सोमवार, 12 अगस्त 2013

कोई नयी बात तो नहीं थी...बस आधे -पूरे का खेल था...ज्यादा कुछ नहीं....आधा चाँद ...पूरा सूरज.....आधी प्यास का समंदर....पूरी तृप्त नदी .....मकान बनाने का सामान ......मौरंग से बीने गए कुछ पत्थर और शंख.....शंख ही थे बिना आवाज़ वाले...पूरी पाजेब और आधी टूटी चूड़ियाँ....आधी जली सिगरेट के टुकड़े और पूरी रातें...पता नहीं मुझे आधे से लगाव था या तुम्हारे पूरेपन से प्यार..... तुम्हारे पूरे होने की चाहत में.....अधूरी होती मैं..


(तुम गर्व करो अपने पूरा होने में ......और मैं अपने अधूरेपन पर)


-संध्या

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