सोमवार, 12 अगस्त 2013

हिचकियाँ


हिचकियाँ

पता नहीं तुम याद कर रहे थे

या जब कर रहे थे भूलने की कोशिश

तब आई थी मुझे हिचकियाँ

कहावतें कहती हैं कि चुराकर खायी गयी

चीज़ से भी आती हैं हिचकियाँ

मैं स्वीकार करता हूँ 

उन सब बातों का चुराना.... 

जो तुमसे चाहकर भी

कह नहीं सका कभी

घुट गयी थी मेरी सब हिचकियाँ

जबकि हिचकियों का विज्ञान

कुछ और ही कहता है

मेरी सांस में अटक गया था

जब तुम्हारी याद का एक निवाला

हिचकी तब भी आई थी

तुमने ध्यान नहीं दिया होगा

तुम्हारी आदत भी कहाँ है

सब कुछ ध्यान रखने की

गले लगना और गीला कंधा

तब बंध गयी थीं गला भर भरकर 

हिचकियाँ..............

जिस दिन मैंने तुम्हारा एकलौता ख़त 

नदी में में बहा दिया था 

पत्थर बांधकर

शायद वो मेरी आख़िरी हिचकी थी 

(मैं मर तो उसी दिन गया था......हिचकियाँ मेरे जिंदा होने का सुबूत थीं)

-संध्या

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