मंगलवार, 13 अगस्त 2013

इस कविता का कोई शीर्षक मैंने मैनें जानकर नहीं रखा है ......शीर्षक रखना कई बार मुझे कविता को एक परिधि में बांध देना लगता है.......जैसे कविता के साथ कोई तस्वीर साझा कर दी जाए तो कविता के मानी का पूर्वाभास लग जाता है.....और यहाँ मैं अपनी बात शून्य से शुरू करना चाहती हूँ ..........उसके बाद जो समझा या गढ़ा जाए वो विशुद्ध रूप से कविता की उपज हो......

प्रारंभ से शुरुआत करेंगे हम 
हाँ ...एकदम शून्य से 
हमारा अपना कोई नाम नहीं होगा 
जहाँ अंतिम बिंदु होगा 
मानव सभ्यता का 
कर दी जायेगी भाषा की अंत्येष्टि
दूर चिनार के जंगलों में बोलते 
किसी पोशनूल की कूक से 
झरेंगे शब्द 
बेडौल औज़ार गढ़ते हुए 
मिल जायेगी जीवन दायिनी आग 
नदी बहाकर लाएगी जो पत्थर तराशकर 
साथ बैठ सुस्तायेंगे 
मैं तय करूंगा अपने खेतों की बाड़
मिलकर हल जोतेंगे
इस मिटटी और पसीने के घोल से  
अपनी गुफ़ा की दीवारों पर उकेर देंगे 
प्रेम-क्षणों के भित्ति चित्र
इसी बीच मैं बो दूंगा धरती का पहला बीज
हमारा बीज ......
मिटटी की हांडी में पकते चावल की 
बुदबुदाहट संग 
तुम गुनगुनाया करना बिना सरगम का 
कोई अजनबी संगीत 
भट्ठी की रौशनी में तुम्हें देखते हुए मैं 
लिखा करूंगा अपठनीय लिपि में कविता
हम यूं ही असभ्य बने रहेंगे 
और इनकार कर देंगे सभ्यता के क्रम में 
मंगल ग्राह पर कृत्रिम ऑक्सीजन से लैस 
विकास की बस्तियां बसाने से 


(और भूल जायेंगे कि हमसे पहले भी थे कोई श्रद्धा- मनु ................इससे पहले लिखी थी जयशंकर ने लिखी थी कोई कामायनी)  


------------------------------संध्या     







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