सोमवार, 12 अगस्त 2013


भूत के पांव सी 

एकदम खड़ी दोपहरी 

सूरज पीठ पर उठाये 

एक रिक्शे वाला
 
मैं पसीने से तरबतर

सलीके से पोछती हूँ 

चेहरा अपना 

बस अगले मोड़ तक कहकर 

धप्प से बैठ जाती हूँ

गर्दन से ऊंची इमारतें 

पुच्छल तारे सी चमक वाले 

दुनिया बदलने का दावा करते 

चमकीले विज्ञापन

लाल बत्ती की गाड़ी 

बनी ठनी एक औरत 

हाथ में पिघलती वनीला आइसक्रीम 

और भीख मांगता बच्चा

सन क्रीम की परत चढ़ाए एक लड़की 

घर पहुँचने की जल्दी
 
मैं टोकती हूँ 

रिक्शा थोडा तेज चलाओ 

इतने में बदन झुलसाती 

तेज़ लू का झोंका 

और हवा में उड़ती 

उसकी बिना हाथ की खाली आस्तीन 

रिक्शे वाले 'प्रमोद'

सचमुच रिक्शा पाँव से नहीं चलता 

...न तो हाथों से 

पेट तय करता है रफ़्तार इसकी 

अखबार के तीसरे पन्ने पर

बेबसी की कीमत डेढ़ सौ रुपये

मैंने कुंठा में खबर का गला घोंटा

और कविता लिख दी


(गरीबी की ठीक ठाक कहीं कीमत लगे तो बताना .....मैं बेंचूगी कविता )

-संध्या

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