मंगलवार, 30 जुलाई 2013

संभवतः मेरी अब तक की सबसे लम्बी कविता )




चलो एक और खेल खेलते हैं

नहीं शतरंज नहीं

चालें मुझसे चली न जाएँगी

कैसी भी हों

छुपन-छुपायी या किरन परी

जैसा भी कुछ नहीं

अँधेरे के रिश्तों में

वो बात नहीं आती

विष अमृत अच्छा है पर

मैं किसी सिंड्रेला जैसे

बंद कांच के बक्से में

सदियों तक सोना नहीं चाहती

सिकड़ी और ऐट-मैट खेलने में तो

मैं पक्की हूँ

लेकिन फिर वही

मेरी आदत है जानबूझ कर

हार जाने की और

सबसे ज्यादा घर तुम बसा ले जाओगे

स्टेच्यू को जाने ही दो

मैं यादों के साथ ठहर जाऊँगी

और तुम सफ़र में निकल जाओगे

इतनी दूर जहाँ से

नहीं दिखेगी परछाईं भी

सुनो! कोई ऐसा खेल सुझाओ न

जिसमें बात बराबरी पर छूटे

चलो ऐसा करते हैं कि..

अपने तलुवे सूरज की ओर करें

क्यूंकि इन्हें जरूरत नहीं होती

किस्मत वाली रेखाओं की

चेहरे और चाँद का किस्सा पुराना ठहरा

अब बंद करके आखें

महसूसना उजाले अपने अपने

कोशिश करना खोज सको

कोई नयी रौशनी उफ़ुक़ के उस पार ..................................................संध्या








-चित्र गूगल से साभार

Photo: (संभवतः मेरी अब तक की सबसे लम्बी कविता )

चलो एक और खेल खेलते हैं 

नहीं शतरंज नहीं 

चालें मुझसे चली न जाएँगी 

कैसी भी हों 

छुपन-छुपायी या किरन परी 

जैसा भी कुछ नहीं  

अँधेरे के  रिश्तों में 

वो बात नहीं आती 

विष अमृत अच्छा है पर 

मैं किसी सिंड्रेला जैसे 

बंद कांच के बक्से में 

सदियों तक सोना नहीं चाहती 

सिकड़ी और ऐट-मैट खेलने में तो 

मैं पक्की हूँ 

लेकिन फिर वही 

मेरी आदत है जानबूझ कर 

हार जाने की और 

सबसे ज्यादा घर तुम बसा ले जाओगे 

स्टेच्यू को जाने ही दो 

मैं यादों के साथ ठहर जाऊँगी

और तुम सफ़र में निकल जाओगे 

इतनी दूर जहाँ से 

नहीं दिखेगी परछाईं भी 

सुनो! कोई ऐसा खेल सुझाओ न 

जिसमें बात बराबरी पर छूटे 

चलो ऐसा करते हैं कि..

अपने तलुवे सूरज की ओर करें  

क्यूंकि इन्हें जरूरत नहीं होती 

किस्मत वाली रेखाओं की 

चेहरे और चाँद का किस्सा पुराना ठहरा 

अब बंद करके आखें 

महसूसना उजाले अपने अपने 

कोशिश करना खोज सको 

कोई नयी रौशनी उफ़ुक़ के उस पार   ..................................................संध्या 



 




-चित्र गूगल से साभार

सोमवार, 29 जुलाई 2013

िप्रय को भेजे ख़त में

तुमने िलख दी है 

िजन बादलों की रंगत 

गुलाबी है

देखो शायद िछल गया है िज़स्म

आसमान की उम्मीदों का

-संध्या


तुम्हारे लगाये मोगरे 

ख़ूब महकते हैं आजकल

दालान में 

हाँ अच्छे से याद है

बीज ही रोपकर गये थे

मैंने बस सींचा भर है

और मेरे बबूल में भी फूल आए हैं
(मेरे िलए मौसम कभी आने जाने की चीज़ नहीं थे। मैंने अपने मौसम ख़ुद कमाये हैं)

-संंध्या

बिहार के मिड डे मील पीड़ित बच्चों के लिए

मरना आम बात है

इतिहास  की गर्दन मरोड़कर 

देख लें

लेकिन मासूम भूख का 

खाने की मौत मर जाना 
सदियों की त्रासदी है

(आज ज़िंदगी  सपनों की दहलीज़ पर दफ़ना दी गई। आज मौत सचमुच बहुत मासूम थी)

-संध्या


एक और बिटिया के लिए

बदन पर साठ घाव

उफ़्फ़्फ़्फ़.........

नज़र से बचने को

नन्हें हाथों ने 

काली चूिड़याँ पहनी थीं

-संध्या


टुकड़ा टुकड़ा जीता हूँ तुम्हें

जैसे दीवार पर चस्पा

क़ाग़ज़ की क़तरनों का

कोई कोलाज हो तुम

-संध्या

गूलर के फूल

आज दरवाज़े पर दस्तक देकर 

एक और ख़त वापिस आया

शाम की केंचुल उतार 

आसमान रात हो गया 

जब नदी ब्रह्मकमल की तलाश में 

पहाड़- पहाड़ चढ़ी 

जब आसमान चमकीला और 

चाँद काला था 

जब मैनें तुम्हारी आँखों का 

नमक चखा 

उस दिन सच पूछो ........

मैंने गूलर के फूल चखे 

---------------------------------------संध्या

छोटी कविता

लाल इमली के ऊन सी

तुम्हारे आलिंगन की ऊष्मा

-संध्या

 

रंग

एक रंग से तुम्हारे 

अंगूठे ने 

उकेर दिये थे क़ागज़ पर 

बिना छुए मेरी उंगलियों की

पोरों पर अंकित

दसों शंख और चक्र

-संध्या(विशाल कृष्ण सिंह जी की एक thumb painting को देखकर लिखी गयी)
दो चार बातें और

उम्रभर की यादें

(ख़ामोशी के कान बहुत तेज़ थे)

-संध्या
बारह रुपईया मा चार रोटी

सरकार!

पिछले आषाढ़ जब

मुनिया भाई संगे

पानी पी पीकर मर गयी

बिना क़प्फन पत्थर बाँध

नदी में परोहे रहे

(कवि की पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट मेँ आँसुओं की चिपचिपाहट चेहरे की जगह भूखे पेट पर पायी गयी और गरीबी के सर्वे क़ागज़ों पर होते रहे) 

-संध्या

शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

संभवतः रात का तीसरा पहर 

मैं सुनता हूँ 

दूर बस्ती के लाउडस्पीकरों से 

रोज़ेदारों के उठने की गुहार 

मन उकेरता है एक तस्वीर 

और दुआ में मांगता है ख़ुदा से 

अज नींद उसके सपने से टूटे 

.........................संध्या 






(ये कविता मैंने पुरुष मन से लिखने की कोशिश की है आप सब भी पढ़िए तो ज़रा  और बताइए कैसी लगी)  

 मैं आखें  करके कल्पना करता हूँ 

एक आईलैंड की 

किसी योगमुद्रा में भरता हूँ 

एक लम्बा उच्छ्वास 

 तुम्हारे नर्म तलुवों से 

सटा  देता हूँ अपना पांव 

और कहता हूँ कि 

ज़िंदगी खूबसूरत है 

ठीक उसी समय तुम 

अपने नाखूनों पर नेल पेंट की

 एक नयी परत चढ़ाती हो 

और कहती हो सचमुच 

ज़िंदगी खूबसूरत है 
 ......................................................संध्या