हुआ कुरता पहनकर

....... ( जब तुम, तुम नहीं थे और मैं, मैं नहीं थी.....तब तुम मैं थी और मैं तुम)  


- संध्या